ऋषि: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
Line 67: Line 67:
*पांचरात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा संकलित हैं, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है।  
*पांचरात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा संकलित हैं, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है।  


{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

Revision as of 08:30, 21 March 2011

  • 'ॠषि' शब्द की व्युत्पत्ति 'ॠषि' गतौ धातु से[1] मानी जाती है।

ॠषति प्राप्नोति सर्वान् मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा।
ॠषु + इगुपधात् कित्[2] इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च्।

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निवृत्तिरादित:।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता॥

  • वायु पुराण[6] में ॠषि शब्द के अनेक अर्थ बताए गए हैं-

ॠषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ॠषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार 'ॠषि' धातु के चार अर्थ होते हैं-

  • गति,
  • श्रुति,
  • सत्य तथा
  • तपस्।

ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जायें, वही 'ॠषि' होता है। वायु पुराण का यही श्लोक मत्स्य पुराण[7] में किंचित पाठभेद से उपलब्ध होता है।

दुर्गाचार्य की निरुक्ति है- ॠषिर्दर्शनात्।[8] इस निरुक्त से ॠषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- दर्शन करने वाला, तत्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। 'साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:'- यास्क का यह कथन इस निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ॠषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इस शब्द (ॠषि) की व्याख्या इस प्रकार है- 'सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करने वाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ॠषि का 'ॠषित्व' है। इस व्याख्या में ॠषि शब्द की निरुक्ति 'तुदादिगण ॠष गतौ' धातु से मानी गयी है। अपौरुषेय वेद ॠषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ॠषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को श्रुति भी कहा गया है। आदि ॠषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ॠषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते 'ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:' (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र 'अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ॠषि है।


  • यह वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। 'यथार्थ'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है
  1. परम्परा के मूल पुरुष होने से,
  2. उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से,
  3. श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और
  4. इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है। जैसे—
  • कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश 'वंश ब्राह्मण' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा (ऋषि) हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है।
  • इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।
  • कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है।
  • वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।

उक्त निर्देशों को ध्यान में रखने के साथ यह भी समझ लेना चाहिये कि एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मन्त्र से बहिरंग रूप से सम्बद्ध व्यक्ति है।

प्रकार

वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला। जो ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है, वह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं-

  1. व्यास आदि महर्षि
  2. भेल आदि परमर्षि
  3. कण्व आदि देवर्षि
  4. वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि
  5. सुश्रुत आदि श्रुतर्षि
  6. ऋतुपर्ण आदि राजर्षि
  7. जैमिनि आदि काण्डर्षि

रत्नकोष में भी कहा गया है-

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात- ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं।

सामान्यत: वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही। ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्राय: त्वष्टा से की गई है। जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे। निसंदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। साधारणतया मंत्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मंत्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ। प्रत्येक वैदिक सुक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋषिबण पवित्र पूर्व काल के प्रति निधि हैं तथा साधु माने गये हैं। उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है।

बृहदारण्यक उपनिषद

बृहदारण्यक उपनिषद में उनके नाम गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि बताये गये हैं।

ऋग्वेद

ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक, वसिष्ठ, व्यश्व, तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं।

अथर्ववेद

अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है। जिसमें अंगिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वसिष्ठ, भारद्वाज, गविष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उशना काव्य, गौतम तथा मुदगल के नाम सम्मिलित हैं।

वैदिक काल

वैदिक काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था। अश्वमेध यज्ञ के एक मुख्य अंग 'ब्रह्मेद्य' (समस्यापूर्ति) का यह एक अंग था। उपनिषद काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही। इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य, जो विदेह के राजा जनक की राजसभा में रहते थे।

ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्षेय कहा जाता है। यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अत: इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना। उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद भाषा और टीका ही सम्भव है।

चित्रशिखण्डी ऋषि

  • सप्त ऋषियों का सामूहिक नाम है।
  • पांचरात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा संकलित हैं, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिद्धान्त कौमुदी सूत्र-संख्या-1827 के अनुसार
  2. 4/119
  3. वयु पुराण, 7/75
  4. मत्स्य पुराण, 145/83
  5. ब्रह्माण्ड पुराण, 1/32/87
  6. 59/79
  7. अध्याय 145, श्लोक 81
  8. निरुक्त 2/11

संबंधित लेख