राई नृत्य: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
(2 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 4: | Line 4: | ||
*राई नृत्य में बेड़नियाँ नाचती हैं और बेड़नी के अभाव में स्त्री-वेशधारी पुरुष नाचते हैं। | *राई नृत्य में बेड़नियाँ नाचती हैं और बेड़नी के अभाव में स्त्री-वेशधारी पुरुष नाचते हैं। | ||
*इस नृत्य के साथ फागें गाई जाती हैं। राई के गीत [[ख्याल]], [[स्वाँग]] आदि और भी कई प्रकार के होते हैं। | *इस नृत्य के साथ फागें गाई जाती हैं। राई के गीत [[ख्याल]], [[स्वाँग]] आदि और भी कई प्रकार के होते हैं। | ||
*मृदंग की थाप पर घुंघरुओं की झंकारती राई और उसके साथ नृत्यरत स्वांग न केवल अपढ़ और ग्रामीणों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि शिक्षित और सवर्ण भी इसे देखकर | *मृदंग की थाप पर घुंघरुओं की झंकारती राई और उसके साथ नृत्यरत स्वांग न केवल अपढ़ और ग्रामीणों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि शिक्षित और सवर्ण भी इसे देखकर आह्लादित हो जाते हैं। | ||
*नाचने वाली बेड़नी के साथ [[मृदंग]] बजाने वाला नाचता है और नाचते हुये बेड़नी के समीप जाकर [[नृत्य]] करता है। | *नाचने वाली बेड़नी के साथ [[मृदंग]] बजाने वाला नाचता है और नाचते हुये बेड़नी के समीप जाकर [[नृत्य]] करता है। | ||
*राई नृत्य में राई जलती हुई मशाल को लेकर बेड़नी के मुख के पास किये रहता है, जिससे दर्शकों को उसका चेहरा, स्पष्ट भावभंगिमाओं के साथ दिखाई देता है। | *राई नृत्य में राई जलती हुई मशाल को लेकर बेड़नी के मुख के पास किये रहता है, जिससे दर्शकों को उसका चेहरा, स्पष्ट भावभंगिमाओं के साथ दिखाई देता है। | ||
Line 18: | Line 18: | ||
बैरन मुरलिया तू सौत भई।'</poem></blockquote> | बैरन मुरलिया तू सौत भई।'</poem></blockquote> | ||
*ईसुरी की फागों में न केवल [[ | *ईसुरी की फागों में न केवल [[श्रृंगार रस]] का प्राचुर्य है, अपितु लोकमंगल की भावना के अभिव्यंजक विविध [[रस|रसों]] का भी समावेश है<ref name="aa"/>, जैसे [[शांत रस]]- | ||
<blockquote><poem>'बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की। | <blockquote><poem>'बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की। | ||
Line 25: | Line 25: | ||
एकउ नई किवार-किबरियाँ, बिना कुची तारे की। | एकउ नई किवार-किबरियाँ, बिना कुची तारे की। | ||
’ईसुर’ चाये निकारो, जिदनाँ हमें कौन वारे की।'</poem></blockquote> | ’ईसुर’ चाये निकारो, जिदनाँ हमें कौन वारे की।'</poem></blockquote> | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
Line 31: | Line 30: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{नृत्य कला}} | {{नृत्य कला}}{{आदिवासी संस्कृति}} | ||
[[Category:लोक नृत्य]][[Category:नृत्य कला]][[Category:संस्कृति कोश]][[Category:कला कोश]] | [[Category:राजस्थान]][[Category:राजस्थान की संस्कृति]][[Category:आदिवासी संस्कृति]][[Category:भील संस्कृति]][[Category:लोक नृत्य]][[Category:नृत्य कला]][[Category:संस्कृति कोश]][[Category:कला कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
Latest revision as of 17:26, 1 June 2021
thumb|250px|राई नृत्य करती नर्तकी राई नृत्य बुंदेलखंड के प्रसिद्ध नृत्यों में से एक है। यह नृत्य गुजरात के प्रसिद्ध गरबा नृत्य के समान ही प्रसिद्ध है। राई नृत्य बारहों महीने नाचा जाता है। बुंदेलखंडी जनमानस का हर्ष और उल्लास इस लोक नृत्य में अभिव्यक्त होता है।
- राई नृत्य में बेड़नियाँ नाचती हैं और बेड़नी के अभाव में स्त्री-वेशधारी पुरुष नाचते हैं।
- इस नृत्य के साथ फागें गाई जाती हैं। राई के गीत ख्याल, स्वाँग आदि और भी कई प्रकार के होते हैं।
- मृदंग की थाप पर घुंघरुओं की झंकारती राई और उसके साथ नृत्यरत स्वांग न केवल अपढ़ और ग्रामीणों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि शिक्षित और सवर्ण भी इसे देखकर आह्लादित हो जाते हैं।
- नाचने वाली बेड़नी के साथ मृदंग बजाने वाला नाचता है और नाचते हुये बेड़नी के समीप जाकर नृत्य करता है।
- राई नृत्य में राई जलती हुई मशाल को लेकर बेड़नी के मुख के पास किये रहता है, जिससे दर्शकों को उसका चेहरा, स्पष्ट भावभंगिमाओं के साथ दिखाई देता है।
- इस कला के पुजारी बुंदेलखंड में बहुत हैं।[1]
- राई नृत्य के साथ यहाँ विशेषतः सुप्रसिद्ध लोक कवि ईसुरी की फागें गाई जाती हैं। ईसुरी की फागों को प्रसिद्धि रंगरेजन नर्तकी और गायक धीरे पण्डा ने दिलाई थी। यहाँ के एक फाग का उदाहरण इस प्रकार है-
'बजरई आधी रात बैरन मुरलिया जा सौत भई।
बन से तू काटी गई, छेदी तोय लुहार।
हरे बांस की बांसुरी मनो निकारो ने सार।
बैरन मुरलिया जा सौतन भई।
पोर-पोर सब तन कटे, हटे न औगुन तौर।
हरे बांस की बांसुरी ले गई चित्त बटौर।
बैरन मुरलिया तू सौत भई।'
- ईसुरी की फागों में न केवल श्रृंगार रस का प्राचुर्य है, अपितु लोकमंगल की भावना के अभिव्यंजक विविध रसों का भी समावेश है[1], जैसे शांत रस-
'बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भींत उठी माटी की, छाई पूस-चारे की।
बेबन्देज, बड़ी बेबाड़ा, जौ में दस द्वारे की।
एकउ नई किवार-किबरियाँ, बिना कुची तारे की।
’ईसुर’ चाये निकारो, जिदनाँ हमें कौन वारे की।'
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 आदिवासियों के लोक नृत्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 मई, 2014।