Difference between revisions of "देवनागरी लिपि"

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उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’  (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’ के आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता । एक अन्य मत के अनुसार, [[गुजरात]] के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु [[काशी]] देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर  राजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़, [[महाराष्ट्र]]) की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में [[पंजाब]] और [[कश्मीर]] में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की  बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं । आज समस्त उत्तर भारत में ([[नेपाल]] में भी) और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।
 
उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’  (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’ के आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता । एक अन्य मत के अनुसार, [[गुजरात]] के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु [[काशी]] देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर  राजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़, [[महाराष्ट्र]]) की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में [[पंजाब]] और [[कश्मीर]] में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की  बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं । आज समस्त उत्तर भारत में ([[नेपाल]] में भी) और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।
 
==लिपि के कुछ प्रमुख लेख==
 
==लिपि के कुछ प्रमुख लेख==
[[चित्र:Devnagari-Lipi-2.jpg|thumb|प्रतिहारवंशी राजा महेन्द्रपाल के दानपत्र की तीन पंक्तियाँ (शिवराममूर्ति के आधार पर)]]
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[[चित्र:Devnagari-Lipi-2.jpg|thumb|300px|प्रतिहारवंशी राजा महेन्द्रपाल के दानपत्र की तीन पंक्तियाँ (शिवराममूर्ति के आधार पर)]]
 
शिवराममूर्ति की राय है कि [[हर्षवर्धन]] के समकालीन गौड़देश ([[पश्चिम बंगाल]]) के राजा शशांक के ताम्रपत्रों में पूर्वी भारत की नागरी लिपि का स्वरूप पहले-पहल देखने को मिलता है। परंतु इन ताम्रपत्रों की लिपि को हम अभी नागरी नहीं कह सकते। अधिक से अधिक इसे हम ‘प्राक-नागरी’ का नाम दे सकते है, क्योंकि इस लिपि के अक्षर न्यूनकोणीय (तिरछे) और ठोस त्रिकोणी सिरोंवाले हैं।  
 
शिवराममूर्ति की राय है कि [[हर्षवर्धन]] के समकालीन गौड़देश ([[पश्चिम बंगाल]]) के राजा शशांक के ताम्रपत्रों में पूर्वी भारत की नागरी लिपि का स्वरूप पहले-पहल देखने को मिलता है। परंतु इन ताम्रपत्रों की लिपि को हम अभी नागरी नहीं कह सकते। अधिक से अधिक इसे हम ‘प्राक-नागरी’ का नाम दे सकते है, क्योंकि इस लिपि के अक्षर न्यूनकोणीय (तिरछे) और ठोस त्रिकोणी सिरोंवाले हैं।  
 
उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग पहले-पहल कन्नौज के प्रतिहारवंशीय [[राजा महेन्द्रपाल]] (891-907 ई.) के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इनमें ‘आ’ की मात्रा पहले की तरह अक्षर की दाईं ओर आड़ी न होकर, खड़ी और पूरी लंबी हो गई है। ‘क’ का नीचे का मुड़ा हुआ वक्र उसके दंड के साथ मिल जाता है। इस लिपि में अक्षरों के नीचे के सिरे सरल है और सिरों पर, पहले की तरह ठोस त्रिकोण न होकर, अब आड़ी लकीरें हैं।  
 
उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग पहले-पहल कन्नौज के प्रतिहारवंशीय [[राजा महेन्द्रपाल]] (891-907 ई.) के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इनमें ‘आ’ की मात्रा पहले की तरह अक्षर की दाईं ओर आड़ी न होकर, खड़ी और पूरी लंबी हो गई है। ‘क’ का नीचे का मुड़ा हुआ वक्र उसके दंड के साथ मिल जाता है। इस लिपि में अक्षरों के नीचे के सिरे सरल है और सिरों पर, पहले की तरह ठोस त्रिकोण न होकर, अब आड़ी लकीरें हैं।  
 
इसके बाद तो उत्तर भारत से नागरी लिपि के ढेरों लेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशी, चाहमान (चौहान) वंशी, राष्ट्रकूट, चौलुक्य (सोलंकी), परमार, चंदेलवंशी, हैहय (कलचुरि) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं।  
 
इसके बाद तो उत्तर भारत से नागरी लिपि के ढेरों लेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशी, चाहमान (चौहान) वंशी, राष्ट्रकूट, चौलुक्य (सोलंकी), परमार, चंदेलवंशी, हैहय (कलचुरि) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं।  
 
दक्षिण के पल्लव शासकों ने भी अपने लेखों के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया था। इसी लिपि से आगे चलकर ‘ग्रंथ लिपि’ का विकास हुआ। तमिल लिपि की अपूर्णता के कारण उसमें [[संस्कृत]] के ग्रन्थ लिखे नहीं जा सकते थे, इसलिए संस्कृत के ग्रंथ जिस नागरी लिपि में लिखे जाने लगे, उसी का बाद में ‘ग्रन्थ लिपि’ नाम पड़ गया। [[कांचीपुरम]] के कैलाशनाथ मंदिर में नागरी लिपि में लिखे हुए बहुत से विरुद मिलते हैं। इनमें सरल और कलात्मक दोनों ही प्रकार की लिपियों का प्रयोग देखने को मिलता है। यह लिपि हर्षवर्धन की लिपि से काफ़ी मिलती-जुलती दिखाई देती है।  
 
दक्षिण के पल्लव शासकों ने भी अपने लेखों के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया था। इसी लिपि से आगे चलकर ‘ग्रंथ लिपि’ का विकास हुआ। तमिल लिपि की अपूर्णता के कारण उसमें [[संस्कृत]] के ग्रन्थ लिखे नहीं जा सकते थे, इसलिए संस्कृत के ग्रंथ जिस नागरी लिपि में लिखे जाने लगे, उसी का बाद में ‘ग्रन्थ लिपि’ नाम पड़ गया। [[कांचीपुरम]] के कैलाशनाथ मंदिर में नागरी लिपि में लिखे हुए बहुत से विरुद मिलते हैं। इनमें सरल और कलात्मक दोनों ही प्रकार की लिपियों का प्रयोग देखने को मिलता है। यह लिपि हर्षवर्धन की लिपि से काफ़ी मिलती-जुलती दिखाई देती है।  
[[चित्र:Devnagari-Lipi-3.jpg|thumb|धार नगरी के परमार शासक भोज के बेतमा ताम्रपत्र (1020 ई.) का एक अंश]]
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[[चित्र:Devnagari-Lipi-3.jpg|thumb|300px|left|धार नगरी के परमार शासक भोज के बेतमा ताम्रपत्र (1020 ई.) का एक अंश]]
 
सुदूर दक्षिण में भी पाड़य शासकों ने 8वीं शताब्दी में नागरी का इस्तेमाल किया था। महाबलिपुरम के अतिरणचंड़ेश्वर नामक गुफामंदिर में जो लेख मिलता है, वह भी नागरी में है। सबसे नीचे दक्षिण में नागरी का जो लेख मिलता है, वह है पाड़य-राजा वरगुण (9वीं शताब्दी) का पलियम दानपत्र्। इस दानपत्र की लिपि में और अतिरणचंड़ेश्वर के गुफालेख की लिपि में काफ़ी साम्य है। दक्षिण के उत्तम, राजराज और राजेन्द्र जैसे चोल राजाओं ने अपने सिक्कों के लेखों के लिए नागरी का इस्तेमाल किया है। [[श्रीलंका]] के पराक्रमबाहु, विजयबाहु जैसे राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी का उपयोग हुआ है। 13वीं शताब्दी के [[केरल]] के शासकों के सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य’ जैसे शब्द नागरी में अंकित मिलते हैं। विजयनगर शासनकाल से तो नागरी (नंदिनागरी) का बहुतायत से उपयोग देखने को मिलता है। इस काल के अधिकांश ताम्रपत्रों पर नागरी लिपि में ही लेख अंकित हैं, हस्ताक्षर ही प्राय: तेलुगु-कन्नड़ लिपि में है। सिक्कों पर भी नागरी का प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिणी शैली की नागरी लिपि (नंदिनागरी लिपि) का प्राचीनतम नमूना हमें राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के समंगड दानपत्रों में , जो 754 ई. के हैं, दिखाई देता है। बाद में बादामी के चालुक्यों के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट शासकों ने तो इस नागरी लिपि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम के नागरी लिपि में लिखे हुए तलेगाँव-दानपत्र प्रसिद्ध हैं। देवगिरि के यादववंशी राजाओं  ने भी नागरी लिपि का ही उपयोग किया था।  
 
सुदूर दक्षिण में भी पाड़य शासकों ने 8वीं शताब्दी में नागरी का इस्तेमाल किया था। महाबलिपुरम के अतिरणचंड़ेश्वर नामक गुफामंदिर में जो लेख मिलता है, वह भी नागरी में है। सबसे नीचे दक्षिण में नागरी का जो लेख मिलता है, वह है पाड़य-राजा वरगुण (9वीं शताब्दी) का पलियम दानपत्र्। इस दानपत्र की लिपि में और अतिरणचंड़ेश्वर के गुफालेख की लिपि में काफ़ी साम्य है। दक्षिण के उत्तम, राजराज और राजेन्द्र जैसे चोल राजाओं ने अपने सिक्कों के लेखों के लिए नागरी का इस्तेमाल किया है। [[श्रीलंका]] के पराक्रमबाहु, विजयबाहु जैसे राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी का उपयोग हुआ है। 13वीं शताब्दी के [[केरल]] के शासकों के सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य’ जैसे शब्द नागरी में अंकित मिलते हैं। विजयनगर शासनकाल से तो नागरी (नंदिनागरी) का बहुतायत से उपयोग देखने को मिलता है। इस काल के अधिकांश ताम्रपत्रों पर नागरी लिपि में ही लेख अंकित हैं, हस्ताक्षर ही प्राय: तेलुगु-कन्नड़ लिपि में है। सिक्कों पर भी नागरी का प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिणी शैली की नागरी लिपि (नंदिनागरी लिपि) का प्राचीनतम नमूना हमें राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के समंगड दानपत्रों में , जो 754 ई. के हैं, दिखाई देता है। बाद में बादामी के चालुक्यों के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट शासकों ने तो इस नागरी लिपि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम के नागरी लिपि में लिखे हुए तलेगाँव-दानपत्र प्रसिद्ध हैं। देवगिरि के यादववंशी राजाओं  ने भी नागरी लिपि का ही उपयोग किया था।  
 
धार नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। बांसवाड़ा तथा वेतमा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र (1020 ई.) उसकी ‘कोंकणविजय’ के उपलक्ष्य में जारी किए गये थे। ये आरंभिक नागरी लिपि में है।   
 
धार नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। बांसवाड़ा तथा वेतमा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र (1020 ई.) उसकी ‘कोंकणविजय’ के उपलक्ष्य में जारी किए गये थे। ये आरंभिक नागरी लिपि में है।   

Revision as of 13:29, 25 September 2010

[[chitr:Devnagari-Lipi.jpg|thumb|300px|devanagari lipi, brahmi se devanagari ka vikasanukram]]

  • ise nagari lipi bhi kaha jata hai. bharatiy lipi hai, jisaka upayog sanskrit, prakrit, hiandi bhasha aur marathi bhashaoan mean hota hai.
  • isaka vikas uttar bharatiy aitihasik gupt lipi se hua, halaanki aantat: isaki vyutpatti brahmi varnaksharoan se huee, jisase sabhi adhunik bharatiy lipiyoan ka janm hua hai. satavian shatabdi se isaka upayog ho raha hai, lekin isake paripakv svaroop ka vikas 11vian shatabdi mean hua.
  • devanagari ki visheshata aksharoan ke shirsh par lanbi kshaitij rekha hai, jo adhunik upayog mean samany taur par ju di huee hoti hai, jisase lekhan ke dauran shabd ke oopar atoot kshaitik rekha ka nirman hota hai.
  • devanagari ko baean se dahini or likha jata hai. isamean 48 aksharoan, 34 vyanjanoan aur 14 svar tatha sanyuktakshar ka upayog hota hai. halaanki yah lipi moolat: varnakshariy hai, lekin upayog mean yah aksharik hai, jisamean pratyek vyanjan ke aant mean ek laghu dhvani ko man liya jata hai, basharte isase pahale vaikalpik svar ke chihn ka upayog n kiya gaya ho.
  • devanagari ko svar chihnoan ke bina bhi likha jata raha hai.

itihas

uttar bharat mean nagari lipi ke lekh 8vian – 9vian shatabdi se milane lag jate haian. dakshin bharat mean isake lekh kuchh pahale se milate haian. vahaan yah ‘nandinagari’ kahalati thi. ‘nagari’ nam ki vyutpati evan arth ke bare mean puravid ekamat nahian haian. ‘lalit-vistar’ ki 64 lipiyoan mean ek ‘nag lipi’ nam milata hai. kintu ‘lalit-vistar’ (doosari shatabdi ee.) ki ‘nag-lipi’ ke adhar par nagari lipi ka namakaran sanbhav nahian jan p data . ek any mat ke anusar, gujarat ke nagar brahmanoan dvara sarvapratham upayog kiye jane ke karan isaka nam nagari p da. yah mat bhi sadhar nahian pratit hota. kuchh logoan ne to yahaan tak kaha ki, baki nagar to keval nagar hi haian kiantu kashi devanagari hai, aur vahaan isaka prachar hone ke karan is lipi ka nam ‘devanagari’ p da. is mat ko svikar karane mean a dachanean haian. ek any mat ke anusar, nagaroan mean prachalit hone ke karan yah nagari kahalaee. is mat ko kuchh had tak svikar kiya ja sakata hai. dakshin ke vijayanagar rajaoan ke danapatroan ki lipi ko nandinagari ka nam diya gaya hai. yah bhi sanbhav hai ki nandinagar (adhunik naande d, maharashtr) ki lipi hone ke karan isake lie nagari ka nam astitv mean aya. pahale-pahal vijayanagar rajy ke lekhoan mean nagari lipi ka vyavahar dekhane ko milata hai. bad mean jab uttar bharat mean bhi isaka prachar hua, to ‘nandi’ ki tarah yahaan ‘dev’ shabd isake pahale jo d diya gaya hoga. jo bhi ho, ab to yah nagari ya devanagari shabd uttar bharat mean 8vian se aj tak likhe gaye pray: sabhi lekhoan ki lipi-shailiyoan ke lie prayukt hota hai. dasavian shatabdi mean panjab aur kashmir mean prayukt sharada lipi nagari ki bahan thi, aur baangla lipi ko ham nagari ki putri nahian to bahan man sakate haian . aj samast uttar bharat mean (nepal mean bhi) aur sanpoorn maharashtr mean devanagari lipi ka istemal hota hai.

lipi ke kuchh pramukh lekh

thumb|300px|pratiharavanshi raja mahendrapal ke danapatr ki tin panktiyaan (shivaramamoorti ke adhar par) shivaramamoorti ki ray hai ki harshavardhan ke samakalin gau dadesh (pashchim bangal) ke raja shashaank ke tamrapatroan mean poorvi bharat ki nagari lipi ka svaroop pahale-pahal dekhane ko milata hai. parantu in tamrapatroan ki lipi ko ham abhi nagari nahian kah sakate. adhik se adhik ise ham ‘prak-nagari’ ka nam de sakate hai, kyoanki is lipi ke akshar nyoonakoniy (tirachhe) aur thos trikoni siroanvale haian. uttar bharat mean nagari lipi ka prayog pahale-pahal kannauj ke pratiharavanshiy raja mahendrapal (891-907 ee.) ke danapatroan mean dekhane ko milata hai. inamean ‘a’ ki matra pahale ki tarah akshar ki daeean or a di n hokar, kh di aur poori lanbi ho gee hai. ‘k’ ka niche ka mu da hua vakr usake dand ke sath mil jata hai. is lipi mean aksharoan ke niche ke sire saral hai aur siroan par, pahale ki tarah thos trikon n hokar, ab a di lakirean haian. isake bad to uttar bharat se nagari lipi ke dheroan lekh milate haian. inamean guhilavanshi, chahaman (chauhan) vanshi, rashtrakoot, chauluky (solanki), paramar, chandelavanshi, haihay (kalachuri) adi rajaoan ke nagari lipi mean likhe hue danapatr tatha shilalekh prasiddh haian. dakshin ke pallav shasakoan ne bhi apane lekhoan ke lie nagari lipi ka prayog kiya tha. isi lipi se age chalakar ‘granth lipi’ ka vikas hua. tamil lipi ki apoornata ke karan usamean sanskrit ke granth likhe nahian ja sakate the, isalie sanskrit ke granth jis nagari lipi mean likhe jane lage, usi ka bad mean ‘granth lipi’ nam p d gaya. kaanchipuram ke kailashanath mandir mean nagari lipi mean likhe hue bahut se virud milate haian. inamean saral aur kalatmak donoan hi prakar ki lipiyoan ka prayog dekhane ko milata hai. yah lipi harshavardhan ki lipi se kafi milati-julati dikhaee deti hai. thumb|300px|left|dhar nagari ke paramar shasak bhoj ke betama tamrapatr (1020 ee.) ka ek aansh sudoor dakshin mean bhi pa day shasakoan ne 8vian shatabdi mean nagari ka istemal kiya tha. mahabalipuram ke atiranachan deshvar namak guphamandir mean jo lekh milata hai, vah bhi nagari mean hai. sabase niche dakshin mean nagari ka jo lekh milata hai, vah hai pa day-raja varagun (9vian shatabdi) ka paliyam danapatrh. is danapatr ki lipi mean aur atiranachan deshvar ke guphalekh ki lipi mean kafi samy hai. dakshin ke uttam, rajaraj aur rajendr jaise chol rajaoan ne apane sikkoan ke lekhoan ke lie nagari ka istemal kiya hai. shrilanka ke parakramabahu, vijayabahu jaise rajaoan ke sikkoan par bhi nagari ka upayog hua hai. 13vian shatabdi ke keral ke shasakoan ke sikkoan par ‘virakeralasy’ jaise shabd nagari mean aankit milate haian. vijayanagar shasanakal se to nagari (nandinagari) ka bahutayat se upayog dekhane ko milata hai. is kal ke adhikaansh tamrapatroan par nagari lipi mean hi lekh aankit haian, hastakshar hi pray: telugu-kann d lipi mean hai. sikkoan par bhi nagari ka prayog dekhane ko milata hai. dakshini shaili ki nagari lipi (nandinagari lipi) ka prachinatam namoona hamean rashtrakoot raja dantidurg ke samangad danapatroan mean , jo 754 ee. ke haian, dikhaee deta hai. bad mean badami ke chalukyoan ke uttaradhikari rashtrakoot shasakoan ne to is nagari lipi ka b de paimane par istemal kiya. rashtrakoot raja krishnaraj pratham ke nagari lipi mean likhe hue talegaanv-danapatr prasiddh haian. devagiri ke yadavavanshi rajaoan ne bhi nagari lipi ka hi upayog kiya tha. dhar nagari ka paramar shasak bhoj apane vidyanurag ke lie itihas mean prasiddh hai. baansava da tatha vetama se prapt usake tamrapatr (1020 ee.) usaki ‘koankanavijay’ ke upalakshy mean jari kie gaye the. ye aranbhik nagari lipi mean hai.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

sanbandhit lekh