नज़ीर अकबराबादी: Difference between revisions

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==प्रमुख रचनाएँ==
==प्रमुख रचनाएँ==
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* जब खेली होली नंद ललन
* जब खेली होली नंद ललन
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* रीछ का बच्चा  
* है दुनिया जिसका नाम
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* रोटियाँ  
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*  देख बहारें होली की   
*  देख बहारें होली की   
*  न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की  
*  न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की  
==नज़ीर की एक रचना==
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दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।
दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।
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अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।
क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।</blockquote>
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।
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Revision as of 11:54, 25 December 2012

नज़ीर अकबराबादी
पूरा नाम नज़ीर अकबराबादी
अन्य नाम वली मुहम्मद (वास्तविक नाम)
जन्म 1735
जन्म भूमि दिल्ली
मृत्यु 1830
कर्म-क्षेत्र शायर
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
भाषा उर्दू
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

नज़ीर अकबराबादी (अंग्रेज़ी: Nazeer Akbarabadi जन्म: 1740 - मृत्यु: 1830) उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं। समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में तब्दील हो गई। पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया। ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को ये सज्जन कविता मानने से इन्कार करते रहे। वे उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की सारी हदें कब की पार चुका था। बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं।

प्रमुख रचनाएँ

  • बंजारानामा
  • फ़क़ीरों की सदा
  • कौड़ी न रख कफ़न को
  • जब खेली होली नंद ललन
  • रीछ का बच्चा
  • है दुनिया जिसका नाम
  • रोटियाँ
  • बसंत (I), बसंत (II), बसंत (III)
  • हर हाल में ख़ुश हैं
  • होली की बहार
  • होली पिचकारी
  • दुनिया में नेकी और बदी
  • दूर से आये थे साक़ी
  • देख बहारें होली की
  • न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की

नज़ीर अकबराबादी की एक रचना

दूर से आये थे साक़ी

दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।
मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।
दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।
हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।
बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल।
अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।।
ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।
क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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