आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट नवम्बर 2013: Difference between revisions

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पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

'सन्यास' ही एकमात्र
ऐसा 'पलायन' है
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है

250px|center 24 नवम्बर, 2013

भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।

250px|center 24 नवम्बर, 2013

मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
/) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
/) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
/) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
/) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
/) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
/) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।

250px|center 17 नवम्बर, 2013

यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।

250px|center 13 नवम्बर, 2013

जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...

250px|center 11 नवम्बर, 2013

'प्रेम' व्यक्ति से होता है और उसकी यथास्थिति में ही होता है
जबकि 'श्रद्धा' किसी की प्रतिष्ठा के प्रति होती है
जो कि प्रतिष्ठा का क्षय होने से समाप्त हो जाती है
इसीलिए प्रेम शाश्वत और सर्वश्रेष्ठ है
श्रद्धा क्षणभंगुर है
और निश्चित ही, प्रेम की भांति
परम पद प्राप्त नहीं कर सकती
इसलिए किसी व्यक्ति से या ईश्वर से 'प्रेम' करने वाले
सदैव तृप्त और मस्त रहते हैं
जबकि 'श्रद्धा' रखने वाले
सदैव सशंकित और असमंजस से घिरे हुए...

250px|center 6 नवम्बर, 2013

दोस्ती 'हो' जाती
और
दुश्मनी 'की' जाती है

250px|center 6 नवम्बर, 2013

अक्सर सुनने में आता है-
असफलता और विपरीत परिस्थिति उसी व्यक्ति को अधिक मिलती है, जिसमें इनका का सामना करने की क्षमता होती है।
इसका अर्थ क्या है? क्या ऐसा होने में भाग्य या नियति की कोई भूमिका है?
नहीं ऐसा नहीं है।
इसका कारण सीधा-सादा है-
बुद्धिमान, योग्य, प्रतिभावान, समर्थ और सक्षम व्यक्ति अधिकतर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिससे, असफलता और संघर्ष का सामना होना सामान्य सी प्रक्रिया है।
शेष तो "संतोषी सदा सुखी" मंत्र को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।

250px|center 6 नवम्बर, 2013

मनुष्य को सभ्यता की शिक्षा दी जाती है क्योंकि समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए।
वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। हम अभ्यास से सभ्य हो सकते हैं भद्र तो विरले ही होते हैं।
सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं, सधा और सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है'।
'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। भद्रता के लिए किसी की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
अभद्रता वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।

250px|center 5 नवम्बर, 2013

प्रत्येक धर्म के अनुयायी, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
यह भी चाहते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुने तो फिर
ईश्वर से प्रार्थना भी ऐसी ही करनी चाहिए जिसे कि ईश्वर सुने...
राज़ की बात ये है कि केवल एक ही प्रार्थना ऐसी है जिसे वह सुनता है-
"हे ईश्वर ! सभी का कल्याण कर।"
इसके अलावा बहुत सी प्रार्थनाएँ ऐसी हैं जो ईश्वर ने कभी नहीं सुनी और न ही कभी सुनेगा, जैसे कि-
"हे ईश्वर मेरा भला कर।" या फिर "उसका बुरा कर" आदि-आदि।
कारण सीधा सा है-
ईश्वर पक्षपाती नहीं हो सकता और जो पक्षपाती है वह ईश्वर कैसे हो सकता है?

250px|center 5 नवम्बर, 2013

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