चौकोर फ़ुटबॉल -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "जरूर" to "ज़रूर") |
||
Line 35: | Line 35: | ||
# किसी ऐसे आदमी को नौकरी मत दो जो अपना काम पैसे के लिए करता है, बल्कि उसे नौकरी दो जो अपने काम से मुहब्बत करता है- हेनरी डेविड थोरो | # किसी ऐसे आदमी को नौकरी मत दो जो अपना काम पैसे के लिए करता है, बल्कि उसे नौकरी दो जो अपने काम से मुहब्बत करता है- हेनरी डेविड थोरो | ||
# साथ जुड़ना एक शुरूआत है; साथ रहना प्रगति है और साथ काम करना ही सफलता है- हेनरी फ़ोर्ड | # साथ जुड़ना एक शुरूआत है; साथ रहना प्रगति है और साथ काम करना ही सफलता है- हेनरी फ़ोर्ड | ||
जब एक बुद्धिमान और होनहार व्यक्ति किसी प्रतिष्ठान में नौकरी करता है तो उसका काम करने का तरीक़ा सामान्य व्यक्तियों से अलग होता है। वह जानता है कि यदि उसे विकास करना है तो कम्पनी की प्रगति भी | जब एक बुद्धिमान और होनहार व्यक्ति किसी प्रतिष्ठान में नौकरी करता है तो उसका काम करने का तरीक़ा सामान्य व्यक्तियों से अलग होता है। वह जानता है कि यदि उसे विकास करना है तो कम्पनी की प्रगति भी ज़रूरी है और वह बिना भावुकता के सोची समझी रणनीति के साथ अपने काम को ज़िम्मेदारी से करता है। सीधी सी बात है अगर हमें महत्त्वपूर्ण बनना है तो हमें उस प्रतिष्ठान की अनिवार्य ज़रूरत के रूप में खुद को साबित करना होगा। यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई भी प्रतिष्ठान किसी कर्मचारी को भावुकता के धरातल पर नहीं रखता इसलिए कर्मचारियों का भी प्रतिष्ठान के प्रति भावुक प्रेम निरर्थक ही है। | ||
150 करोड़ की आबादी को छूने को तैयार हमारे देश में कई पार्टियों की सरकारें बनीं, कभी स्पष्ट बहुमत से तो कभी मिली जुली लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र को अच्छी तरह संभालने में कभी भी, कोई भी सरकार सफल नहीं रही। क्या ये लोकतंत्र की मजबूरी है ? क्या प्रजातांत्रिक ढांचे में चल रहे देश इसी प्रकार की समस्याओं से जूझते रहते हैं ? क्या उत्तर है इन बातों का ? असल में सरकारी नौकरियों की दुनिया ही अलग है जहाँ कर्मठता और अकर्मण्यता में कोई उल्लेखनीय भेद नहीं है। न जाने क्यों सार्वजनिक क्षेत्र में कर्मचारियों के निष्क्रिय और अकर्मण्य होने पर भी किसी प्रकार के गम्भीर दण्ड का प्रावधान नहीं है। इसी कारण सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र से पिछड़ते जाते हैं। | 150 करोड़ की आबादी को छूने को तैयार हमारे देश में कई पार्टियों की सरकारें बनीं, कभी स्पष्ट बहुमत से तो कभी मिली जुली लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र को अच्छी तरह संभालने में कभी भी, कोई भी सरकार सफल नहीं रही। क्या ये लोकतंत्र की मजबूरी है ? क्या प्रजातांत्रिक ढांचे में चल रहे देश इसी प्रकार की समस्याओं से जूझते रहते हैं ? क्या उत्तर है इन बातों का ? असल में सरकारी नौकरियों की दुनिया ही अलग है जहाँ कर्मठता और अकर्मण्यता में कोई उल्लेखनीय भेद नहीं है। न जाने क्यों सार्वजनिक क्षेत्र में कर्मचारियों के निष्क्रिय और अकर्मण्य होने पर भी किसी प्रकार के गम्भीर दण्ड का प्रावधान नहीं है। इसी कारण सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र से पिछड़ते जाते हैं। | ||
Latest revision as of 10:49, 2 January 2018
50px|right|link=|
20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश चौकोर फ़ुटबॉल -आदित्य चौधरी पुराने ज़माने की बात है, एक गाँव से होकर एक व्यापारी सेठ की माल असबाब से लदी बैलगाड़ी गुज़र रही थी। रास्ते में बरसात के कारण गहरा गड्ढ़ा था जिसमें गाड़ी फंस गई। चार-चार आदमियों की काफ़ी कोशिश के बाद भी गाड़ी निकाली न जा सकी। पास ही एक दुकान के पट्टे पर छोटे पहलवान भी बैठा था और यह सब देख रहा था। दुकानदार ने सेठ जी से कहा-
छोटे पहलवान की तो मौज आ गई। अच्छा खाना-पीना मिलने लगा तो पहलवान की सेहत और अच्छी हो गई। सेठ भी बेखटके अपनी व्यापारिक यात्राएँ करने लगा। एक दिन शाम के झुटपुटे में सेठ की गाड़ी को कुछ लुटेरों ने घेर लिया और गाड़ी को लूट लिया। सेठ ने देखा कि इस पूरे हादसे में पहलवान कुछ नहीं बोला और एक तरफ़ जा कर बैठ गया। जब सेठ का सारा माल लूटकर और सेठ जी की अच्छी पिटाई करने के बाद वहाँ से चलने लगे तो सेठ ने लुटेरों को रोका और कहा-
जब एक बुद्धिमान और होनहार व्यक्ति किसी प्रतिष्ठान में नौकरी करता है तो उसका काम करने का तरीक़ा सामान्य व्यक्तियों से अलग होता है। वह जानता है कि यदि उसे विकास करना है तो कम्पनी की प्रगति भी ज़रूरी है और वह बिना भावुकता के सोची समझी रणनीति के साथ अपने काम को ज़िम्मेदारी से करता है। सीधी सी बात है अगर हमें महत्त्वपूर्ण बनना है तो हमें उस प्रतिष्ठान की अनिवार्य ज़रूरत के रूप में खुद को साबित करना होगा। यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई भी प्रतिष्ठान किसी कर्मचारी को भावुकता के धरातल पर नहीं रखता इसलिए कर्मचारियों का भी प्रतिष्ठान के प्रति भावुक प्रेम निरर्थक ही है। |
पिछले सम्पादकीय