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वक़्त बहुत कम है और काम बहुत ज़्यादा है हर एक लम्हे का दाम बहुत ज़्यादा है फ़ुर्सत अब किसको है रिश्तों को जीने की वीकेन्ड वाली इक शाम बहुत ज़्यादा है चौपालें सूनी हैं, मेलों में मातम है कहीं पे रहीम कहीं राम बहुत ज़्यादा है खुल के हँसने की जब याद कभी आए तो पल भर को झलकी मुस्कान बहुत ज़्यादा है कोयल की तानें तो अब भी हैं बाग़ों में लेकिन अब बोतल में आम बहुत ज़्यादा है जिस्मों के धन्धे को लानत अब क्या भेजें इसमें भी शोहरत है, नाम बहुत ज़्यादा है साझे चूल्हे में अब आग कहाँ जलती है शामिल रहने में ताम-झाम बहुत ज़्यादा है बस इक मुहब्बत का आलम ही राहत है लेकिन ये कोशिश नाक़ाम बहुत ज़्यादा है
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