रावत नृत्य: Difference between revisions

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Latest revision as of 07:28, 17 July 2014

रावत नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य के लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को 'अहिरा' या 'गहिरा' नृत्य भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में ही नहीं अपितु सारे भारत में रावतों की अपनी संस्कृति है। उनके रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज भी विभिन्न प्रकार के हैं। देश के कोन-कोने तक शिक्षा के पहुँचने के बाद भी रावतों ने अपनी प्राचीन धरोहरों को बिसराया नहीं है। यादव, पहटिया, ठेठवार और राउत आदि नाम से संसार में प्रसिद्ध इस जाति के लोग इस नृत्य पर्व को 'देवारी' (दीपावली) के रूप मे मनाते हैं।

नृत्य के भाग

रावत नृत्य के तीन भाग हैं- सुहई बाँधना, मातर पूजा और काछन चढ़ाना। माँ लक्ष्मी के पूजन 'सुरहोती' के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का विधान है।[1] राउत अपने इष्ट देव की पूजा करके अपने मालिक के घर सोहई बाँधने निकल पड़ते हैं। गाय के गले में सोहई बाँधकर उसकी बढ़ोतरी की कामना करते हैं और साथ ही यह गीत गाते हैं-

सुहाई बनायेंव अचरी पचरी गाँठ दियो हर्रेया।
जउन सुहाई ल छारही, ओला लपट लागे गौर्रेया।।

अपने जाने-पहचाने लोगों को देखकर गाय रंभाने लगती है। सुहाई बाँधते सयम गायों को सुहाई से सजाया और बैलों को गैहाटी बाँधा जाता है। सुहाई बाँधते समय रावत लोग इस गीत को गाते हैं-

एसो के बन बरसा
घरसा परगे हील
गाय कहेंव रे लाली
संगे रेंगाबो पीले

रावत लोग पूरे दल में कौड़ी और मोर पंख से सज-धज कर तथा ढोलक, मांदर, झांझ और डंडा के साथ नाचते और गाते हुए अपने मालिकों के घर जाते हैं।[1] इस बीच ये लोग गीत भी गाते हैं-

उठे रहेव मालिक नौ दस लगगे वासे।
भीतर दुलरवा दूध पीये बाहिर धुले रनवासे।।

यहाँ मालिक के लड़के को 'दुलरवा' ओर मिट्टी के घर को 'रनवास' कहा गया है। आँचलिक गीतों में आत्मीयता प्रकट होती है। लोक संगीत की हर धुन पर रावतों के पग थिरक उठते हैं। वे लोग गाते हैं_

एक सिंग तो ऐसे तैसे
एक सिंग तोर डंडा।
गीजर गीजर के आबे रे
खैरका डांढ़ तोर मूढ़ा।

रावतों का दल सोहाई बाँधने के बाद दान दाता मालिक के लिये मंगल कामनाएँ करते हैं। इस शुभ अवसर पर लाठी और देव पितरों की पूजा की जाती है। नाचते और गाते रावतों को मालिक रुपया-पैसा या धान देकर विदा करते हैं। इस पर रावत फिर से गान करते हैं-

हरियर चक चंदन, हरियर गोबर आबिना।
गाय गाय कोठा भरे, बरदा भरे शौकीन।।

काछन चढ़ाना

रावत नृत्य का तीसरा रूप है- 'काछन चढ़ाना'। रावत नाचते-गाते हुए देव पितरों की पूजा करते हुए उन्हें अपने शरीर में चढ़ा लेते हैं और गाने लगते हैं-

एक कांछ कांछैव भईया, दूसर दियेंव लभाई।
तीसर कांछ कांछैव त माता-पिता के दुहाई।।

रावत नृत्य का महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन रवताही बाज़ार या मड़ई में होता है। डॉक्टर बल्देव प्रसाद मिश्र इसे 'इंद्रध्वज' की संज्ञा देते हैं और साथ ही लिखते हैं- 'रावतों द्वारा धारण किए जाने वाली कौड़ी लक्ष्मी का प्रतीक है और मोर पंख मंत्र-तंत्र अभिचार या अन्य विपत्ति रूपी सर्पों के प्रतिकार का प्रतीक है।'[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 केशरवानी, अश्विनी। छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 29 मार्च, 2012।

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