इन मंजिलों को शायद -आदित्य चौधरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:44, 27 January 2016 by गोविन्द राम (talk | contribs) ('{| width="100%" style="background:#fbf8df; border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" |- | <noinclude>चित...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

50px|right|link=|

इन मंजिलों को शायद -आदित्य चौधरी

इन मंजिलों को शायद
कुछ रंजिशें हैं मुझसे
जो रास्ते सफ़र के
मुश्किल बता रही हैं

जो मेरा आसमां है
वो मेरा आसमां है
फिर कौन सी ग़रज़ से,
ये हक़ जता रही हैं

ये कौन से तिलिस्मी
आलम की दास्तां है
जो राहते जां होतीं,
वो भी सता रही हैं

गुज़रे हुए ज़माने की
कैसे कैफ़ीयत दूँ
अब और क्या बताऊँ,
क्या-क्या ख़ता रही हैं

क्या ढूंढते हो?
सूरज?
वो यूँ नहीं मिलेगा
सूरज की हर किरन ही,
उसका पता रही हैं


टीका टिप्पणी और संदर्भ


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः