बाजीराव द्वितीय: Difference between revisions

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'''पेशवा बाजीराव''' द्वितीय ने शीघ्र ही सिद्ध कर दिया कि वह केवल क़ायर ही नहीं, बल्कि विश्वासघाती भी है। वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के साथ हुई संधि के प्रति भी सच्चा साबित नहीं हुआ। संधि के द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध उसे रुचिकर नहीं लगे। उसने मराठा सरदारों में व्याप्त रोष और असंतोष का फ़ायदा उठाकर उन्हें अंग्रेज़ों के विरुद्ध दुबारा संगठित किया।  
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'''नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय''' के नेतृत्व में संगठित [[मराठा]] सेना ने [[पूना]] की अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी को लूटकर जला दिया और खड़की स्थिति अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों-जनवरी 1818 में कोरे गाँव और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई-में पराजित हुआ। उसने भागने की कोशिश की, लेकिन 3 जून 1818 ई. को उसे अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण करना पड़ा। अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में [[कानपुर]] के निकट [[बिठूर]] भेज दिया, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों की स्वतंत्रता नष्ट करने के लिए वह सबसे अधिक ज़िम्मेदार था।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-281
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Revision as of 11:54, 13 March 2011

बाजीराव द्वितीय, आठवाँ और अन्तिम पेशवा (1769-1818) था। वह राघोबा का पुत्र था। नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद वह स्वयं ही सत्ता सम्भालना चाहता था। बाजीराव द्वितीय एक क़ायर और विश्वासघाती व्यक्ति था। अंग्रेज़ों ने उसे बंदी बनाकर बिठूर भेज दिया, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

पेशवा का पद

उसने अंग्रेज़ों की सहायता से पेशवा का पद प्राप्त किया और उसके लिए कई मराठा क्षेत्र अंग्रेज़ों को दे दिये। बाजीराव द्वितीय स्वार्थी और अयोग्य शासक था तथा महत्त्वाकांक्षी होने के कारण अपने प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस से ईर्ष्या करता था। नाना फड़नवीस की मृत्यु 1800 ई. में हो गई और बाजीराव स्वयं ही सत्ता सम्भालने के लिए आतुर हो उठा। लेकिन वह सैनिक गुणों से रहित और व्यक्तिगत रूप से क़ायर था और समझता था कि केवल छल कपट से ही अपने लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

बाजीराव द्वितीय की पराजय

नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद उसके रिक्त पद के लिए दौलतराव शिन्दे और जसवन्तराव होल्कर में प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गई। बाजीराव द्वितीय छल कपट से इन दोनों को ही अपने नियंत्रण में रखना चाहता था, जिससे मामला और उलझ गया। शिन्दे और होल्कर ने पेशवा को अपने नियंत्रण में लेने के लिए पूना के फाटकों के बाहर युद्ध शुरू कर दिया। बाजीराव द्वितीय ने शिन्दे का साथ दिया, लेकिन होल्कर की सेना ने उन दोनों की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया।

अंग्रेज़ों से सन्धि

भयभीत पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1801 ई. में बसई भागकर अंग्रेज़ों की शरण ली और वहीं एक अंग्रेज़ी जहाज़ पर बसई की सन्धि (31 दिसम्बर, 1802) पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके द्वारा उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी का आश्रित होना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने बाजीराव द्वितीय को राजधानी पूना में पुन: सत्तासीन करने का वचन दिया और पेशवा की रक्षा के लिए उसने राज्य में पर्याप्त सेना रखने की ज़िम्मेदारी ली। इसके बदले में पेशवा ने कम्पनी को इतना मराठा इलाक़ा देना स्वीकार कर लिया, जिससे कम्पनी की सेना का ख़र्च निकल आए। उसने यह भी वायदा किया कि वह अपने यहाँ अंग्रेज़ों से शत्रुता रखने वाले अन्य यूरोपीय देश के लोगों को नौकरी पर नहीं रखेगा। इस प्रकार बाजीराव द्वितीय ने अपनी रक्षा के लिए अंग्रेज़ों के हाथ अपनी स्वतंत्रता बेच दी।

मराठा सरदारों का रोष

मराठा सरदारों ने बसई की संधि के प्रति अपना रोष प्रकट किया, क्योंकि उन्हें लगा कि पेशवा ने अपनी क़ायरता के कारण उन सभी की स्वतंत्रता बेच दी है। अत: उन लोगों ने इस आपत्तिजनक संधि को ख़त्म कराने के लिए युद्ध की तैयारी की। परिणाम स्वरूप द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-06 ई) हुआ, जिसमें अंग्रेज़ों की जीत हुई और मराठा क्षेत्रों पर उनकी प्रभु-सत्ता स्थापित हो गई।

विश्वासघाती व क़ायर व्यक्ति

पेशवा बाजीराव द्वितीय ने शीघ्र ही सिद्ध कर दिया कि वह केवल क़ायर ही नहीं, बल्कि विश्वासघाती भी है। वह अंग्रेज़ों के साथ हुई संधि के प्रति भी सच्चा साबित नहीं हुआ। संधि के द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध उसे रुचिकर नहीं लगे। उसने मराठा सरदारों में व्याप्त रोष और असंतोष का फ़ायदा उठाकर उन्हें अंग्रेज़ों के विरुद्ध दुबारा संगठित किया।

आत्म समर्पण

नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में संगठित मराठा सेना ने पूना की अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी को लूटकर जला दिया और खड़की स्थिति अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों-जनवरी 1818 में कोरे गाँव और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई-में पराजित हुआ। उसने भागने की कोशिश की, लेकिन 3 जून 1818 ई. को उसे अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण करना पड़ा। अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों की स्वतंत्रता नष्ट करने के लिए वह सबसे अधिक ज़िम्मेदार था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-281

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