अणुवाद: Difference between revisions

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Latest revision as of 08:45, 23 May 2018

अणुवाद दर्शन में प्रकृति के अल्पमत अंश को अणु या परमाणु कहते हैं। अणुवाद का दावा है कि प्रत्येक प्राकृत पदार्थ अणुओं से बना है और पदार्थों का बनना तथा टूटना अणुओं के संयोग वियोग का ही दूसरा नाम है। प्राचीन काल में अणुवाद दार्शनिक विवेचन का एक प्रमुख विषय था, परंतु वैज्ञानिकों ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, आधुनिक काल में दार्शनिक इसकी ओर से उदासीन रहे हैं, परंतु भौतिकी के लिए अणु की बनावट और प्रक्रिया अध्ययन का प्रमुख विषय बन गई है । भारत में वैशेषिक दर्शन ने अणु पर विशेष विचार किया है।

प्राचीन दार्शनिक विचार

प्रकृति के विभाजन में अणु परम या अंत है, विभाजन इससे आगे जा नहीं सकता। दिमाक्रीतस के अनुसार प्रत्येक अणु परिणाम और आकृति रखता है, परंतु इनमें किसी प्रकार का जातिभेद नहीं। यही ल्युसिपस का भी मत था। एंपिदोक्लोज ने पृथिवी, जल और अग्नि के अणुओं में जातिभेद देखा। अणुओं का संयोग वियोग गति पर निर्भर है, और गति शून्य में ही हो सकती है। अभाज्य अणुओं के साथ प्राचीन अणुवाद ने शून्य के अस्तित्व को भी स्वीकार किया।

आधुनिक विज्ञान और अणु

19वीं शताब्दी के आरंभ में जॉन डाल्टन ने अणुवाद का सबल समर्थन किया। उसे उचित रूप से आधुनिक अणुवाद का पिता कहा जाता है। अणुवाद की पुष्टि में कई हेतु दिए जाते हैं जिनमें दो ये हैं:
(1) प्रत्येक पदार्थ दबाव के नीचे सिकुड़ जाता है और दबाव दूर होने पर फैल जाता है। गैसों की हालत में यह संकोच और फैलाव स्पष्ट दीखते हैं। किसी वस्तु का संकोच उसके अणुओं का एक-दूसरे के निकट आना है, उसका फैलना अणुओं के अंतर का अधिक होना ही है।
(2) गुणित अनुपात का नियम (लॉ ऑव मल्टिपुत्र प्रोपोर्शस) अणुवाद की पुष्टि करता है। जब दो भिन्न अणु रासायनिक संयोग में आते हैं, तो उनमें एक के अचल मात्रा में रहने पर, दूसरा अणु 2,3,4 . . . इकाइयों में ही उसे मिलता है, 212, 334 आदि मात्राओं में नहीं मिलता। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि अणु का 12 या 34 अंश कहीं विद्यमान ही नहीं।

वैशेषिक का अणुवाद

वैशेषिक दर्शन का उद्देश्य मौलिक पदार्थों या परतम जातियों का अध्ययन है। इन पदार्थों में प्रथम स्थान द्रव्य को दिया गया है। नौ द्रव्यों में पहले पाँच द्रव्य पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश हैं। इसका अर्थ यह है कि सभी प्राकृत अणु सजातीय नहीं, अपितु उनमें जातिभेद है। इस विचार में वैशेषिक दिमाक्रीतस से नहीं अपितु एंपिदोक्लीज़ से मिलता है। अणुओं में जातिभेद प्रत्यक्ष का विषय तो है नहीं, अनुमान ही हो सकता है। ऐसे अनुमान का आधार क्या है? वैशेषिक के अनुसार, कारण के भाव से ही कार्य का भाव होता है। हमारे संवेदनों (सेंसेशंस) में मौलिक जातिभेद है- देखना, सुनना, सूँघना, चखना, छूना, एक-दूसरे में बदल नहीं सकते। इस भेद का कारण यह है कि इन बोधों के साधक अणुओं में भी जातिभेद है।

अणुओं का संयोग वियोग निरंतर होता रहता है। समता की हालत में संयोग का आरंभ सृष्टि है, पूर्ण वियोग प्रलय है। अणु नित्य है, इसलिए सृष्टि, प्रलय का क्रम भी नित्य है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(विशेष द्र. वैशेषिक दर्शन)(देखें- अणु, परमाणु)

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 88 |

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