मौनिया नृत्य

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मौनिया नृत्य बुंदेलखण्ड में अहीर जाति द्वारा किया जाता है। विशेष रूप से यह नृत्य हिन्दुओं के प्रसिद्ध पर्व 'दीपावली' के दूसरे दिन किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष अपनी पारंपरिक लिवास पहनकर मोर के पंखों को लेकर एक घेरा बनाकर करते हैं।

प्राचीन नृत्य

बुंदेलखण्ड अपने आप में बहुत से लोक नृत्य और लोक संगीतों को सजोय हुए है, जिनका अपना-अपना महत्व है। इन्हीं लोक नृत्यों में से एक है- 'मौनिया नृत्य'। यह नृत्य ख़ासतौर पर बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों में 'दीपावली' के दूसरे दिन पुरुषों द्वारा किया जाता है। बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन नृत्य मौनिया, जिसे 'सेहरा' और 'दीपावली नृत्य' भी कहते हैं, बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में किशोरों द्वारा घेरा बनाकर, मोर के पंखों को लेकर, बड़े ही मोहक अंदाज़में किया जाता है।[1]

नामकरण

बुंदेलखण्ड के ग्रामीण अंचलों के लोगों के मौन होकर 'मौन परिमा' के दिन इस नृत्य को करने से इस नृत्य का नाम 'मौनिया नृत्य' रखा गया। साथ ही मौन रखकर व्रत करने वालों को 'मौनी बाबा' भी कहा जाता है। 'मौन परमा' के दिन के साथ-साथ इस नृत्य को बुंदेलखण्ड में 'दीपावली' के समय करने की परंपरा है।

मान्यता

प्राचीन मान्यता के अनुसार जब श्रीकृष्ण यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे, तब उनकी सारी गायें कहीं चली गयीं। प्राणों से भी अधिक प्रिय अपनी गायों को प्यार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण दु:खी होकर मौन हो गए, जिसके बाद भगवान कृष्ण के सभी ग्वाल दोस्त परेशान होने लगे। जब ग्वालों ने सभी गायों को तलाश लिया और उन्हें लेकर लाये, तब कहीं जाकर कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा। तभी से परम्परा के अनुसार श्रीकृष्ण के भक्त गाँव-गाँव से मौन व्रत रख कर दीपावली के एक दिन बाद 'मौन परमा' के दिन इस नृत्य को करते हुए 12 गाँवों की परिक्रमा लगाते हैं और मंदिर-मंदिर जाकर भगवान श्रीकृष्णा के दर्शन करते है।[1]

व्रत

पुरुष अपनी पारंपरिक लिवास पहनकर मोर के पंखों को लेकर एक घेरा बनाकर मौनिया नृत्य करते हैं। इन किशोरों को 'मौनी बाबा' भी कहा जाता है। मौनी नृत्य करने वाले मौनी बाबा इस व्रत को मौन रखकर हर दीपावली के एक दिन बाद 'मौन परिमा' के दिन लगातार 12 वर्षों तक करते हैं, जिसके बाद ये व्रत को पूरा मानते हैं और अपने व्रत के पूर्ण होने पर मथुरा और श्रीकृष्ण की नगरी वृन्दावन जाकर गोवर्धन की परिक्रमा लगा कर अपना ध्वज चढ़ाते हैं।


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