मंदार पर्वत

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मंदार पर्वत का उल्लेख पौराणिक धर्म ग्रंथों में हुआ है। समुद्र मंथन की जिस घटना का उल्लेख हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में हुआ है, उनके अनुसार देवताओं और असुरों ने मंदार पर्वत पर वासुकी नाग को लपेट कर मंथन के समय मथानी की तरह प्रयोग किया गया था। सदियों से खड़ा मंदार पर्वत आज भी लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस पर्वत को 'मंदराचल' या 'मंदर पर्वत' भी कहा जाता है।

स्थिति

यह प्रसिद्ध पर्वत बिहार राज्य के बाँका ज़िले के बौंसी गाँव में स्थित है। इस पर्वत की ऊँचाई लगभग 700 से 750 फुट है। यह भागलपुर से 30-35 मील की दूरी पर स्थित है। जहाँ रेल या बस किसी से भी सुविधापूर्वक जाया जा सकता है। बौंसी से इसकी दूरी क़रीब 5 मील (लगभग 8 कि.मी.) की है।

पौराणिक महत्त्व

  • हिन्दू धर्म में मंदार पर्वत का बड़ा ही धार्मिक महत्त्व है। माना जाता है कि जब देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तो मंदार पर्वत को मथनी और उस पर वासुकी नाग को लपेट कर रस्सी का काम लिया गया था। पर्वत पर अभी भी धार दार लकीरें दिखती हैं, जो एक दूसरे से क़रीब छह फुट की दूरी पर बनी हुई हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी गाड़ी के टायर के निशान हों। ये लकीरें किसी भी तरह मानव निर्मित नहीं लगतीं। जन विश्वास है कि समुद्र मंथन के दौरान वासुकी के शरीर की रगड़ से यह निशान बने हैं। मंथन के बाद जो कुछ भी हुआ, वह एक अलग कहानी है, किंतु अभी भी पर्वत के ऊपर शंख-कुंड़ में एक विशाल शंख की आकृति स्थित है। कहते हैं भगवान शिव ने इसी महाशंख से विष पान किया था।
  • पुराणों के अनुसार एक बार भगवान विष्णुजी के कान के मैल से मधु-कैटभ नाम के दो भाईयों का जन्म हुआ। लेकिन धीरे-धीरे इनका उत्पात इतना बढ गया कि सारे देवता इनसे भय खाने लगे। दोनों भाइयों का उत्पात बहुत अधिक बढ़ जाने के बाद अंतत: इन्हें खत्म करने के लिए भगवान विष्णु को इनसे युद्ध करना पड़ा। इसमें भी मधु का अंत करने में विष्णुजी परेशान हो गये। हजारों साल के युद्ध के बाद अंत में उन्होंने उसका सिर काट कर उसे मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया, किंतु उसकी वीरता से प्रसन्न होकर उसके सिर की आकृति पर्वत पर बना दी। यह आकृति यहाँ आने वाले भक्तों के लिए दर्शनीय स्थल बन चुकी है।

इतिहास

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार मंदार पर्वत की अधिकांश मूर्तियाँ उत्तर गुप्त काल की हैं। इस काल में मूर्तिकला की काफ़ी सन्नति हुई थी। मंदार के सर्वोच्च शिखर पर एक मंदिर है, जिसमें एक प्रस्तर पर पद चिह्न अंकित है। बताया जाता है कि ये पद चिह्न भगवान विष्णु के हैं। किंतु जैन धर्म के मानने वाले इसे प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के चरण चिह्न बतलाते हैं और पूरे विश्वास और आस्था के साथ दूर-दूर से इनके दर्शन करने आते हैं। एक ही पदचिह्न को दो संप्रदाय के लोग अलग-अलग रूप में मानते हैं, लेकिन विवाद कभी नहीं होता। इस प्रकार यह दो संप्रदाय का संगम भी कहा जा सकता है। इसके अलावा पूरे पर्वत पर यत्र-तत्र अनेक सुंदर मूर्तियाँ हैं, जिनमें शिव, सिंह वाहिनी दुर्गा, महाकाली, नरसिंह आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। चतुर्भुज विष्णु और भैरव की प्रतिमा अभी भागलपुर संग्रहालय में रखी हुई हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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