ब्रज शब्द की परिभाषा
वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रूप में वर्णित है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। हरिवंशपुराण तथा भागवतपुराण आदि में यह शब्द गोप बस्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्कंदपुराण में महर्षि शाण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है। अत: यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है।
परिभाषा
श्री शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी कोश में 'व्रज' (ब्रज) शब्द की परिभाषा- प्रस्तुति [1]
व्रज्- (भ्वादिगण परस्मैपद व्रजति) | व्रजः-(व्रज्+क) |
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व्रजनम् (व्रज+ल्युट्) | व्रज्या (व्रज्+क्यप्+टाप्) |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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