हर शाख़ पे बैठे उल्लू से -आदित्य चौधरी

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हर शाख पे बैठे उल्लू से -आदित्य चौधरी

हर शाख पे बैठे उल्लू से,
कोई प्यार से जाके ये पूछे
है क्या अपराध गुलिस्तां का ?
जो शाख पे आके तुम बैठे !

          कितने सपने कितने अरमां
          लेकर हम इनसे मिलते हैं
          बेदर्द ये पंजों से अपने
          सबकी किस्मत को खुरचते हैं

उल्लू तो चुप ही रहते हैं
वो बोलेंगे, इस कोशिश में
हम चप्पल जूते घिसते हैं
दिन-रात दर्द से पिसते हैं

          ना शाख कभी ये सूखेंगी
          ना पेड़ कभी ये कटना है
          जब भी कोई शाख नई होगी
          उल्लू ही उसमें बसना है

इस जंगल में अब आग लगे
और सारे उल्लू भस्म करे
फिर नया एक सावन आए
और नया सवेरा पहल करे

          तब नई कोंपलें फूटेंगी
          और नई शाख उग आएगी
          फिर नये गीत ही गूँजेंगे
          और नई ज़िन्दगी गाएगी


टीका टिप्पणी और संदर्भ



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