तख़्त बनते हैं -आदित्य चौधरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:06, 28 January 2014 by गोविन्द राम (talk | contribs) ('{| width="100%" style="background:#fbf8df; border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" |- | <noinclude>[[चित्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

50px|right|link=|

तख़्त बनते हैं -आदित्य चौधरी

तेरे ताबूत की कीलों से उनके तख़्त बनते हैं
कुचल जा जाके सड़कों पे, तभी वो बात सुनते हैं

गुनाहों को छुपाने का हुनर उनका निराला है
ख़ून तेरा ही होता है हाथ भी तेरे सनते हैं

न जाने कौनसी खिड़की से तू खाते बनाता है
जो तेरी जेब के पैसे से उनके चॅक भुनते हैं

बना है तेरी ही छत से ही सुनहरा आसमां उनका
मिलेगी छत चुनावों में, वहाँ तम्बू जो तनते हैं

न जाने किस तरह भगवान ने इनको बनाया था
नहीं जनती है इनको मां, यही अब मां को जनते हैं


टीका टिप्पणी और संदर्भ



वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः