काम की खुन्दक -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - " खाली " to " ख़ाली ")
m (Text replace - "प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक" to "संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक")
Line 33: Line 33:
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी  
-आदित्य चौधरी  
<small>प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक</small>   
<small>संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक</small>   
</poem>
</poem>
|}
|}

Revision as of 13:54, 15 July 2013

50px|right|link=| 20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
20px|link=http://www.facebook.com/profile.php?id=100000418727453|फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

काम की खुन्दक -आदित्य चौधरी


right|250px|border

"ये प्याज़ कमबख़्त ऐसी चीज़ है जो ज़्यादा नहीं खाई जा सकती... और हम तो भैया प्याज़ का एक टुकड़ा भी नहीं खा सकते !"
"सही कह रहे हैं पंडिज्जी ! आप तो ब्राह्मण हैं इसलिए नहीं खाते लेकिन हमको भी प्याज़ अच्छी नहीं लगती, पर क्या करें दुकान तो चलानी है। सब चीज़ बेचते हैं तो प्याज़ भी बेचनी पड़ती है।" लाला ने पंडित जी से कहा।
पास ही बैठा छोटे पहलवान इनकी बातें सुन रहा था। कुछ दिनों से छोटे पहलवान का मन उचाट हो रहा था। उसने बिना सोचे समझे ही कह दिया-
"प्याज़ खाने में क्या है कितनी भी खा जाओ। आप लोग तो बिना बात प्याज़ का हौव्वा बना रहे हैं।" छोटे ने खुन्दक में कहा।
"अच्छा ! तो तू कितनी खा जाएगा ?" पंडित जी बोले
"मैं... मेरा क्या है मैं तो सौ भी खा जाऊँगा"
"क्या ? सौ प्याज़ ?... अच्छा तो ठीक है फिर खा ले सौ प्याज़, अगर तूने सौ प्याज़ खा लीं तो तुझे सौ रुपये इनाम।"
"लेकिन अगर नहीं खा पाया तो...?" लाला ने पंडित जी से पूछा लेकिन छोटे ने बीच में ही बात काट कर कहा
"तो फिर सौ जूते मारना मेरी चाँद में... अगर सौ प्याज़ ना खाऊँ तो..."
लाला ने सौ प्याज़ गिनकर छोटे के सामने रख दीं और छोटे ने खाना शुरू कर दिया। लगातार पाँच प्याज़ खाने से छोटे की आँखों से आँसू बहने लगे। पानी पीकर उसने पाँच प्याज़ और खालीं। अब हालत ज़्यादा ख़राब हो गई। पहलवान ने सोचा कि जूते खाना ज़्यादा आसान रहेगा।
"पंडिज्जी ! मुझसे प्याज़ नहीं खाई जा रही, आप जूते ही मार लो।"
पंडित जी जूतों के मामले में काफ़ी प्रयोगधर्मी दृष्टिकोण रखते थे। विभिन्न मौसमों का सामना करते-करते जूतों का भार और आकार किसी भी जीव-वैज्ञानिक के लिए वैसी ही चुनौती बन सकता था जैसी कि उसे हज़ारों वर्ष पहले लुप्त हो चुके भारी भरकम आदि मानव 'नीएन्डरटल' के जूते कहीं खुदाई में मिल जाने पर मिलती।
"पंडिज्जी धीरे...! पंडिज्जी धीरे...!" जूते के प्रत्येक प्रहार पर छोटे की कराह निकल जाती। साथ ही छोटे के सिर पर जूता पड़ते ही पहलवान की आँखों में तरह-तरह के चमकीले रंगों की रोशनी डिस्को लाइट जैसी भी दिख जाती। 
बीस जूते खाकर छोटे बोला "पंडिज्जी रुक जाओ, जूतों से अच्छी तो प्याज़ पड़ रही थी। मैं प्याज़ ही खाऊँगा।" प्याज़ खाने और जूते खाने का सिलसिला काफ़ी देर चलता रहा। कुल-मिलाकर हुआ ये कि छोटे ने अस्सी प्याज़ ख़ाली और जूते पूरे सौ पड़े और एक रुपया भी इनाम मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था। 
        दरअसल छोटे पहलवान की असमंजस वाली मन: स्थिति हम में से बहुतों के साथ घटती रहती है। अपनी वर्तमान स्थिति, नौकरी, पढ़ाई, स्थान, गृहस्थी, जीवन साथी आदि जैसे कई मुद्दे हैं, जिन पर हम असंतुष्ट रहते हैं और जिनका विश्लेषण और मूल्यांकन भी नहीं करना चाहते। परिवर्तन-शीलता मनुष्य का सहज स्वभाव है, इसलिए किसी भी स्थान, व्यक्ति या कार्य से ऊब हो जाना एक सामान्य प्रक्रिया है और यही प्रक्रिया हमारी असंतुष्टि का कारण बनती है।
        मनुष्य के इस स्वभाव पर शोध होते रहते हैं, जैसे कि लगातार इक्कीस मिनट तक कोई एक ही चीज़ को सुनते या देखते रहने से हमारा ध्यान उसकी ओर से हटने लगता है। 
इसी बात को ध्यान में रखकर टेलीविज़न धारावाहिक इक्कीस मिनट के ही बनाये जाते हैं। स्कूल, कॉलजों में एक विषय के लिए जो समय सामान्यत: रखा जाता है वो 45 मिनट का होता है। पुराने वक्त में इस 45 मिनट के 'पीरियड' को लगभग 20 मिनट बाद रुककर 5 मिनट का एक अंतराल रखा जाता था। इस तरह 45 मिनट के एक पीरीयड में 3 से 5 मिनट का मंध्यातर भी होता था जिसका चलन अब नहीं है। फीचर फ़िल्मों में भी बीच-बीच में गाने डाले जाने का कारण बीस मिनट से अधिक चलने वाली समरसता को भंग करने के लिए होता था और आज भी इन्हीं आँकड़ों का ध्यान रखकर व्याख्यान, धारावाहिक, फ़िल्म, नाटक आदि तैयार किये जाते हैं। 
        महान दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने सुख से जीवन बिताने का तरीक़ा पूछा तो उन्होंने बताया कि जो भी काम हम करें उसे पूरे मन से करें तो हम पूरे जीवन सुखी और आनंदित रह सकते हैं। कृष्णमूर्ति के कथन में भी एक 'लेकिन' लगाया जा सकता है... लेकिन ये होगा कैसे ?। ऐसा कैसे हो कि जो भी हम कर रहे हैं उसे हम पूरे मन से करें ? एक तरीक़ा है इसका भी, वो ये कि आप काम करते हुए ख़ुद पर 'निगाह' रखें... अपने आप को अपनी ही निगरानी में रखें... यह निगरानी आपके काम का मूल्याँकन भी करती चलेगी। इससे अपने काम से ऊब होने की संभावना कम हो जाती है। अपने कार्य को लगन के साथ करने की बात तो सब कहते हैं लेकिन इसका तरीक़ा क्या है ? कैसे पैदा होती है ये लगन ? 
        दिल्ली में एक लड़का मेरे बाल काटता था। मैं अक्सर उसी से बाल कटवाता था। बाल काटने की प्रक्रिया में वो मुझसे कुछ न कुछ पूछता भी रहता था। एक बार उसने पूछा कि मैं कैसे बड़ा आदमी बन सकता हूँ ? मैंने कहा कि जो भी तुमसे बाल कटवाने आए तुम उसे अमिताभ बच्चन या सचिन तेन्दुलकर समझो और बाल काटो, बस और कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। 
        इसके बाद मैं बहुत समय तक वहाँ नहीं जा पाया। शायद दो-तीन साल गुज़र गए। एक बार जब मैं गया तो वहाँ का नज़ारा बदला हुआ था। वो लड़का मालिक की कुर्सी पर बैठा था। पूछने पर पता चला कि उस सैलून का ठेका अब होटल वालों ने उसी को दे दिया है। लड़का भी ख़ासा मोटा हो गया था और क़ीमती कपड़े पहने हुए था। इस सब का राज़ पूछने पर उसने बताया कि उसने मेरी बात गांठ बाँध ली थी और एक साल के अंदर ही बदलाव सामने आने लगा।
इसके बाद वो इससे ज़्यादा तरक़्क़ी नहीं कर पाया क्योंकि एक स्तर तक सफल होने के बाद ख़ुद को उसने 'बड़ा आदमी' मान लिया और लापरवाह हो गया।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


टीका टिप्पणी और संदर्भ