चिंतन के आयाम -रामधारी सिंह दिनकर: Difference between revisions
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पुस्तक 'चिंतन के आयाम' में दिनकर जी बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली में बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं तथा सांस्कृतिक दासता का भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी [[भाषा]] को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है। फल यह होता है कि वह जाति अपना व्यक्तित्व खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का विनाश हो जाता है। पुस्तक [[प्राचीन भारत]] के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है। | पुस्तक 'चिंतन के आयाम' में दिनकर जी बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली में बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं तथा सांस्कृतिक दासता का भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी [[भाषा]] को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है। फल यह होता है कि वह जाति अपना व्यक्तित्व खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का विनाश हो जाता है। पुस्तक [[प्राचीन भारत]] के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है। | ||
==आदर्श मानव राम== | ==आदर्श मानव राम== | ||
आदर्श मानव कौन है, इसका समाधान उतना ही कठिन है, जितना इस प्रश्न का कि आदर्श कर्म क्या है। अथवा आदर्श आचरण किसे कहते हैं? एक परिस्थिति में जो आचरण अधर्म माना जाता है, दूसरी परिस्थिति में वहीं [[धर्म]] का रूप ले लेता है। एक काल में जो कर्म गर्हित समझा जाता है, दूसरे काल में वही कर्म पवित्र बन जाता है, एवं एक समाज में जो क्रिया अच्छी समझी जाती है, दूसरे समाज में वही निन्दनीय बन जाती है। इसलिए [[महाभारत]] ने बार-बार दुहराया है, ‘सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य’ अर्थात् धर्म या व्यावहारिक नीति-धर्म की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है; एवं '[[गीता]]' का कथन कि "किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः" कर्म और अकर्म क्या है, इसके निश्चयन में द्रष्टाओं को भी मोह होता है। यदि रामकथा के इतिहास को देखें तो पता चलेगा कि इस | आदर्श मानव कौन है, इसका समाधान उतना ही कठिन है, जितना इस प्रश्न का कि आदर्श कर्म क्या है। अथवा आदर्श आचरण किसे कहते हैं? एक परिस्थिति में जो आचरण अधर्म माना जाता है, दूसरी परिस्थिति में वहीं [[धर्म]] का रूप ले लेता है। एक काल में जो कर्म गर्हित समझा जाता है, दूसरे काल में वही कर्म पवित्र बन जाता है, एवं एक समाज में जो क्रिया अच्छी समझी जाती है, दूसरे समाज में वही निन्दनीय बन जाती है। इसलिए [[महाभारत]] ने बार-बार दुहराया है, ‘सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य’ अर्थात् धर्म या व्यावहारिक नीति-धर्म की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है; एवं '[[गीता]]' का कथन कि "किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः" कर्म और अकर्म क्या है, इसके निश्चयन में द्रष्टाओं को भी मोह होता है। यदि रामकथा के इतिहास को देखें तो पता चलेगा कि इस महान् चरित्र-विषयक अनुभूति भी बराबर बदलती रही है।<ref name="aa"/> | ||
[[भवभूति]] के [[राम]] ठीक वे नहीं हैं, जो [[वाल्मीकि]] के राम हैं और [[तुलसीदास]] के राम वाल्मीकि तथा भवभूति, दोनों के रामों से भिन्न हैं। इसी प्रकार, ‘[[साकेत (महाकाव्य)|साकेत]]’ के राम पहले के सभी रामों से भिन्न हो गये हैं। वाल्मीकि के राम जब [[शूद्र]] तपस्वी [[शंबूक]] का वध करते हैं, तब उनके [[हृदय]] में करुणा नहीं उपजती, न इस कृत्य से किसी और को ही क्लेश होता है। उलटे, [[देवता]] राम पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं और सारा वातावरण इस भाव से भर जाता है कि शंबूक का वध करके राम ने एक अनिवार्य धर्म का पालन किया है। किन्तु वाल्मीकि से भवभूति की दूरी बहुत अधिक है। इस लम्बी अवधि के बीच, [[जैन]] और [[बौद्ध]] प्रचारकों ने जनता के मन में यह भाव जगा दिया था कि हो-न-हो, सभी मनुष्य जन्मना समान हैं और तपस्या यदि सुकर्म है तो वह शूद्रों के लिए वर्जित नहीं समझी जानी चाहिए। परिणाम इसका यह हुआ कि भवभूति जब 'उत्तर रामचरित' में शंबूक-वध का दृश्य दिखलाने लगे, तक उनका हृदय कराह उठा। किन्तु इस करुणा को उन्होंने स्वयं न कहकर राम के ही मुख में डाल दिया। भवभूति के राम जब शम्बूक का वध करना चाहते हैं, तब शंबूक पर उनका हाथ नहीं उठता और वे स्वयं अपनी भुजा को ललकारकर कह उठते हैं- | [[भवभूति]] के [[राम]] ठीक वे नहीं हैं, जो [[वाल्मीकि]] के राम हैं और [[तुलसीदास]] के राम वाल्मीकि तथा भवभूति, दोनों के रामों से भिन्न हैं। इसी प्रकार, ‘[[साकेत (महाकाव्य)|साकेत]]’ के राम पहले के सभी रामों से भिन्न हो गये हैं। वाल्मीकि के राम जब [[शूद्र]] तपस्वी [[शंबूक]] का वध करते हैं, तब उनके [[हृदय]] में करुणा नहीं उपजती, न इस कृत्य से किसी और को ही क्लेश होता है। उलटे, [[देवता]] राम पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं और सारा वातावरण इस भाव से भर जाता है कि शंबूक का वध करके राम ने एक अनिवार्य धर्म का पालन किया है। किन्तु वाल्मीकि से भवभूति की दूरी बहुत अधिक है। इस लम्बी अवधि के बीच, [[जैन]] और [[बौद्ध]] प्रचारकों ने जनता के मन में यह भाव जगा दिया था कि हो-न-हो, सभी मनुष्य जन्मना समान हैं और तपस्या यदि सुकर्म है तो वह शूद्रों के लिए वर्जित नहीं समझी जानी चाहिए। परिणाम इसका यह हुआ कि भवभूति जब 'उत्तर रामचरित' में शंबूक-वध का दृश्य दिखलाने लगे, तक उनका हृदय कराह उठा। किन्तु इस करुणा को उन्होंने स्वयं न कहकर राम के ही मुख में डाल दिया। भवभूति के राम जब शम्बूक का वध करना चाहते हैं, तब शंबूक पर उनका हाथ नहीं उठता और वे स्वयं अपनी भुजा को ललकारकर कह उठते हैं- | ||
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अर्थात् "हे मेरे दाहिने हाथ! तू शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चला, जिससे [[ब्राह्मण]] का मृत पुत्र जी उठे। तू तो उस राम का गात्र है, जिसने भ़ारी गर्भभार से श्रमित [[सीता]] को निर्वासित कर दिया है। मुझमें करुणा कहाँ से आ गई (कि शूद्र मुनि पर तलवार चलाने में हिचकिचा रहा है)?"<ref name="aa"/> | |||
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Latest revision as of 07:49, 7 November 2017
चिंतन के आयाम -रामधारी सिंह दिनकर
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कवि | रामधारी सिंह दिनकर | |
मूल शीर्षक | 'चिंतन के आयाम' | |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन | |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2008 | |
ISBN | 978-81-8031-327 | |
देश | भारत | |
पृष्ठ: | 203 | |
भाषा | हिंदी | |
विधा | लेख-निबन्ध | |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द | |
टिप्पणी | 'चिंतन के आयाम' प्राचीन भारत के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है। |
चिंतन के आयाम हिन्दी के प्रख्यात लेखक और कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की महत्त्वपूर्ण कृतियों में से एक है। यह संस्कृति, भाषा और दिनकर जी के सारगर्भित भाषणों, आलेखों और निबन्धों का कालातीत और हमेशा प्रासंगित रहने वाला संकलन है। रामधारी सिंह 'दिनकर' पुस्तक 'चिंतन के आयाम' प्राचीन भारत के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है।
सारांश
‘संस्कृत के चार अध्याय’ के लेखक के रूप में साहित्य-जगत् को कवि दिनकर जी की विराट प्रतिभा के दर्शन हुए थे। वे कवि तो थे ही, इसके साथ-साथ विद्वान, चिन्तक और अनुसंधानकर्त्ता भी थे। इस पुस्तक में रामधारी सिंह 'दिनकर' की गम्भीर-चिन्तन दृष्टि की झाँकी मिलती है। दिनकर जी के निबन्ध, लेख और भाषण प्रमाणित करते हैं कि हिन्दू धर्म और हिन्दू-संस्कृति के निर्माण में केवल आर्यों और द्रविड़ों का ही नहीं बल्कि उनसे पूर्व के आदिवासियों का भी काफ़ी योगदान है। यही नहीं, हिन्दुत्व, बौद्ध मत और जैन मत के पारस्परिक मतभेद भी बुनियादी नहीं हैं।[1]
लेखक कथन
पुस्तक 'चिंतन के आयाम' में दिनकर जी बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली में बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं तथा सांस्कृतिक दासता का भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है। फल यह होता है कि वह जाति अपना व्यक्तित्व खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का विनाश हो जाता है। पुस्तक प्राचीन भारत के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है।
आदर्श मानव राम
आदर्श मानव कौन है, इसका समाधान उतना ही कठिन है, जितना इस प्रश्न का कि आदर्श कर्म क्या है। अथवा आदर्श आचरण किसे कहते हैं? एक परिस्थिति में जो आचरण अधर्म माना जाता है, दूसरी परिस्थिति में वहीं धर्म का रूप ले लेता है। एक काल में जो कर्म गर्हित समझा जाता है, दूसरे काल में वही कर्म पवित्र बन जाता है, एवं एक समाज में जो क्रिया अच्छी समझी जाती है, दूसरे समाज में वही निन्दनीय बन जाती है। इसलिए महाभारत ने बार-बार दुहराया है, ‘सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य’ अर्थात् धर्म या व्यावहारिक नीति-धर्म की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है; एवं 'गीता' का कथन कि "किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः" कर्म और अकर्म क्या है, इसके निश्चयन में द्रष्टाओं को भी मोह होता है। यदि रामकथा के इतिहास को देखें तो पता चलेगा कि इस महान् चरित्र-विषयक अनुभूति भी बराबर बदलती रही है।[1]
भवभूति के राम ठीक वे नहीं हैं, जो वाल्मीकि के राम हैं और तुलसीदास के राम वाल्मीकि तथा भवभूति, दोनों के रामों से भिन्न हैं। इसी प्रकार, ‘साकेत’ के राम पहले के सभी रामों से भिन्न हो गये हैं। वाल्मीकि के राम जब शूद्र तपस्वी शंबूक का वध करते हैं, तब उनके हृदय में करुणा नहीं उपजती, न इस कृत्य से किसी और को ही क्लेश होता है। उलटे, देवता राम पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं और सारा वातावरण इस भाव से भर जाता है कि शंबूक का वध करके राम ने एक अनिवार्य धर्म का पालन किया है। किन्तु वाल्मीकि से भवभूति की दूरी बहुत अधिक है। इस लम्बी अवधि के बीच, जैन और बौद्ध प्रचारकों ने जनता के मन में यह भाव जगा दिया था कि हो-न-हो, सभी मनुष्य जन्मना समान हैं और तपस्या यदि सुकर्म है तो वह शूद्रों के लिए वर्जित नहीं समझी जानी चाहिए। परिणाम इसका यह हुआ कि भवभूति जब 'उत्तर रामचरित' में शंबूक-वध का दृश्य दिखलाने लगे, तक उनका हृदय कराह उठा। किन्तु इस करुणा को उन्होंने स्वयं न कहकर राम के ही मुख में डाल दिया। भवभूति के राम जब शम्बूक का वध करना चाहते हैं, तब शंबूक पर उनका हाथ नहीं उठता और वे स्वयं अपनी भुजा को ललकारकर कह उठते हैं-
हे हस्त दक्षिण ! मृतस्य शिशोर्द्विजस्य
जीवातवे विसृज शूद्रमुनौ कृपाणम्,
रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्न-
सीताविवासनपटोः करुणा कुतस्ते?
अर्थात् "हे मेरे दाहिने हाथ! तू शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चला, जिससे ब्राह्मण का मृत पुत्र जी उठे। तू तो उस राम का गात्र है, जिसने भ़ारी गर्भभार से श्रमित सीता को निर्वासित कर दिया है। मुझमें करुणा कहाँ से आ गई (कि शूद्र मुनि पर तलवार चलाने में हिचकिचा रहा है)?"[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 चिंतन के आयाम (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 11 अक्टूबर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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