असमिया साहित्य: Difference between revisions

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==साहित्य काल==
सन 1200 से 1449 ईस्वी तक के साहित्य को प्राक्वैष्णवकालीन साहित्य कहा जाता है। सन 1450 से 1650 के बीच के साहित्य को वैष्णवकालीन साहित्य नाम दिया गया है। 1651 से [[1925]] तक के साहित्य को गद्य या बुरंजीकालीन साहित्य के नाम से जाना जाता है तथा उसके बाद प्रारम्भ होता है असमिया साहित्य का आधुनिक काल, जो [[1947]] में [[भारत]] के स्वतंत्र होने तक चला। उसके बाद के साहित्य को स्वातंत्र्योत्तर काल का साहित्य कहा जाता है।<ref>{{cite web |url=http://anypursuit.org/hindi/tiki-index.php?page=%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF|title=असमिया साहित्य|accessmonthday=19 मई|accessmonthday= 2014|accessyear= |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
==रचनाएँ==
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==आधुनिक लेखक व कृतियाँ==
19वीं और 20वीं शताब्दियों में असमी साहित्य हेमचंद्र बरुआ के साथ शुरू हुआ, जो व्यंग्यार और नाटककार थे और उन्होंने 'बाहिरी रंग-छंग', 'भीतरे कौवाभातुरी' ([[1861]]) की रचना की थी। आरंभिक आधुनिक लेखकों में सबसे विलक्षण लक्ष्मीनाथ बेज़बरुआ थे, जिन्होंने [[1889]] में साहित्यिक मासिक [[पत्रिका]] 'जोनाकी' (चांदनी) की शुरुआत की। उन्हें [[असमिया भाषा]] और लेखन में 19वीं [[शताब्दी]] के स्वच्छंदतावाद को शामिल करने का श्रेय जाता है। बाद में 20वीं शताब्दी के लेखकों ने 'जोनाकी' के आदर्शों को बनाए रखने की कोशीश की। कथाकरों में उल्लेखनीय रचनाकार महीचंद्र बोरा और होलीराम डेका हैं। [[1940]] में मनोविज्ञान की और झुकाव हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध ने साहित्यिक विकास को रोक दिया। जब लेखकों ने युद्ध के बाद फिर से काम शुरू किया तो पहले से बिल्कुल अलग, प्रायोगिक [[छंद]] और [[उपन्यास]] विद्या का विकास हुआ। [[2002]] में इन्दिरा गोस्वामी को उनके उपन्यासों के लिए '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' प्रदान किया गया।
 
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असमिया साहित्य असमिया भाषा में लिखे जाने वाले साहित्य को कहा जाता है। इसका उद्भव तेरहवीं शताब्दी से माना जाता है। इस साहित्य का प्रारम्भिक रूप चर्यापद के दोहों में मिलता है, अर्थात् छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी के बीच। बारहवीं शताब्दी के अन्त तक लोक गाथाओं, गीतों आदि मौखिक रूप में ही यह था। 'मणिकोंवर-फुलकोंवर' गीत एक पारंपरिक लोक गाथा ही है। डाक-वचन, तंत्र-मंत्र आदि भी मिलते हैं, परन्तु ये स्रोत मात्र हैं। वास्तव में असमिया लिखित साहित्य तेरहवीं शताब्दी से ही मिलता है।

साहित्य काल

सन 1200 से 1449 ईस्वी तक के साहित्य को प्राक्वैष्णवकालीन साहित्य कहा जाता है। सन 1450 से 1650 के बीच के साहित्य को वैष्णवकालीन साहित्य नाम दिया गया है। 1651 से 1925 तक के साहित्य को गद्य या बुरंजीकालीन साहित्य के नाम से जाना जाता है तथा उसके बाद प्रारम्भ होता है असमिया साहित्य का आधुनिक काल, जो 1947 में भारत के स्वतंत्र होने तक चला। उसके बाद के साहित्य को स्वातंत्र्योत्तर काल का साहित्य कहा जाता है।[1]

रचनाएँ

असमिया साहित्य भारत में असमिया भाषा की रचनाओं का संसार है। निर्विवाद रूप से असमी मानी जाने वाली भाषा में आरंभिक रचना मेना सरस्वती (13वीं शताब्दी) की 'प्रह्लाद-चरित्र' है। इसमें अत्यंत संस्कृतनिष्ठ शैली में विष्णुपुराण की कथा है, जिसमें बताया गया है कि पौराणिक राजा प्रह्लाद की विष्णु के प्रति भक्ति और विश्वास ने कैसे उन्हें विनाश से बचाया और नैतिक व्यवस्था की स्थापना की। पहले महान् असमी कवि कविराज माधव कंदाली (14वीं शताब्दी) थे, जिन्होंने संस्कृत रामायण का अनुवाद किया और भगवान कृष्ण की कथा 'देवजीत' की रचना की। असमिया भाषा में भी 'भक्ति आंदोलन' के साथ व्यापक साहित्यिक उफान आया; इस काल के सबसे प्रख्यात कवि शंकरदेव (मृत्यु 1568) थे, जिनकी 27 काव्य तथा भक्ति रचनाएं आज भी विद्यमान हैं और जिन्होंने माधवदेवी जैसे कवियों को महान् सौंदर्य के गीतों के लेखक की प्रेरणा दी। असमिया साहित्य की विशेषता बुरांजी, जो अहोम वंशियों द्वारा बर्मा से असम लाई गई गद्य शैली में लिखे विवरण हैं, ये असमिया भाषा में 16वीं सदी से आरंभ हुए; जबकी अहोम भाषा में ये पहले ही लिखे जा चुके थे।

आधुनिक लेखक व कृतियाँ

19वीं और 20वीं शताब्दियों में असमी साहित्य हेमचंद्र बरुआ के साथ शुरू हुआ, जो व्यंग्यार और नाटककार थे और उन्होंने 'बाहिरी रंग-छंग', 'भीतरे कौवाभातुरी' (1861) की रचना की थी। आरंभिक आधुनिक लेखकों में सबसे विलक्षण लक्ष्मीनाथ बेज़बरुआ थे, जिन्होंने 1889 में साहित्यिक मासिक पत्रिका 'जोनाकी' (चांदनी) की शुरुआत की। उन्हें असमिया भाषा और लेखन में 19वीं शताब्दी के स्वच्छंदतावाद को शामिल करने का श्रेय जाता है। बाद में 20वीं शताब्दी के लेखकों ने 'जोनाकी' के आदर्शों को बनाए रखने की कोशीश की। कथाकरों में उल्लेखनीय रचनाकार महीचंद्र बोरा और होलीराम डेका हैं। 1940 में मनोविज्ञान की और झुकाव हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध ने साहित्यिक विकास को रोक दिया। जब लेखकों ने युद्ध के बाद फिर से काम शुरू किया तो पहले से बिल्कुल अलग, प्रायोगिक छंद और उपन्यास विद्या का विकास हुआ। 2002 में इन्दिरा गोस्वामी को उनके उपन्यासों के लिए 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्रदान किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. असमिया साहित्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2014, ।

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