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हर शाख़ पे बैठे उल्लू से, कोई प्यार से जाके ये पूछे है क्या अपराध गुलिस्तां का ? जो शाख़ पे आके तुम बैठे ! कितने सपने कितने अरमां लेकर हम इनसे मिलते हैं बेदर्द ये पंजों से अपने सबकी किस्मत पे चलते हैं उल्लू तो चुप ही रहते हैं हम दर्द से हरदम पिसते हैं वो बोलेंगे, इस कोशिश में हम चप्पल जूते घिसते हैं ना शाख़ कभी ये सूखेंगी ना पेड़ कभी ये कटना है जब भी कोई शाख़ नई होगी उल्लू ही उसमें बसना है इस जंगल में अब आग लगे और सारे उल्लू भस्म करे फिर एक नया सावन आए और नया सवेरा पहल करे तब नई कोंपलें फूटेंगी और नई शाख़ उग आएगी फिर नये गीत ही गूँजेंगे और नई ज़िन्दगी गाएगी
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