यू. आर. अनंतमूर्ति: Difference between revisions
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==जीवन परिचय== | |||
[[कर्नाटक]] के मेलिज गांव में 21 दिसम्बर सन 1932 में जन्मे डॉ. यू. आर. अनंतमूर्ति ने अपनी शिक्षा दूरवासपुरा में एक पारंपरिक 'संस्कृत विद्यालय' से शुरू की, बाद में उन्होंने [[अंग्रेज़ी]] और तुलनात्मक साहित्य की शिक्षा [[मैसूर]], [[भारत]] और बर्मिंघम, [[इंग्लैंड]] में पूरी की। आधुनिक [[कन्नड़ साहित्य]] की गौरवशाली परंपरा के निर्माण में दो परस्पर विरोधी समानांतर मत साथ सक्रिय रहे हैं- | |||
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इन विरोधी दृष्टिकोणों के जटिल सह-अस्तित्व का उदाहरण अनंतमूर्ति | |||
इन विरोधी दृष्टिकोणों के जटिल सह-अस्तित्व का उदाहरण लेखक यू. आर. अनंतमूर्ति के सृजनात्मक काल में एक बड़ी परंपरा के सार-रूप में देखा जा सकता है। किसी भी परम में विश्वास न करने वाले अनंतमूर्ति ने इस परंपरा को उसकी पूरी महिमा और तनाव के साथ ग्रहण किया है। उनकी संपूर्ण सृजनात्मक यात्रा एक क्रुद्ध विद्रोही युवा से प्रारंभ होकर पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त मानवतावादी लेखक तक की महान् रचनात्मक यात्रा है। | |||
==लेखन कार्य== | ==लेखन कार्य== | ||
अनंतमूर्ति के लेखन कार्य को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है- | यू. आर. अनंतमूर्ति के लेखन कार्य को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है- | ||
*'''पहला अतिवादी पक्ष''', जिसके अंतर्गत उनके दो उपन्यास- संस्कार (1965), भारतीपुर (1973); दो कहानी संग्रह- प्रश्न (1962), मौनी (1972); तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें 'प्रज्ञे मत्तु परिसर' (1974) और 'सन्निवेश' (1974) आते हैं। इस दौर का उनका लेखक सिद्धांतत: [[राममनोहर लोहिया]] की समाजवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित रहा, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की प्रखर आलोचना मुखर है; लेकिन इसी के समानांतर उनके लेखक का सार्त्र और लॉरेंस के सौंदर्यबोध सहित अन्य [[दर्शन|दर्शनों]] के साथ भी अद्भुत और दृढ़ संबंध बना रहा। | *'''पहला अतिवादी पक्ष''', जिसके अंतर्गत उनके दो उपन्यास- संस्कार (1965), भारतीपुर (1973); दो कहानी संग्रह- प्रश्न (1962), मौनी (1972); तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें 'प्रज्ञे मत्तु परिसर' (1974) और 'सन्निवेश' (1974) आते हैं। इस दौर का उनका लेखक सिद्धांतत: [[राममनोहर लोहिया]] की समाजवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित रहा, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की प्रखर आलोचना मुखर है; लेकिन इसी के समानांतर उनके लेखक का सार्त्र और लॉरेंस के सौंदर्यबोध सहित अन्य [[दर्शन|दर्शनों]] के साथ भी अद्भुत और दृढ़ संबंध बना रहा। | ||
*'''उनके लेखन के दूसरे पक्ष को स्व-चिंतन या आत्मान्वेषण''' कहा जा सकता है। अनुमानत: इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास- अवस्थ (1978) से हुआ और अपने चरम पर यह सूर्यना कुदुरे (1989) नामक कहानी में पहुँचा। इस अवधि में आधुनिकता को मात्र प्रदर्शन मानने के प्रति अनंतमूर्ति की गंभीर असहमति पूरे वैचारिक साहस के साथ दिखाई पड़ती है और इसके लिए उन्होंने विशेष रूप से [[गांधी जी|गांधी]] का सहारा लिया है। | *'''उनके लेखन के दूसरे पक्ष को स्व-चिंतन या आत्मान्वेषण''' कहा जा सकता है। अनुमानत: इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास- अवस्थ (1978) से हुआ और अपने चरम पर यह सूर्यना कुदुरे (1989) नामक कहानी में पहुँचा। इस अवधि में आधुनिकता को मात्र प्रदर्शन मानने के प्रति अनंतमूर्ति की गंभीर असहमति पूरे वैचारिक साहस के साथ दिखाई पड़ती है और इसके लिए उन्होंने विशेष रूप से [[गांधी जी|गांधी]] का सहारा लिया है। | ||
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अनंतमूर्ति के लिए लेखन कर्म सदैव वास्तविक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया रहा है। प्रश्नों के घेरे में स्वयं को तलाश करने का भी यही उनका तरीका है। उनके पास जीवन के दुखद एवं त्रासद अनुभवों के माध्यम से रूपक रचने का जादुई कौशल है। सांस्कृतिक विवेचना के दौरान जीवन और दर्शन संबंधी मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार बड़ी निर्भीकता और साहस के साथ प्रस्तुत किए हैं। अपनी सैद्धांतिक हिचकिचाहट के बावजूद उनका सांस्कृतिक आलोचनात्मक लेखन, सुस्पष्टता, सुंदरता और अभिव्यक्ति की गहनता का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन जब वह समस्याओं पर अपने सृजनात्मक कथा साहित्य के माध्यम से विचार करते हैं, तब उनके भीतर के सामाजिक दर्शनशास्त्री का कठोर आग्रह समाप्त हो जाता है और उसकी जगह ज्ञानमीमांसक जटिल और एक बहुआयामी छवि आकार ले लेती है। यही प्रक्रिया उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है। | अनंतमूर्ति के लिए लेखन कर्म सदैव वास्तविक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया रहा है। प्रश्नों के घेरे में स्वयं को तलाश करने का भी यही उनका तरीका है। उनके पास जीवन के दुखद एवं त्रासद अनुभवों के माध्यम से रूपक रचने का जादुई कौशल है। सांस्कृतिक विवेचना के दौरान जीवन और दर्शन संबंधी मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार बड़ी निर्भीकता और साहस के साथ प्रस्तुत किए हैं। अपनी सैद्धांतिक हिचकिचाहट के बावजूद उनका सांस्कृतिक आलोचनात्मक लेखन, सुस्पष्टता, सुंदरता और अभिव्यक्ति की गहनता का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन जब वह समस्याओं पर अपने सृजनात्मक कथा साहित्य के माध्यम से विचार करते हैं, तब उनके भीतर के सामाजिक दर्शनशास्त्री का कठोर आग्रह समाप्त हो जाता है और उसकी जगह ज्ञानमीमांसक जटिल और एक बहुआयामी छवि आकार ले लेती है। यही प्रक्रिया उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है। | ||
उनका उपन्यास संस्कार भी इसी तरह के अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालांकि इस उपन्यास की संरचना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गई है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करती है। | उनका [[उपन्यास]] 'संस्कार' भी इसी तरह के अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालांकि इस उपन्यास की संरचना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गई है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करती है। | ||
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अनंतमूर्ति सही अर्थों में एक आधुनिक लेखक हैं, जो विभिन्न विधागत रूढ़ियों को समाप्त करना चाहते हैं। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य का 'गद्य' उनके 'पद्य' के साथ घुलमिल जाना चाहता है। | अनंतमूर्ति सही अर्थों में एक आधुनिक लेखक हैं, जो विभिन्न विधागत रूढ़ियों को समाप्त करना चाहते हैं। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य का 'गद्य' उनके 'पद्य' के साथ घुलमिल जाना चाहता है। | ||
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Latest revision as of 05:16, 21 December 2017
यू. आर. अनंतमूर्ति
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पूरा नाम | उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति |
अन्य नाम | यू. आर. अनंतमूर्ति |
जन्म | 21 दिसम्बर, 1932 |
जन्म भूमि | मेलिगे, कर्नाटक |
मृत्यु | 22 अगस्त, 2014 |
मृत्यु स्थान | बैंगलुरू |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | प्राध्यापक |
मुख्य रचनाएँ | संस्कार, एंदेन्दु मुगियद, बावली, सन्निवेश आदि। |
भाषा | कन्नड़ |
पुरस्कार-उपाधि | ज्ञानपीठ पुरस्कार (1994), पद्म भूषण (1998) |
प्रसिद्धि | लेखक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | कोयट्टम में 'महात्मा गांधी विश्वविद्यालय' के कुलपति, नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन और केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के अध्यक्ष भी रहे हैं। |
अद्यतन | 12:01, 29 मई 2012 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
यू. आर. अनंतमूर्ति (अंग्रेज़ी: U. R. Ananthamurthy, जन्म- 21 दिसम्बर, 1932; मृत्यु- 22 अगस्त, 2014, बैंगलुरू) 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार, आलोचक और शिक्षाविद थे। उन्हें कन्नड़ साहित्य के 'नव्या आंदोलन का प्रणेता' माना जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना 'संस्कार' है। 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' पाने वाले आठ कन्नड़ साहित्यकारों में से वे छठे थे। उन्होंने 'महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय', तिरुअनन्तपुरम और 'केंद्रीय विश्वविद्यालय', गुलबर्गा के कुलपति के रूप में भी काम किया था। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए सन 1998 में भारत सरकार द्वारा उन्हें 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था। 2013 के 'मैन बुकर पुरस्कार' पाने वाले उम्मीदवारों की अंतिम सूची में यू. आर. अनंतमूर्ति को भी चुना गया था।
जीवन परिचय
कर्नाटक के मेलिज गांव में 21 दिसम्बर सन 1932 में जन्मे डॉ. यू. आर. अनंतमूर्ति ने अपनी शिक्षा दूरवासपुरा में एक पारंपरिक 'संस्कृत विद्यालय' से शुरू की, बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी और तुलनात्मक साहित्य की शिक्षा मैसूर, भारत और बर्मिंघम, इंग्लैंड में पूरी की। आधुनिक कन्नड़ साहित्य की गौरवशाली परंपरा के निर्माण में दो परस्पर विरोधी समानांतर मत साथ सक्रिय रहे हैं-
- वैज्ञानिक बुद्धिवाद व रहस्यात्मक अंत: प्रज्ञावाद
- आक्रामक अतिवाद व मानवतावादी रूढ़िवाद
इन विरोधी दृष्टिकोणों के जटिल सह-अस्तित्व का उदाहरण लेखक यू. आर. अनंतमूर्ति के सृजनात्मक काल में एक बड़ी परंपरा के सार-रूप में देखा जा सकता है। किसी भी परम में विश्वास न करने वाले अनंतमूर्ति ने इस परंपरा को उसकी पूरी महिमा और तनाव के साथ ग्रहण किया है। उनकी संपूर्ण सृजनात्मक यात्रा एक क्रुद्ध विद्रोही युवा से प्रारंभ होकर पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त मानवतावादी लेखक तक की महान् रचनात्मक यात्रा है।
लेखन कार्य
यू. आर. अनंतमूर्ति के लेखन कार्य को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है-
- पहला अतिवादी पक्ष, जिसके अंतर्गत उनके दो उपन्यास- संस्कार (1965), भारतीपुर (1973); दो कहानी संग्रह- प्रश्न (1962), मौनी (1972); तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें 'प्रज्ञे मत्तु परिसर' (1974) और 'सन्निवेश' (1974) आते हैं। इस दौर का उनका लेखक सिद्धांतत: राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित रहा, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की प्रखर आलोचना मुखर है; लेकिन इसी के समानांतर उनके लेखक का सार्त्र और लॉरेंस के सौंदर्यबोध सहित अन्य दर्शनों के साथ भी अद्भुत और दृढ़ संबंध बना रहा।
- उनके लेखन के दूसरे पक्ष को स्व-चिंतन या आत्मान्वेषण कहा जा सकता है। अनुमानत: इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास- अवस्थ (1978) से हुआ और अपने चरम पर यह सूर्यना कुदुरे (1989) नामक कहानी में पहुँचा। इस अवधि में आधुनिकता को मात्र प्रदर्शन मानने के प्रति अनंतमूर्ति की गंभीर असहमति पूरे वैचारिक साहस के साथ दिखाई पड़ती है और इसके लिए उन्होंने विशेष रूप से गांधी का सहारा लिया है।
यथार्थ की अभिव्यक्ति
अनंतमूर्ति के लिए लेखन कर्म सदैव वास्तविक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया रहा है। प्रश्नों के घेरे में स्वयं को तलाश करने का भी यही उनका तरीका है। उनके पास जीवन के दुखद एवं त्रासद अनुभवों के माध्यम से रूपक रचने का जादुई कौशल है। सांस्कृतिक विवेचना के दौरान जीवन और दर्शन संबंधी मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार बड़ी निर्भीकता और साहस के साथ प्रस्तुत किए हैं। अपनी सैद्धांतिक हिचकिचाहट के बावजूद उनका सांस्कृतिक आलोचनात्मक लेखन, सुस्पष्टता, सुंदरता और अभिव्यक्ति की गहनता का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन जब वह समस्याओं पर अपने सृजनात्मक कथा साहित्य के माध्यम से विचार करते हैं, तब उनके भीतर के सामाजिक दर्शनशास्त्री का कठोर आग्रह समाप्त हो जाता है और उसकी जगह ज्ञानमीमांसक जटिल और एक बहुआयामी छवि आकार ले लेती है। यही प्रक्रिया उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है।
उनका उपन्यास 'संस्कार' भी इसी तरह के अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालांकि इस उपन्यास की संरचना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गई है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करती है।
- आधुनिक लेखक
अनंतमूर्ति सही अर्थों में एक आधुनिक लेखक हैं, जो विभिन्न विधागत रूढ़ियों को समाप्त करना चाहते हैं। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य का 'गद्य' उनके 'पद्य' के साथ घुलमिल जाना चाहता है।
इग्नू
प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक और आलोचक डॉ. यू.आर. अनंतमूर्ति को इग्नू के 'भारतीय साहित्य टैगोर पीठ' का मानद अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। टैगोर पीठ मानविकी विद्यापीठ में अवस्थित है, जो कि भारतीय साहित्य पर संगोष्ठी, सेमिनार और शोध अध्ययन आयोजित करने के लिए स्थापित किया गया है। पीठ की गतिविधियों में भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन पर एक द्विभाषी पत्रिका का संपादन भी शामिल है।
अपने सामाजिक प्रतिबद्धताओं और कन्नड़ साहित्य में नव आंदोलन के प्रतिनिधि के तौर पर देशभर में प्रतिष्ठित डॉ. अनन्तमूर्ति ने इस अवसर पर कहा कि 'मैं बेहद सम्मानित महसूस कर रहा हूं और खुश हूं। टैगोर पीठ मुझे भारतीय भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में कई सार्थक काम करने का अवसर देगा। इस नई ज़िम्मेदारी के माध्यम से मैं भारतीय भाषाओं, ख़ासकर क्षेत्रीय भाषाओं को मज़बूत बनाने के रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों पर काम करना चाहता हूं।'
कार्य
अनंतमूर्ति कई वर्षों तक मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। बाद में कोयट्टम में 'महात्मा गांधी विश्वविद्यालय' के कुलपति, नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन और केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के अध्यक्ष रहे। इस समय वे दूसरी बार 'फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के चेयरमैन हैं। डॉ. अनंतमूर्ति ने अपना साहित्यिक जीवन कथा संग्रह 'इंडेनढ़िगु मुघियाडा कथे' से शुरू किया। तब से उनके पांच उपन्यास, एक नाटक, छह कथा संग्रह, चार कविता संग्रह[1]और दस निबंध संग्रह कन्नड़ में प्रकाशित हो चुके हैं और अंग्रेजी साहित्य में भी उन्होंने कुछ काम किया है। उनका साहित्य कई भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हो चुका है
प्रमुख रचनाएं
- उपन्यास- संस्कार[2], अवस्थ [3] और भव[4];
- कहानी- एंदेन्दु मुगियद कथे[5] और मौनी [6];
- कविता- बावली[7], मिथुन[8];
- नाटक- सन्निवेश[9], प्रज्ञे मत्तु परिसर[10], पूर्वापर [11], आवाहने [12]
पुरस्कार
अनंतमूर्ति को कई साहित्यिक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। 1994 में उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1998 में पद्म भूषण सम्मान से भी सम्मानित किया गया है।
निधन
22 अगस्त, 2014 को 81 वर्ष की अवस्था में बैंगलुरू, कर्नाटक में यू. आर. अनंतमूर्ति का निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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