खड़ाऊँ: Difference between revisions
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thumb|खड़ाऊँ खड़ाऊँ पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में पहना करते थे। यह लकड़ी से बनी होती है। प्राचीन समय से ही भारत में ऋषि-मुनियों द्वारा यह पहनी जाती रही है। खड़ाऊँ जहाँ पहनने में बेहद हल्की होती हैं, वहीं दूसरी ओर यह काफ़ी मजबूत भी होती है।
महत्त्व
पैरों में लकड़ी के खड़ाऊँ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया, उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफ़ी पहले ही समझ लिया था। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं। यदि यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहे तो शरीर की जैविक शक्ति समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊँ पहनने की प्रथा प्रारंभ की, जिससे शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके। इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊँ पहनी जाने लगी।
धार्मिक तथा सामाजिक तथ्य
पुराने समय में चमड़े का जूता कई धार्मिक और सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य नहीं था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊँ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों को आपत्ति नहीं थी। इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आई। कालांतर में यही खड़ाऊँ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गई और उनकी मुख्य पहचान भी बन गई। किसी भी साधु-संत के लिए यह आवश्यक है कि वह लकड़ी के खड़ाऊँ धारण करे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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