अन्विताभिधानवाद: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 10: | Line 10: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{दर्शन शास्त्र}} | |||
[[Category:दर्शन]][[Category:हिन्दू दर्शन]][[Category:मीमांसा दर्शन]][[Category:दार्शनिक सिद्धान्त]] | [[Category:दर्शन]][[Category:हिन्दू दर्शन]][[Category:मीमांसा दर्शन]][[Category:दार्शनिक सिद्धान्त]] | ||
[[Category:धर्म कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]][[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:धर्म कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]][[Category:दर्शन कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
Latest revision as of 07:39, 4 November 2022
अन्विताभिधानवाद का प्रतिपादन सबसे पहले कुमारिल भट्ट के शिष्य प्रभाकर ने अपने गुरु के 'अभिहितान्वयवाद' के विरुद्ध किया था। आगे चलकर उनके इस मत से और भी कई लोग जुड़े।
- 'प्रभाकर मीमांसा' में माना गया है कि अर्थ का ज्ञान केवल शब्द से नहीं, विधिवाक्य से होता है। जो शब्द किसी आज्ञापरक वाक्य में आया हो, उसी शब्द की सार्थकता है। वाक्य से बहिष्कृत शब्द का कोई अर्थ नहीं।
- 'घड़ा' शब्द का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक इसका ('घड़ा लाओ' जैसे आज्ञार्थक) वाक्य में प्रयोग नहीं हुआ है। इसी सिद्धांत को 'अन्विताभिधानवाद' कहते हैं।
- इस सिद्धांत के अनुसार, जब शब्द आज्ञार्थक वाक्य में अन्य शब्दों से अन्वित (संबंधित) होता है, तभी वह अर्थविशेष का अभिधान करता है। प्रत्येक शब्द अर्थ का बोध कराने में अक्षम है, किंतु व्यवहार के कारण शब्द का अर्थ सीमित हो जाता है। शब्दार्थ की इस सीमा का ज्ञान व्यवहार से ही होगा और भाषा में व्यवहार वाक्य के माध्यम से ही व्यक्त होता है, अत: शब्द का अर्थ वाक्य पर अवलंबित रहता है। इस सिद्धांत के अनुसार, वाक्य ही भाषा की इकाई है।
- न्याय में इसके विपरीत अभिहितान्वयवाद का प्रतिपादन किया गया है।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 131 |
संबंधित लेख