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इन मंजिलों को शायद कुछ रंजिशें हैं मुझसे जो रास्ते सफ़र के मुश्किल बता रही हैं जो मेरा आसमां है वो मेरा आसमां है फिर कौन सी ग़रज़ से, ये हक़ जता रही हैं ये कौन से तिलिस्मी आलम की दास्तां है जो राहते जां होतीं, वो भी सता रही हैं गुज़रे हुए ज़माने की कैसे कैफ़ीयत दूँ अब और क्या बताऊँ, क्या-क्या ख़ता रही हैं क्या ढूंढते हो? सूरज? वो यूँ नहीं मिलेगा सूरज की हर किरन ही, उसका पता रही हैं
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