अपभ्रंश भाषा: Difference between revisions
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Revision as of 08:53, 14 October 2011
- अपभ्रंश मध्य भारतीय-आर्य भाषाओं (लगभग 12 वीं शताब्दी) के तीसरे और अंतिम चरण की साहित्यिक भाषा है।
- साहित्यिक भाषा होने के बावज़ूद अपभ्रंश में ऐसे परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं, जो उत्तरी भारत में बोली जाने वाली बोलियों में हुए होंगे।
- मध्य भारतीय-आर्य भाषा में संस्कृत से काफ़ी स्वरवैज्ञानिक और रूपात्मक अंतर दृष्टिगोचर होता है। रूढ़ व्याकरणवादी ऐसे सभी अंतरों को अपभ्रंश की संज्ञा देते हैं, जिसका अर्थ विपथ होना है। आरंभिक काल में इस प्रचलन को भ्रष्ट माना जाता था। शौरसेनी प्राकृत को अपभ्रंश का आरंभिक चरण माना जाता है। जब साहित्यिक उपयोग के लिए प्राकृत को औपचारिक रूप दिया गया (सूत्रबद्ध किया गया), तो इसके बोलीगत प्रकारों को अपभ्रंश के रूप में पहचाना जाने लगा।
- तीसरी शताब्दी में भरत मुनि ने नाट्य विद्या पर अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में दो प्रकार की स्थानीय बोलियों का उल्लेख किया है, प्राकृत (भाषाएँ) और उसके भ्रंश (विभाषाएँ)।
- सातवीं शताब्दी के कवि दंडी ने आभीर जैसी काव्यात्मक भाषाओं को अपभ्रंश कहा है। इस तरह इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, कि तीसरी शताब्दी में निश्चित रूप से अपभ्रंश के नाम से ज्ञात बोलियाँ थीं, जो क्रमशः साहित्यिक स्तर तक विकसित हुईं।
- छठी शताब्दी में भामह ने कविता को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रूप में वर्गीकृत किया। छठी शताब्दी तक अपभ्रंश को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता मिल चुकी थी और यह एक रूढ़िबद्ध शैली में क़ायम रही, यहाँ तक कि नवीन भारतीय-आर्य भाषाओं के साथ भी इसका अस्तित्व बना रहा।
- अब भी अपभ्रंश सिर्फ़ कविता की भाषा के रूप में ज्ञात है, क्योंकि कोई गद्य या नाट्य रचना इस भाषा में नहीं है।
- अधिकांश वर्तमान साहित्य जैन पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों पर आधारित है। इस भाषा की कुछ शास्त्रीय रचनाएँ हैं, आठवीं शताब्दी में स्वयंभूदेव द्वारा रचित रामायण का जैन संस्करण पउम चरिउ; 10 वीं शताब्दी के पुष्पदंत द्वारा लिखित महापुराण (63 जैन, चरित्रों के जीवन पर आधारित) और नाय कुमार चरिउ; 10वीं शताब्दी के धनपाल की भविसयत्तकहा; और 11वीं शताब्दी के पद्मकीर्ति की पसनाह चरिउ है।
- दोहा छंद, जिनमें से प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण है और एक स्वतंत्र अवधारणा को मूर्तिमान करता है, अपभ्रंश का लोकप्रिय साहित्यिक स्वरूप है। दोहों के कुछ उल्लेखनीय संकलन हैं, सातवीं शताब्दी में देवसेन की रचना सवय- धम्मदोहा और आठवीं शताब्दी में कान्ह की रचना दोहा कोश।
- हेमचंद्र ने 12 वीं शताब्दी में प्राकृत व्याकरण पर अपने ग्रंथ में अपभ्रंश की व्यापक विवेचना की है। कहा जाता है कि उनकी टिप्पणियाँ पश्चिमी बोलियों पर आधारित थीं। संभावना है कि इन्हीं बोलियों से अपभ्रंश काव्य का आरंभ हुआ होगा।
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