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प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय 500 ई.पू. से 1000 ई. सन् तक माना जाता है। धार्मिक कारणों से जब संस्कृत का महत्त्व कम होने लगा तो प्राकृत भाषा अधिक व्यवहार में आने लगी। इसके चार रूप विशेषत: उल्लेखनीय हैं।

अर्धमागधी प्राकृत

इसमें जैन और बौद्ध साहित्य अधिक है। इसका मुख्य क्षेत्र मगध था। इस सम्बंध में प्रोफेसर महावीर सरन जैन की मान्यता भिन्न है। प्रोफेसर जैन ने मागधी प्राकृत एवं अर्ध-मागधी में अन्तर किया है। उनके मतानुसार मागधी मगध की भाषा थी। इसका प्रयोग नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्रों के सम्भाषणों के लिए किया गया है। महाराष्ट्री और शौरसेनी की तुलना में मागधी का प्रयोग बहुत कम हुआ है। मागधी में ‘-र्’ का अभाव है। ‘र्’ का ‘ल्’ हो जाता है। पुरुषः > पुलिशे / समर > शमल। मागधी में ‘स्’, ‘ष्’ के स्थान पर ‘श्’ का प्रयोग होता है। उदाहरण - सप्त > शत्त। मागधी में ‘ज्’ के स्थान पर ‘य्’ का प्रयोग होता है। जानाति > याणादि / जानपदे > यणपदे। मागधी में द्य् , र्ज् , र्य् के स्थान पर ‘य्य्’ का प्रयोग होता है। अद्य > अय्य/ अर्जुन > अय्युण / आर्य > अय्य / कार्य > कय्य तथा कर्ता कारक एकवचन में प्रायः ‘ अः ’ के बदले ‘ ए ’ पाया जाता है। सः > शे।

अर्द्धमागधी

अर्द्धमागधी की स्थिति मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के बीच है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। अर्द्धमागधी का महत्व जैन साहित्य के कारण अधिक है। अर्ध-मागधी में ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है। इसमें दन्त्य का मूर्धन्य हो जाता है - स्थित > ठिप। अर्ध-मागधी में ष्, श्, स् में केवल स् का प्रयोग होता है तथा अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता। अर्ध-मागधी में कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि मागधी के समान एकारान्त तथा शौरसेनी के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।

पैशाची प्राकृत

इसका क्षेत्र देश का पश्चिमोत्तर भाग था और विद्वान कश्मीरी आदि भाषा को इसकी उत्तराधिकारी भाषा मानते हैं।

महाराष्ट्री प्राकृत

यह व्यापक रूप से प्रचलित थी और महाराष्ट्र में फैली होने के कारण इस नाम से पहिचानी जाती थी।

शौरसेनी प्राकृत

इसका क्षेत्र मथुरा और मध्य प्रदेश का आँचल था। इस भाषा में अनेक ग्रंथ रचे गए जिनमें जैन धर्मग्रंथों की संख्या अधिक हैं संस्कृत के प्राचीन नाटकों में भी स्त्री पात्रों और जनसामान्य के संवादों के लिए प्राकृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। मध्यदेशी भाषा ही बाद में शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र बनी। प्राचीन 'शूरसेन' जनपद के नाम पर इसका नामकरण किया गया। मथुरा इसका केन्द्र था। इसी क्षेत्र में शौरसेनी का कालान्तर में विकास अर्वाचीन लोकव्यापी ब्रजभाषा के रूप में हुआ। शौरसेनी न केवल अपने क्षेत्र की व्यापक भाषा थी, वरन अन्य प्राकृतों के भाषा-क्षेत्रों को भी इसने यथेष्ट रूप में प्रभावित किया तथा कई उत्तर और पश्चिमोत्तर भाषाओं के उद्भव में सहायता की। इस क्षेत्र में अधिक राजनीतिक उथल-पुथल होने के कारण इसका साहित्य उपलब्ध नहीं होता। केवल संस्कृत नाटकों तथा जैन धर्म के ग्रन्थों में यह सुरक्षित मिलती है। वरूचि तथा हेमचन्द्र ने इसकी विशेषताओं का विस्तृत परिचय दिया है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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