जनतंत्र की जाति -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 22: | Line 22: | ||
चुनाव जब भी आते हैं तो जाति और धर्म की बहस मीडिया में शोर मचाने लगती है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति और धर्म बड़े ज़ोर-शोर से याद दिलाया जाता है। चुनावों में जाति और धर्म के आधार पर ही अधिकतर चुनाव क्षेत्रों की उम्मीदवारी निश्चित की जाती है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उस राजनैतिक पार्टी का नारा जाति और धर्म का भेदभाव के ख़िलाफ़ है। किसी राजनैतिक दल का श्वेत पत्र या देश का राज पत्र भले ही जाति या धर्म के आधार पर चुनाव न होने की बात करता हो लेकिन मतदाता तो इसी को आधार बना कर मतदान करता है। | चुनाव जब भी आते हैं तो जाति और धर्म की बहस मीडिया में शोर मचाने लगती है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति और धर्म बड़े ज़ोर-शोर से याद दिलाया जाता है। चुनावों में जाति और धर्म के आधार पर ही अधिकतर चुनाव क्षेत्रों की उम्मीदवारी निश्चित की जाती है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उस राजनैतिक पार्टी का नारा जाति और धर्म का भेदभाव के ख़िलाफ़ है। किसी राजनैतिक दल का श्वेत पत्र या देश का राज पत्र भले ही जाति या धर्म के आधार पर चुनाव न होने की बात करता हो लेकिन मतदाता तो इसी को आधार बना कर मतदान करता है। | ||
एक संस्मरण- | एक संस्मरण- | ||
बचपन में मेरी वर्षगाँठ पर हवन करने पंडित जी आया करते थे, वह हमारे शहर के वरिष्ठ और विद्वान माने जाते थे। उस दिन खीर, पूड़ी, हलवा आदि बना करता था। पंडित जी खीर खाने के लिए हँसकर मना कर दिया करते थे। मेरे पूछने पर पिताजी ने बताया कि पंडित जाटों के यहाँ खीर नहीं खाते क्योंकि खीर पक्का खाना नहीं माना जाता, खीर तो कच्चे खाने में आती है। बात-चीत में पंडित जी यह भी कह देते थे कि चौधरी साहब मैं तो ये नियम-धर्म निबाह रहा हूँ पर लगता नहीं कि मेरा बेटा भी यह निबाहेगा। उनको अफ़सोस होता था कि जितनी | बचपन में मेरी वर्षगाँठ पर हवन करने पंडित जी आया करते थे, वह हमारे शहर के वरिष्ठ और विद्वान माने जाते थे। उस दिन खीर, पूड़ी, हलवा आदि बना करता था। पंडित जी खीर खाने के लिए हँसकर मना कर दिया करते थे। मेरे पूछने पर पिताजी ने बताया कि पंडित जाटों के यहाँ खीर नहीं खाते क्योंकि खीर पक्का खाना नहीं माना जाता, खीर तो कच्चे खाने में आती है। बात-चीत में पंडित जी यह भी कह देते थे कि चौधरी साहब मैं तो ये नियम-धर्म निबाह रहा हूँ पर लगता नहीं कि मेरा बेटा भी यह निबाहेगा। उनको अफ़सोस होता था कि जितनी छुआ-छूत वे मानते हैं, शायद उनका बेटा उतनी नहीं मानेगा और यह सोचकर उदास हो जाते थे। यह सब कुछ सामान्य था और आज भी है। दलित जातियों के भी जो हिंदू धार्मिक कर्मकाण्ड होते हैं उनमें भी ब्राह्मण ही बुलाए जाते हैं। | ||
धुर राजस्थान में जाटों को अछूत की श्रेणी में माना जाता था। जे.पी. दत्ता ने अपनी फ़िल्म 'ग़ुलामी' में यह सब कुछ दिखाया भी है। मेरे ही परिवार के एक सदस्य ने एक बार यह त्रास स्वयं भी झेला। जब उनको एक गाँव के घर में पीने को पानी मांगने पर "दूर हट के पीओ तुम जाट हो" वाक्य सुनना पड़ा। | धुर राजस्थान में जाटों को अछूत की श्रेणी में माना जाता था। जे.पी. दत्ता ने अपनी फ़िल्म 'ग़ुलामी' में यह सब कुछ दिखाया भी है। मेरे ही परिवार के एक सदस्य ने एक बार यह त्रास स्वयं भी झेला। जब उनको एक गाँव के घर में पीने को पानी मांगने पर "दूर हट के पीओ तुम जाट हो" वाक्य सुनना पड़ा। | ||
सामाजिक स्तर पर जातिवाद विरोधी प्रयास काफ़ी हद तक व्यावहारिक रहे हैं। समाज सुधार के प्रयास, समाज सुधारकों द्वारा किए जाने पर ही जनता के मन को छू पाते हैं। राजनैतिक स्तर पर जो समाज सुधार या जातिवाद विरोधी प्रयास होते हैं वे सामान्यत: निष्फल ही रहते हैं कभी-कभी वे हास्यास्पद भी होते हैं। कारण यह है कि जनता अपनी सरकार या किसी राजनैतिक दल को देश के विकास से जोड़कर चलती है न कि समाज सुधार से। | सामाजिक स्तर पर जातिवाद विरोधी प्रयास काफ़ी हद तक व्यावहारिक रहे हैं। समाज सुधार के प्रयास, समाज सुधारकों द्वारा किए जाने पर ही जनता के मन को छू पाते हैं। राजनैतिक स्तर पर जो समाज सुधार या जातिवाद विरोधी प्रयास होते हैं वे सामान्यत: निष्फल ही रहते हैं कभी-कभी वे हास्यास्पद भी होते हैं। कारण यह है कि जनता अपनी सरकार या किसी राजनैतिक दल को देश के विकास से जोड़कर चलती है न कि समाज सुधार से। |
Revision as of 14:12, 28 May 2014
50px|right|link=|
20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश जनतंत्र की जाति -आदित्य चौधरी खेल भावना से राजनीति करना एक स्वस्थ मस्तिष्क के विवेक पूर्ण होने की पहचान है लेकिन राजनीति को खेल समझना मस्तिष्क की अपरिपक्वता और विवेक हीनता का द्योतक है। राजनीति को खेल समझने वाला नेता मतदाता को खिलौना और लोकतंत्र को जुआ खेलने की मेज़ समझता है। |
पिछले सम्पादकीय