केवलान्वयी: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''केवलान्वयी''' न्यायदर्शन में एक प्रकार का विशेष अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
m (Adding category Category:दर्शन कोश (को हटा दिया गया हैं।)) |
||
(3 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''केवलान्वयी''' | '''केवलान्वयी''' [[न्याय दर्शन|न्याय दर्शन]] में एक प्रकार का विशेष अनुमान है। यहाँ हेतु साध्य के साथ सर्वदा सत्तात्मक रूप से ही संबद्ध रहता है। न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति दो प्रकार से हो सकती है - | ||
#अन्वयमुखेन तथा | |||
#व्यतिरेकमुखेन। | |||
ज्ञेय का अर्थ है ज्ञान का विषय | अन्वय का अर्थ है - तत्सत्त्वे तत्सत्ता अर्थात् किसी वस्तु के होने पर किसी वस्तु की स्थिति, जैसे धूम के रहने पर [[अग्नि]] की स्थिति। व्यतिरेक व्याप्ति वहाँ होती है जहाँ हेतु तथा साध्य का संबंध निषेधमुखेन सिद्ध होता है। केवलान्वयी अनुमान केवल प्रथम व्याप्ति के ऊपर ही आधारित रहता है। यथा समस्त ज्ञेय पदार्थ अभिधेय होते हैं<ref>प्रतिज्ञा</ref> घट एक पदार्थ है<ref>हेतुवाक्य</ref>, अतएव घट अभिधेय है।<ref>निगम</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=123 |url=}}</ref> | ||
*'''ज्ञेय''' का अर्थ है ज्ञान का विषय होना अर्थात् वह पदार्थ जिसे हम जान सकते हैं। | |||
*'''अभिधेय''' का अर्थ है अभिधा या संज्ञा का विषय होना अर्थात् वह पदार्थ जिसे हम कोई नाम दे सकते हैं। जगत् का यह नियम है कि ज्ञान विषय होते ही पदार्थ का कोई न कोई नाम अवश्यमेव दिया जाता है। यह व्याप्ति सत्तात्मक रूप से ही सिद्ध की जा सकती है, निषेधमुखेन नहीं, क्योंकि कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैै जिसको नाम न दिया जा सके। अर्थात् अभिधेयाभाव को हम ज्ञेयभाव के साथ [[दृष्टांत]] के अभाव में कथमपि संबद्ध नहीं सिद्ध कर सकते। इसलिये ऊपर वाला निगमन केवल अन्वय व्याप्ति के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। इसीलिये ये अनुमान '''केपलान्वयी''' कहलाता है।<ref>देखिए-अन्वयव्यतिरेक</ref> | |||
Line 9: | Line 14: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{दर्शन शास्त्र}} | |||
[[Category:धर्म]][[Category:धर्म कोश]][[Category:न्याय दर्शन]] | [[Category:धर्म]][[Category:धर्म कोश]][[Category:न्याय दर्शन]] | ||
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | [[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | ||
[[Category:दर्शन कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 05:48, 13 January 2020
केवलान्वयी न्याय दर्शन में एक प्रकार का विशेष अनुमान है। यहाँ हेतु साध्य के साथ सर्वदा सत्तात्मक रूप से ही संबद्ध रहता है। न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति दो प्रकार से हो सकती है -
- अन्वयमुखेन तथा
- व्यतिरेकमुखेन।
अन्वय का अर्थ है - तत्सत्त्वे तत्सत्ता अर्थात् किसी वस्तु के होने पर किसी वस्तु की स्थिति, जैसे धूम के रहने पर अग्नि की स्थिति। व्यतिरेक व्याप्ति वहाँ होती है जहाँ हेतु तथा साध्य का संबंध निषेधमुखेन सिद्ध होता है। केवलान्वयी अनुमान केवल प्रथम व्याप्ति के ऊपर ही आधारित रहता है। यथा समस्त ज्ञेय पदार्थ अभिधेय होते हैं[1] घट एक पदार्थ है[2], अतएव घट अभिधेय है।[3][4]
- ज्ञेय का अर्थ है ज्ञान का विषय होना अर्थात् वह पदार्थ जिसे हम जान सकते हैं।
- अभिधेय का अर्थ है अभिधा या संज्ञा का विषय होना अर्थात् वह पदार्थ जिसे हम कोई नाम दे सकते हैं। जगत् का यह नियम है कि ज्ञान विषय होते ही पदार्थ का कोई न कोई नाम अवश्यमेव दिया जाता है। यह व्याप्ति सत्तात्मक रूप से ही सिद्ध की जा सकती है, निषेधमुखेन नहीं, क्योंकि कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैै जिसको नाम न दिया जा सके। अर्थात् अभिधेयाभाव को हम ज्ञेयभाव के साथ दृष्टांत के अभाव में कथमपि संबद्ध नहीं सिद्ध कर सकते। इसलिये ऊपर वाला निगमन केवल अन्वय व्याप्ति के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। इसीलिये ये अनुमान केपलान्वयी कहलाता है।[5]
|
|
|
|
|