देख बहारें होली की -नज़ीर अकबराबादी: Difference between revisions

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Latest revision as of 11:53, 27 December 2012

देख बहारें होली की -नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
यू-ट्यूब लिंक जब फागुन रंग झमकते हों
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।

        हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे।
        कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे।
        दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे।
        कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे।
        कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की॥

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥

        और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के।
        हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के।
        कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के।
        कुछ लचकें शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के।
        कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की॥

यह धूम मची हो होली की, और ऐश मज़े का झक्कड़ हो।
उस खींचा खींचा घसीटी पर, भड़ुए रंडी का फक़्कड़ हो।
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुल्फ़ा कक्कड़ हो।
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो।
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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