भारतकोश सम्पादकीय 22 फ़रवरी 2013

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प्रतीक्षा की सोच -आदित्य चौधरी


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पुराने समय की बात है एक राजा के राज्य में बेहद सुंदर बाग़ीचा था। यह कोई मामूली बाग़ीचा नहीं था। इसे देखने दुनिया भर से लोग आया करते थे। इस बाग़ीचे के इतने सुंदर होने का कारण था 'रमण'। रमण ही इस सुंदर उद्यान का कर्ता-धर्ता था। बूढ़ा हो रहा था रमण और उसे चिंता सता रही थी कि उसके बाद बाग़ का क्या होगा ?
आख़िरकार उसने राजा से कहा-
"महाराज ! मैं वृद्ध हो गया हूँ और मेरे जीवन का क्या पता कि आज हूँ कल नहीं... मेरे बाद उद्यान का क्या होगा यही चिंता मुझे खाए जा रही है।"
"तुमने सोचा क्या है रमण ?"
"महाराज ! मैं यात्रा पर जाना चाहता हूँ, जिससे मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो आपके इस विश्व प्रसिद्ध उद्यान की सही देखभाल कर सके। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं यात्रा पर चला जाउँ ?"
इस तरह रमण देश की यात्रा पर निकल गया...
अनेक नगरों का भ्रमण करने के बाद वह काशी पहुँचा। जब काशी में भी उसे अपने मापदण्ड के अनुसार कोई व्यक्ति नहीं मिला तो वह निराश हो कर वापस लौटने लगा। रास्ते में तेज़ धूप थी और भयंकर गर्मी पड़ रही थी। चलते-चलते उसने देखा कि कुछ मज़दूर पत्थर तोड़ रहे हैं। उन मज़दूरों में एक महिला भी थी जो सभी के साथ बराबर काम कर रही थी।
रमण ने अपनी गाड़ी रुकवाई और एक मज़दूर से पूछा-
"इतनी कड़ी धूप में क्या कर रहे हो भाई?"
"करेंगे क्या... पत्थर तोड़ रहे हैं।" मज़दूर निराशा से बोला
थोड़ा आगे चलकर उसने एक और मज़दूर से भी यही सवाल किया तो दूसरे मज़दूर ने जवाब दिया
"रोज़ी रोटी कमा रहे हैं सरकार और हमारे पास करने को है ही क्या ?"
जब रमण की गाड़ी उस महिला के पास पहुँची तो एक बार फिर रमण ने वही सवाल दोहराया
महिला ने पत्थर तोड़ना रोककर रमण से कहा-
"हम यहाँ एक भव्य मंदिर बना रहे हैं, जो अपने-आप में विलक्षण होगा और विशाल भी होगा। यात्रियों को आश्रय मिलेगा साथ ही स्वस्थ वातावरण भी। जब यह बन जाए तो आप देखने अवश्य आना"
इतना सुनते ही रमण उस महिला को परिवार सहित राजा के पास ले गया और महिला को उद्यान की देखरेख की ज़िम्मेदारी दे दी।
जब राजा को पता चला तो राजा ने पूछा-
"रमण ! तुमने एक अनपढ़ मज़दूर महिला को उद्यान की ज़िम्मेदारी दे दी है इसके पीछे क्या कारण है ?"
"महाराज ! मेरे पास उद्यान की देख-भाल के लिए वनस्पति शास्त्री से लेकर भूमि-शास्त्री तक सभी विद्वान् सदैव उपस्थित रहते हैं। मुझे आवश्यकता थी तो एक ऐसे व्यक्ति की जो कि किसी भी कार्य को करने को पूरी तरह से सकारात्मक दृष्टिकोण का गुण रखता हो क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही सृजनकर्ता हो सकता है। चिलचिलाती धूप में, मंदिर के लिए पत्थर तो वहाँ सभी मज़दूर तोड़ रहे थे लेकिन इस महिला का, पत्थर तोड़ने के कार्य को 'मंदिर निर्माण कार्य' समझ कर मेहनत करना एक सकारात्मक सोच का सबसे अच्छा उदाहरण है। महाराज ! महान् अर्थशास्त्री चाणक्य ने लिखा है कि ज्ञान प्राप्त करने से कोई व्यक्ति योग्य हो सकता है गुणी नहीं हो सकता। यही ध्यान में रखते हुए मैंने जहाँ योग्य विद्वानों को उद्यान के लिए चुना,  वहीं पर कम से कम एक गुणी व्यक्ति को भी चुना।"

आइए अब भारतकोश पर चलते हैं। 
सकारात्मक सोच का मतलब क्या है ? किसे कहते हैं सकारात्मक सोच और इसकी आदत कैसे डाली जाए ? 
एक बार महान् दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने प्रश्न किया-
"मैं अपने माता-पिता की इज़्ज़त करना चाहता हूँ और उन्हें सम्मान देना चाहता हूँ तो मुझे क्या करना चाहिए ?"
इसके उत्तर में कृष्णमूर्ति ने कहा-
"तुम उनका अपमान करना बंद कर दो तो उनका सम्मान अपने-आप हो जाएगा। यदि तुम सदैव इस बात का ध्यान रखो कि कहीं भूल से भी मेरे माता-पिता का अपमान तो नहीं हो गया तो वे स्वयं ही सम्मानित हो जाएँगे।"
यही बात सकारात्मक सोच पर भी लागू होती है। यदि हम नकारात्मक रवैया छोड़ दें तो सकारात्मक सोच अपने-आप ही बन जाती है लेकिन कैसे छोड़ें नकारात्मक सोच ?

नकारात्मक सोच के कुछ उदाहरण-
  • स्पर्धा में स्वयं को जिताने की बजाय दूसरे को हराने की सोच
  • प्रेम में प्रेमी या प्रेमिका का प्रेम पाने की बजाय प्रेमी या प्रेमिका को पाने (हासिल करने) की इच्छा
  • अपनी कमज़ोरी छुपाने के लिए दूसरे की शिकायत करना
  • व्यापार में 'शॉर्टकट' तलाश करना या ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना
  • अपनी और दूसरों की सुरक्षा के प्रति लापरवाह रहना
  • तुरंत परिणाम की उम्मीद में हर समय अधीर रहना 
  • जिससे काम हो सिर्फ़ उसी से मिलने की इच्छा रखना

... तमाम ऐसे ही उदाहरण हैं जिनसे हमारी नकारात्मक सोच ज़ाहिर होती है।
सकारात्मक सोच का व्यक्ति बनने के बहुत उपाय हैं जिनमें से एक है 'धैर्य'। धैर्य को समझना ज़रूरी है। यदि हम बिना बैचैन हुए किसी का इंतज़ार कर सकते हैं तो हम धैर्यवान हैं। सहज होकर, सानंद प्रतीक्षा करना, सबसे आवश्यक गुण है। यदि यह गुण हमारे भीतर नहीं है तो हमें यह योग्यता पैदा करनी चाहिए। प्रतीक्षा किसी की भी हो सकती है; किसी व्यक्ति की, किसी सफलता की या किसी नतीजे की। प्रतीक्षा करने में बेचैनी होने से हमारी सोच का पता चलता है। प्रतीक्षा करने में यदि बेचैनी होती है तो यह सोच नकारात्मक सोच है। प्रतीक्षा का आनंद लेने वाला ही सकारात्मक व्यक्ति होता है।
बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति भी बहुत कम ही होते हैं। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। वैसे भी सहज हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त कर लेना है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। ख़ैर यहाँ तो हम सकारात्मक सोच की ही बात कर रहे हैं।
प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है।

एक उदाहरण देखें

एक बार एक संत और उनका एक शिष्य एक नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक स्त्री मूल्यवान वस्त्र और आभूषण पहने नदी के किनारे खड़ी है। पास पहुँचने पर स्त्री ने संत से कहा-
"क्षमा करें प्रभु ! कृपया मेरी सहायता करें। मैं एक नृत्यांगना हूँ और लोगों का मनोरंजन करना और नगरवधू (वेश्या) की तरह जीवन जीना ही मेरी नियति है। आज सायंकाल, नदी के पार, यहाँ के नगर श्रेष्ठि (नगर सेठ) के यहाँ मेरे नृत्य का आयोजन है। मेरा नाव वाला आज आया नहीं है। मैं चलकर भी नदी पार कर सकती हूँ क्योंकि नदी में पानी कम है किन्तु मेरे वस्त्र भीग जाएँगे और मेरा नृत्य कार्यक्रम नहीं हो पाएगा। कृपया नदी पार करने में मेरी सहायता करें। इस दीन नगर वधू पर दया करें प्रभु!"
इससे पहले कि संत कुछ कहते, उनके शिष्य ने कहा-
"लगता है तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है जो तुम जैसी वेश्या साधु-संतों से यह अपेक्षा रखती है कि तुमको अंक में भरकर (गोदी में उठाकर) नदी पार करवाई जाए। हमारे लिए तो तुमको स्पर्श करना भी पाप है। तुमको ऐसा दु:साहस नहीं करना चाहिए।" 
इतना कहकर शिष्य आगे बढ़ गया किन्तु संत वहीं खड़े रहे और शिष्य को आदेश दिया-
"इसे अविलम्ब अपने अंक में लेकर नदी पार करवाओ, यह मेरी आज्ञा है शिष्य !" 
शिष्य ने आज्ञा का पालन किया। कुछ देर बाद जब गुरु-शिष्य एक स्थान पर विश्राम करने को रुके तो शिष्य ने पूछा-
"गुरु जी ! आपने उस स्त्री को नदी पार कराने के लिए क्यों कहा।"
"कौन सी स्त्री ?" गुरु ने आश्चर्य प्रकट किया
"वही सुन्दर स्त्री, जो गोरी थी, जिसकी बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें थीं, लाल वस्त्र पहने थी, मैं उसी की बात कर रहा हूँ। लेकिन क्या आपको याद नहीं कि एक स्त्री को हमने नदी पार कराई थी।" शिष्य ने जिज्ञासा प्रकट की।
संत ने शांत भाव से कहा-
"मुझे यह तो याद है कि मैंने किसी की सहायता की लेकिन किसकी सहायता की यह याद नहीं क्योंकि यह बात में वहीं भूल गया था जिसे तुम अब तक ढो रहे हो। मेरे लिए यह केवल एक कार्य था जो मुझे समाज की आवश्यकता के लिए करना था, जिसके लिए मना करके मैं स्वयं को मनुष्यता की श्रेणी से गिरा नहीं सकता। तुमको तो उसका चेहरा तक याद है और मुझे उसका स्त्री होना भी नहीं। यदि तुमने भी यह सोचा होता कि तुम गुरु की आज्ञा का पालन मात्र कर रहे हो तो तुम्हारा ध्यान भी उसके चेहरे और वस्त्रों पर नहीं जाता।"
यह उदाहरण जीवन की पूर्ण सकारात्मक सोच को परिभाषित करता है। यदि हम सहज होकर निर्लिप्त भाव से अपनी भूमिका इस दुनिया में जीवन भर निभा सकें तो ही यह निश्चित है कि हमारी सोच सकारात्मक है।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


जश्न मनाया जाय -आदित्य चौधरी

उनकी ख़्वाहिश, कि इक जश्न मनाया जाय
छोड़कर मुझको हर इक दोस्त बुलाया जाय

रौनक़-ए-बज़्म[1] के लायक़ मेरी हस्ती ही नहीं
यही हर बार मुझे याद दिलाया जाय

कभी जो शाम से बेचैन उनकी तबीयत हो
किसी मेरे ही ख़त को पढ़ के सुनाया जाय

कहीं जो भूल से भी ज़िक्र मेरा आता हो
यही ताकीद[2] कि मक़्ता[3] ही न गाया जाय

मेरे वो ख़ाब में ना आएँ बस इसी के लिए
ताउम्र मुझको अब न सुलाया जाए

कभी सुकून से गुज़रा था जहाँ वक़्त मेरा
उसी जगह मुझे हर रोज़ रुलाया जाए

क़ब्र मेरी हो, जिस पे उनका लिखा पत्थर हो
उन्हीं का ज़िक्र हो जब मेरा जनाज़ा जाए

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बज़्म= सभा, गोष्ठी, महफ़िल
  2. ताकीद = कोई बात ज़ोर देकर कहना, हठ, ज़िद
  3. ग़ज़ल के आखरी शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं।


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