पतंजलि: Difference between revisions

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==सूत्र-रचना==
==सूत्र-रचना==
[[पाणिनि]] ने इन दोनों मतों का समन्वय करके सूत्र-रचना की थी। भाष्यकार पतञ्जलि ने दोनों पक्षों को दार्शनिकता की कोटि तक पहुँचा कर उनके सामञ्जस्य के उपयुक्त मार्ग का अन्वेषण कर लिया। उन्होंने स्फोट और ध्वनि इन शब्दों के दो स्वरूप स्वीकार किये और शब्द तथा अर्थ के सम्बन्ध को नित्य माना। व्यावहारिक रूप से भी उन्होंने इस प्रकार शब्द-निष्पत्ति की, जो दोनों पक्षों को मान्य हो सके। तदनुसार ही उन्होंने वर्णों के अर्थतत्त्व और निरर्थकत्व के विषय में भी दोनों पक्षों का समर्थन किया। भाष्यकार ने पद के चार अर्थ माने हैं, गुण, क्रिया, आकृति और द्रव्य। गुण और क्रिया द्रव्य में ही रहती हैं। अत: मुख्यरूप से जाति (आकृति) या व्यक्ति (द्रव्य) में पदार्थ किसे मानना चाहिए, इस विषय में वैयाकरणों के भिन्न मत थे। व्याडि द्रव्याभिधानवादी थे, जबकि आचार्य वाजप्यायन जातिवादि। भाष्यकार ने दोनों पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाल कर दोनों का औचित्य स्वीकार किया है। उनके मत से पाणिनि भी दोनों पक्षों को स्वीकार करते थे। पतञ्जलि के अनुसार शब्द जाति और व्यक्ति दोनों का निर्देशक है। उसमें कभी जाति और कभी व्यक्ति का अर्थ प्रधान रहता है। जब व्यक्ति अर्थप्रधान रहता है, तब जाति गौण हो जाती है और बहुवचनादि का प्रयोग संगत होता है। जब जाति प्रधान होती है और व्यक्ति अप्रधान, तब शब्द में एकवचन का प्रयोग उचित माना जाता है। इस प्रकार 'सम्पन्नो यव:' और 'सम्पन्ना यवा:' दोनों प्रयोग साधु माने जाते हैं।  
[[पाणिनि]] ने इन दोनों मतों का समन्वय करके सूत्र-रचना की थी। भाष्यकार पतञ्जलि ने दोनों पक्षों को दार्शनिकता की कोटि तक पहुँचा कर उनके सामञ्जस्य के उपयुक्त मार्ग का अन्वेषण कर लिया। उन्होंने स्फोट और ध्वनि इन शब्दों के दो स्वरूप स्वीकार किये और शब्द तथा अर्थ के सम्बन्ध को नित्य माना। व्यावहारिक रूप से भी उन्होंने इस प्रकार शब्द-निष्पत्ति की, जो दोनों पक्षों को मान्य हो सके। तदनुसार ही उन्होंने वर्णों के अर्थतत्त्व और निरर्थकत्व के विषय में भी दोनों पक्षों का समर्थन किया। भाष्यकार ने पद के चार अर्थ माने हैं, गुण, क्रिया, आकृति और द्रव्य। गुण और क्रिया द्रव्य में ही रहती हैं। अत: मुख्यरूप से जाति (आकृति) या व्यक्ति (द्रव्य) में पदार्थ किसे मानना चाहिए, इस विषय में वैयाकरणों के भिन्न मत थे। व्याडि द्रव्याभिधानवादी थे, जबकि आचार्य वाजप्यायन जातिवादि। भाष्यकार ने दोनों पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाल कर दोनों का औचित्य स्वीकार किया है। उनके मत से पाणिनि भी दोनों पक्षों को स्वीकार करते थे। पतञ्जलि के अनुसार शब्द जाति और व्यक्ति दोनों का निर्देशक है। उसमें कभी जाति और कभी व्यक्ति का अर्थ प्रधान रहता है। जब व्यक्ति अर्थप्रधान रहता है, तब जाति गौण हो जाती है और बहुवचनादि का प्रयोग संगत होता है। जब जाति प्रधान होती है और व्यक्ति अप्रधान, तब शब्द में एकवचन का प्रयोग उचित माना जाता है। इस प्रकार 'सम्पन्नो यव:' और 'सम्पन्ना यवा:' दोनों प्रयोग साधु माने जाते हैं।  
==अद्भूत ग्रन्थ==
==अद्भुत ग्रन्थ==
लेखनशैली की दृष्टि से महाभाष्य संस्कृत वाङ्मय मेंन सबसे अद्भूत ग्रन्थ है। कोई भी ग्रन्थ इसकी रचना-शैली की समता नहीं कर सकता। महामुनि पतञ्जलि के काल में पाणिनीय और प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों की महती ग्रन्थ-राशि विद्यमान थी। पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त ग्रन्थों का सारसंग्रह कर डाला। महाभाष्य का सूक्ष्म पर्यालोचन करने से यह विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल व्याकरण-शास्त्र का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु समस्त विद्याओं का आकार ग्रन्थ है। अतएव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय (2.486) में लिखा है-<br />  
लेखनशैली की दृष्टि से महाभाष्य संस्कृत वाङ्मय में सबसे अद्भुत ग्रन्थ है। कोई भी ग्रन्थ इसकी रचना-शैली की समता नहीं कर सकता। महामुनि [[पतञ्जलि]] के काल में पाणिनीय और प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों की महती ग्रन्थ-राशि विद्यमान थी। पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त ग्रन्थों का सारसंग्रह कर डाला। महाभाष्य का सूक्ष्म पर्यालोचन करने से यह विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल व्याकरण-शास्त्र का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु समस्त विद्याओं का आकार ग्रन्थ है। अतएव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय (2.486) में लिखा है-<br />  


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Revision as of 12:21, 20 February 2011

महर्षि पतंजलि

पतञ्जलि योगसूत्र के रचनाकार है जो हिन्दुओं के छः दर्शनों ( न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है। भारतीय साहित्य में पतञ्जलि के लिखे हुए 3 मुख्य ग्रन्थ मिलते हैः

कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। इनका काल कोई 200 ई पू माना जाता है। शरीर की शुद्धि के लिये वैद्यक शास्त्र का वाणी की शुद्धि के व्याकरण शास्त्र का और चित्त की शुद्धि के लिये योग शास्त्र का प्रणयन करने वाले महर्षि पतंजलि का जन्म माता गोणिका से हुआ था। ये गोनर्द देश में निवास करते थे। इन्होंने योगदर्शन के अतिरिक्त पाणिनि के व्याकरण (अष्टाध्यायी) पर महाभाष्य निर्मित किया। भगवान शेष ने उसी समय अथर्ववेद से आयुर्वेद प्राप्त कर लिया, जब श्री हरि ने मस्त्य अवतार धारण करके वेदों का उद्धार किया। भगवान अनन्त गुप्त रूप से पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। मनुष्यों तथा दूसरे प्राणियों को शारीरिक एवं मानसिक रोगों एवं कष्टों से पीड़ा पाते देख प्रभु को दया आयीं वे पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। उन्होंने शारीरिक व्याधि की निवृत्ति के लिये आयुर्वेद को प्रकट किया। क्योंकि वे चर की भाँति पृथ्वी पर पहले आये थे। आयुर्वेद कर्ता के रूप में उनका नाम 'चरक' हुआ। उन्हीं भगवान अनन्त ने 'पतंजलि' नाम से योगदर्शन और महाभाष्य का निर्माण किया। श्री चरक जी ने आयुर्वेद में आत्रेय ऋषि की परम्परा का प्रतिपादन किया है। आत्रेय मुनि के शिष्य अग्निवेश ने आयुर्वेद पर अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया था। उन सबका सारतत्त्व चरक संहिता में संकलित हुआ। इससे चरक संहिता के अन्त में उसके कर्ता अग्निवेश कहे गये हैं। भाव प्रकाश के कर्ता ने भी भगवान चरक को चिकित्सा-ज्ञान का संकलन कर्ता बताया है। कात्यायन के वार्त्तिकों के पश्चात महर्षि पतञ्जलि ने पाणिनीय अष्टधायी पर एक महती व्याख्या लिखी, जो महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने पाणिनीय सूत्रों तथा उन पर लिखे गये वार्त्तिकों का विवेचन किया, और साथ ही साथ अपने इष्टि-वाक्यों का भी समावेश किया। महाभाष्य में 86 आहिनक हैं। 'आहिनक' शब्द का अर्थ है एक दिन में अधीत अंश। पातञ्जल-महाभाष्य के 83 आहिनक विद्यार्थियों को पढ़ाए गये 86 दिन के पाठ हैं। महर्षि पतञ्जलि ने अपने समय के समस्त संस्कृत-वाङ्मय का आलोडन किया था, अत: उनसे व्याकरण का कोई भी विषय अछूता नहीं रहा। उनकी निरूपण-पद्धति सर्वथा मौलिक और नैयायिकों तर्कशैली पर आधारित है। पतञ्जलि के हाथों पाणिनीय शास्त्र का इतना गहन और व्यापक विस्तार हुआ कि अन्य व्याकरणों की परम्परा लगभग समाप्त हो गई और चारों ओर पाणिनीय व्याकरण की ही पताका फहराने लगी। अष्टधयायी के 1689 सूत्रों पर पतञ्जलि ने भाष्य लिखा। इसमें उन्होंने कात्यायन एवं अन्य आचार्यों के वार्त्तिकों की भी समीक्षा की है, साथ ही चार सौ से अधिक ऐसे सूत्रों पर भाष्य लिखा, जिन पर वार्त्तिक उपलब्ध नहीं थे। पतञ्जलि ने कात्यायन के अनेक आक्षेपों से पाणिनि की रक्षा की जहाँ उन्हें वार्त्तिककात का मत ठीक दिखाई दिया वहाँ उसे स्वीकार भी कर लिया।

महाभाष्य की रचनाशैली

महाभाष्य की रचनाशैली अत्यन्त सरल, सहज और प्रवाहयुक्त है। शास्त्रीय ग्रन्थ होने के कारण महाभाष्य में पारिभाषिक और शास्त्रीय शब्दों का आना स्वाभाविक ही था, परन्तु महाभाष्यकार ने शास्त्रीय शब्दावली के साथ-साथ लोकव्यवहार की भाषा और मुहावरों का प्रयोग कर अपने ग्रन्थ को दुरूह होने से बचा लिया है। जहाँ विषय गम्भीर है, वहाँ महाभाष्यकार ने बीच-बीच में विनोदपूर्ण वाक्य डाल कर संवादमयी शैली का प्रयोग और लौकिक दृष्टान्तों का समावेश कर प्रसंग को शुष्क और नीरस होने बचा लिया है। महाभाष्य को सरस और आकर्षक बनाने में उनकी भाषा का बहुत योगदान है। उसमें उपमान, न्याय, दृष्टान्त और सूक्तियाँ भी कम मनोरम नहीं हैं। महाभाष्य में उपमान और दृष्टान्तों का कुछ इस ढ़ंग से प्रयोग किया गया है कि पाठक बिना तर्क के वक्ता की बात स्वीकार करने को बाध्य हो जाता है। भाष्य में प्रयुक्त सूक्तियाँ और कहावतें जीवन के वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। भाष्य में प्रयुक्त अनेक शब्द संस्कृत शब्दपौराणिक कोश की अमूल्य निधि हैं। पतञ्जलि ने महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय सिद्धान्तों की विवेचना करते समय यह ध्यान रखा कि वे सिद्धान्त लोगों को सरलता से समझ में आ सकें। इसके लिये उन्होंने लोक-व्यवहार की सहायता ली। प्रत्यय से स्थान को निश्चित करने के लिये वे गाय के बछड़े का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि प्रत्यय का स्थान निश्चित नहीं होगा तो जैसे बछड़ा गाय के कभी आगे व कभी पीछे और कभी उसके बराबर चलने लगता है, ऐसी ही स्थिति प्रत्ययों की हो जायेगी। इस प्रकार पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण को न केवल सर्वजन-सुलभ बनाया अपितु उसमें अपने भौतिक विचारों का समावेश कर उसे दर्शन का रूप भी प्रदान कर दिया। महाभाष्य का आरम्भ ही शब्द की परिभाषा से होता है। शब्द का यह विवाद वैयाकरणों का प्राचीन विवाद था। पाणिनि से पूर्व आचर्य शब्द के नित्यत्व और कार्यत्व पक्ष को मानते थे।

सूत्र-रचना

पाणिनि ने इन दोनों मतों का समन्वय करके सूत्र-रचना की थी। भाष्यकार पतञ्जलि ने दोनों पक्षों को दार्शनिकता की कोटि तक पहुँचा कर उनके सामञ्जस्य के उपयुक्त मार्ग का अन्वेषण कर लिया। उन्होंने स्फोट और ध्वनि इन शब्दों के दो स्वरूप स्वीकार किये और शब्द तथा अर्थ के सम्बन्ध को नित्य माना। व्यावहारिक रूप से भी उन्होंने इस प्रकार शब्द-निष्पत्ति की, जो दोनों पक्षों को मान्य हो सके। तदनुसार ही उन्होंने वर्णों के अर्थतत्त्व और निरर्थकत्व के विषय में भी दोनों पक्षों का समर्थन किया। भाष्यकार ने पद के चार अर्थ माने हैं, गुण, क्रिया, आकृति और द्रव्य। गुण और क्रिया द्रव्य में ही रहती हैं। अत: मुख्यरूप से जाति (आकृति) या व्यक्ति (द्रव्य) में पदार्थ किसे मानना चाहिए, इस विषय में वैयाकरणों के भिन्न मत थे। व्याडि द्रव्याभिधानवादी थे, जबकि आचार्य वाजप्यायन जातिवादि। भाष्यकार ने दोनों पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाल कर दोनों का औचित्य स्वीकार किया है। उनके मत से पाणिनि भी दोनों पक्षों को स्वीकार करते थे। पतञ्जलि के अनुसार शब्द जाति और व्यक्ति दोनों का निर्देशक है। उसमें कभी जाति और कभी व्यक्ति का अर्थ प्रधान रहता है। जब व्यक्ति अर्थप्रधान रहता है, तब जाति गौण हो जाती है और बहुवचनादि का प्रयोग संगत होता है। जब जाति प्रधान होती है और व्यक्ति अप्रधान, तब शब्द में एकवचन का प्रयोग उचित माना जाता है। इस प्रकार 'सम्पन्नो यव:' और 'सम्पन्ना यवा:' दोनों प्रयोग साधु माने जाते हैं।

अद्भुत ग्रन्थ

लेखनशैली की दृष्टि से महाभाष्य संस्कृत वाङ्मय में सबसे अद्भुत ग्रन्थ है। कोई भी ग्रन्थ इसकी रचना-शैली की समता नहीं कर सकता। महामुनि पतञ्जलि के काल में पाणिनीय और प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों की महती ग्रन्थ-राशि विद्यमान थी। पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त ग्रन्थों का सारसंग्रह कर डाला। महाभाष्य का सूक्ष्म पर्यालोचन करने से यह विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल व्याकरण-शास्त्र का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु समस्त विद्याओं का आकार ग्रन्थ है। अतएव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय (2.486) में लिखा है-

कृतेऽथ पतञ्जलिगुरुणा तीर्थदर्शिना।
सर्वेषा न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने॥


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