भारतकोश सम्पादकीय 1 जुलाई 2012: Difference between revisions

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50px|right|link=| 20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
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कहता है जुगाड़ सारा ज़माना -आदित्य चौधरी


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        आज 'अंतर-राष्ट्रीय जुगाड़ दिवस' है ! ... और अगर नहीं है, तो होना चाहिए। इसके साथ ही कुछ ऐसा जुगाड़ भी किया जाना चाहिए, जिससे कि एक जुगाड़ मंत्रालय का जुगाड़ हो जाये। जुगाड़ मंत्रालय की ज़रूरत हमारे देश को किसी भी अन्य मंत्रालय से अधिक है... 
        एक बार एक अंग्रेज़ भारत के दौरे पर आ रहा था। वह जिस कम्पनी में काम करता था, उसके बॉस ने उसे समझाया- 
"देखो डेविड ! तुम ताजमहल देखने इंडिया जा रहे हो लेकिन इंडिया की गलियों में इधर-उधर मत घूमना और इन गलियों में कुछ भी खाना-पीना मत। ख़ासतौर से ये मथुरा, आगरा, बनारस... इनकी गलियों में ज़्यादा घूमने-फिरने की और कुछ भी खाने-पीने की ज़रूरत नहीं है, समझे !" 
"लेकिन सर ! बात क्या है, ऐसा क्यों ?"
"बस बता दिया, बहस करने की ज़रूरत नहीं है।"
ख़ैर डेविड भारत आया और कुछ दिन यहाँ रहा और वापस लौट गया। वापस लौटकर उसने अपने बॉस के सामने एक पैकेट रखा और उससे कहा- 
"सर ! ये देखिए, ये एक बहुत बड़ा 'पज़ल' लाया हूँ, मैं आपके लिए।..."
"ओह ! इसका मतलब है तुमने मेरी बात नहीं मानी और तुम गलियों में घूमे ?"
"यस सर। बहुत अच्छा लगा... खाने की चीज़े तो कमाल थीं..."
"तुमने वहाँ ख़ूब खाया भी होगा ? है ना ?"
"यस सर!"
"ठीक है, तुम इस पैकेट में कोई न कोई खाने की चीज़ ही लाए होगे ?
"यस सर !"
"क्या है ?"
"सर ! इसे जलेबी कहते हैं।" डेविड ने एक डिब्बा मेज़ पर रख दिया।
"ओ.के. ! और अब तुम ये जानना चाहोगे कि इस जलेबी के अन्दर रस कैसे आया?"
"यस सर ! लेकिन आपको कैसे मालूम ?"
"ठहर जाओ। मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ।" बॉस ने अपने फ़्रिज में से एक समोसा और एक रसगुल्ला निकाल कर मेज़ पर रख दिया और बोला- 
"मैं पिछले साल इंडिया गया था। वहाँ से मैं ये रसगुल्ला और समोसा लेकर आया। अब तुम मुझे बताओ कि इस रसगुल्ले के अन्दर रस कैसे आया और इस समोसे के अन्दर आलू कैसे आया? अब तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी यही सोचते हुए निकलेगी कि जलेबी में रस कैसे घुसा...मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि इंडिया जा रहे हो तो चुपचाप ताजमहल देखकर वापस आ जाना। लेकिन तुम नहीं माने।"
"सर, मैंने ये इंडिया में भी पूछा था कि ये कैसे होता है? तो उन्होंने एक कोई टेक्नीक का नाम लिया... क्या नाम लिया था...?"
"उस टेक्नीक का नाम है 'जुगाड़'... यही है ना ?" बॉस ने बुझे स्वर में कहा।
"यस सर, यस सर ! बिल्कुल ठीक है... लेकिन आप को कैसे मालूम ?"
"अरे यार ! सब जानते हैं कि इंडिया में जुगाड़ टेक्नीक यूज़ होती है, लेकिन ये टेक्नीक है क्या ? और हम कैसे इसे सीख सकते हैं ? ये पता नहीं चल पा रहा है... इस 'जुगाड़' की वजह से ही हम परेशान हैं। भारत ये जुगाड़ टेक्नोलॉजी, वर्ल्ड में किसी को नहीं देता। जबकि उन्होंने कोई पेटेन्ट भी नहीं करा रखा है और उनका सारा विकास इसी टेक्नोलॉजी पर आधारित होता है। जब भी हम कोई नई टेक्नोलॉजी लाते हैं, वो हमारी टेक्नोलॉजी को इस जुगाड़ से फ़ेल कर देते हैं।" 
फिर डेविड और उसका बॉस हमारी 'जुगाड़ तकनीक' को हासिल करने का जुगाड़ करने के गुन्ताड़े में लग गए... 
आइए अब वापस चलें... 
        'जुगाड़' शब्द की उत्पत्ति के पीछे शब्द है 'युक्ति', जिसका प्रचलित रूप है जुगत और जुगत का क्षेत्रीय रूप है 'जुगाड़' (विशेषकर हरियाणा और पंजाब में)। कभी-कभी मुझे लगता है कि आदिकाल में एक ऋषि हुए होंगे, जिनका नाम था 'जुगाड़ ऋषि'। ये जुगाड़ ऋषि अपनी करामाती बुद्धि से भारत को अपनी तकनीक, एक मन्त्र दे गये हैं 'जुगाड़'। यहाँ तक कि भारतकोश के कार्यालय में भी मैं अक़्सर इस शब्द को सुनता रहता हूँ। कभी पूछता हूँ कि ये प्रोग्रामिंग कैसे की? तो जवाब मिलता है कि 'सर ! ये जुगाड़ से किया है'।
        जुगाड़ ऋषि का मन्त्र गांव-गांव में अपनाया जाता है। तमाम तरह के जुगाड़ किये जाते थे। खोजें की जाती थीं। बहुत से जुगाड़ अद्भुत होते थे, जो अक्सर गांव में और छोटे शहरों में देखने को मिलते थे लेकिन धीरे-धीरे ये चलन कम होता चला जा रहा है। इसकी आज बहुत ज़रूरत है। अनेक किस्म के जुगाड़ होते थे, उनमें कोई न कोई एक जुगाड़ ऐसा होता था, जो वास्तव में एक वैज्ञानिक खोज के रूप में विकसित हो सकता था।
        आजकल पढ़ाई का तरीक़ा बदल रहा है। नई पीढ़ी की रुचि विज्ञान और कला में कम है। ज़्यादातर छात्र इस तरह के विषय चुन रहे हैं जो व्यापार से और पैसा कमाने से संबंधित हैं। इसलिए 'जुगाड़' करने वाली प्रतिभा कम हो रही है। असल में जुगाड़ करने के लिए ख़ाली वक़्त भी चाहिए। यह कहावत कि 'ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर' सही नहीं है, इसे होना चाहिए 'ख़ाली दिमाग़ जुगाड़ का घर'। 
        शायद शुरुआती जुगाड़, महात्मा गांधी ने बनाया था। उन्हें एक 'फ़ोर्ड कार' उपहार में मिली। गांधी जी ने कार के आगे बैल लगवा दिए और उसका नाम रख दिया 'ऑक्स-फ़ोर्ड'। इसके बाद तो हरियाणा-पंजाब से प्रसिद्धि प्राप्त करता हुआ 'जुगाड़' लगभग पूरे भारत में चलने लगा।
जुगाड़ के लिए एक क़िस्सा और मशहूर है-

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        किसी गाँव की बात है कि अधेड़ उम्र में आकर, छोटे पहलवान की पत्नी स्वर्ग सिधार गई। छोटे पहलवान अकेले रह गए लेकिन बेटे बहू के घर में होने से संतोष कर लिया। एक दिन की बात है शाम के समय छोटे पहलवान खेत से लौटे तो उन्होंने बेटे की बहू से मूँग की दाल बनाने के लिए कहा। बहू ने अपने पति से कहलवा भेजा कि 'अब रात के समय मूँग की दाल कहाँ से आएगी, इसलिए जो कुछ बना है, वही खा लें'।
पहलवान को बात अखर गई। उन्होंने अपने दोस्त की रिश्तेदारी में से एक ग़रीब विधवा से शादी कर ली। जब कुछ दिन बीत गए तो एक शाम को छोटे पहलवान ने चुपचाप रसोई में जाकर यह देख लिया कि मूँग की दाल बिल्कुल नहीं है। जब रात हो गई तो बाहर चौक में आकर अपने बेटे के साथ बैठ कर चाँदनी रात में गपशप करने लगे। कुछ देर और गुज़र गई तो अपनी पत्नी को आवाज़ देकर बोले-
"अजी सुनती हो ! ज़रा मूँग की दाल खाने का मन कर रहा है... फुलके और मूँग की दाल बना लो।"
"अभी लायी... आप हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाइये, बेटे से ज़रा हुक्का तो लगवाइये... अभी लाती हूँ।"
मुश्किल से आधा घंटा गुजरा होगा, छोटे पहलवान और उनका बेटा देशी घी में छौंकी हुई मूँग की दाल के साथ फुलकों का आनंद ले रहे थे। छोटे पहलवान ने खाना खाकर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए अपनी पत्नी से पूछा- "एक बात बताओ ... कि रसोई में तो मूंग की दाल थी ही नहीं, दुकानें भी सब बंद हो चुकीं, आस-पड़ोस वाले भी सब सो चुके, फिर यह मूँग की दाल आयी कहाँ से ? 
श्रीमती जी ने सकुचाते हुए जवाब दिया- "अजी, हमारे यहाँ इसे जुगाड़ कहते हैं।"
"लेकिन यह जुगाड़ किया कैसे ?"
पत्नी ने हँसकर कहा, "घर में मूँग की दाल की बड़ी रक्खी थीं, मैंने उनको कूटकर पाँच मिनट पानी में भिगो दिया और फिर घी और ज़ीरे का छौंक लगाकर मूँग की दाल बन गयी।"
        वास्तव में यह सही बात है कि भारत की गृहणी और माँ परिवार को अपनी अद्‌भुत 'जुगाड़ क्षमता' से चलाती है। कुछ साल पहले एक सर्वे में यह रिपोर्ट दी थी कि विषमतम परिस्थितियों में, जिन्होंने कुशल प्रदर्शन किया है, उनमें मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग की भारतीय गृहणियाँ और भारतीय ट्रक ड्राइवर विश्व में श्रेष्ठ स्थान पर हैं। 

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक

और जाने क्या हुआ उस दिन -आदित्य चौधरी

खिसकते निक्कर को 
थामने की उम्र थी मेरी
जब वो 
पड़ोस में रहने आई थी

और पहले ही दिन
हमने छुप-छुप कर 
ख़ूब आइसक्रीम खाई थी

वो पैसे चुराती 
और मैं ख़र्च करता
अब क्या कहूँ 
इसी तरह की आशनाई थी

मैं तो मुँह फाड़े
भागता था 
पीछे कटी पतंगों के
न जाने कब 
वो मेरे लिए
नई चर्ख़ी, पंतग और डोर 
ले आई थी

उस दिन भी 
अहसास नहीं हुआ मुझको
कि उसकी आँखों में 
कितनी गहराई थी

मैं तो सपने बुना करता था
नई साइकिल के
कि वो ऊन चुराकर 
मेरे लिए 
स्वेटर बुन लाई थी

कुछ इस तरहा
आहिस्ता-आहिस्ता 
वो मेरी ज़िन्दगी में आई थी

जिस दिन उसको 
'देखने' वाले आए
उस दिन वो मुझसे
न जाने क्या 
कहने आई थी

और जाने क्या हुआ 
उस दिन
कि उसकी 
मंद-मंद मुस्कान 
मुझे ज़िन्दगी भर 
याद आई थी

क्योंकि 
वो फिर नहीं आई थी
वो फिर नहीं आई थी...