माधवराव प्रथम: Difference between revisions
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Revision as of 11:46, 16 October 2011
- माधवराव प्रथम (1761-1772 ई.) पेशवा बालाजी बाजीराव का दूसरा लड़का था।
- पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की भयानक पराजय के बाद वह पेशवा बना था। उस समय उसकी उम्र केवल 17 वर्ष थी।
- प्रारम्भ में उसका चाचा रघुनाथराव उसकी ओर से शासन करता रहा, परन्तु शीघ्र ही उसने शासनसूत्र अपने हाथ में ले लिया।
- धीरे-धीरे उसने पानीपत की हार के फलस्वरूप पेशवा की खोई हुई सत्ता और प्रतिष्ठा फिर से स्थापित कर दी।
- निज़ाम को दो बार पराजय का मुँह देखना पड़ा और पेशवा की शक्ति तोड़ देने का उसका प्रयत्न विफल रहा।
- मैसूर का हैदर अली भी, जिसने दक्षिण में मराठों के इलाक़ों पर दख़ल करना शुरू कर दिया था, दो बार पराजित हुआ।
- बरार का भोंसला राजा भी, जो पेशवा के विरुद्ध निज़ाम और हैदर अली से संगठन किये हुए था, पराजित हुआ और उसने पेशवा की अधीनता स्वीकार कर ली।
- पेशवा माधवराव को सबसे बड़ी सफलता उत्तरी भारत में मिली, जहाँ 1771-72 ई. में उसकी सेना ने मालवा तथा बुन्देलखण्ड पर फिर से अधिकार कर लिया।
- राजपूत राजाओं से चौथ वसूल की गई, जाटों और रुहेलों का भी दमन किया गया।
- दिल्ली पर फिर से दख़ल कर लिया गया और भगोड़े मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय को, जो इलाहाबाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पेन्शन पर जीवन व्यतीत कर रहा था, फिर से दिल्ली के तख़्त पर बैठाया गया।
- ऐसा प्रतीत हो रहा था कि, पानीपत की तीसरी लड़ाई के फलस्वरूप मराठों की शक्ति को जितनी क्षति पहुँची थी, उस सब की भरपाई कर ली गई है।
- इसी समय अचानक 1772 ई. में महान पेशवा माधवराव प्रथम का देहान्त हो गया।
- इस बारे में 'ग्राण्ट डफ़' ने लिखा है कि, 'मराठा साम्राज्य के लिए पानीपत का मैदान उतना घातक सिद्ध नहीं हुआ, जितना इस श्रेष्ठ शासक का असामयिक देहावसान'।
- माधवराव प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 18वीं सदी के अन्तिम तीस वर्षों का मराठा राज्य का इतिहास 'महादजी सिन्धिया' (महादजी शिन्दे) और नाना फड़नवीस की गतिविधियों का वर्णन है।
- महादजी उत्तर में तथा नाना फड़नवीस दक्षिण भारत में प्रभावशाली रहे।
- मराठा पेशवा केवल नाममात्र का अधिकारी रह गया और मराठा नेताओं में शक्ति के लिए संघर्ष होता रहा। जिसका पूरा लाभ अंग्रेज़ों ने उठाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 358।