शिवाजी का राजस्व प्रशासन: Difference between revisions

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[[चित्र:Fort-Raigarh-Maharashtra.jpg|thumb|250px|रायगढ़ क़िला, महाराष्ट्र]] शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं, क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। बीजापुर के सुल्तान, मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे, जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी, किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था, किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्होंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था।

शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी का देहांत हो गया, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था, जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था, जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल ख़राब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। [[चित्र:Shivaji-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, रायगढ़|250px]] यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया; यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा, क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे- 'सरदेशमुखी' और 'चौथ'। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं।

रानाडे के अनुसार यह "सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था, जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था, जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी। मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।"



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