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*मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे [[पूर्व मीमांसा]] कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है। | *मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे [[पूर्व मीमांसा]] कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप ([[कर्मकाण्ड]]) के विवेचन का शास्त्र है। | ||
*दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं। | *दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या [[वेदान्त]] भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं। | ||
उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध [[भारत]] के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा=ब्रह्म) है। | उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध [[भारत]] के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को '[[वेदान्तसूत्र]]', '[[ब्रह्मसूत्र]]' एवं '[[शारीरकसूत्र]]' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म ([[आत्मा]]=[[ब्रह्म]]) है। | ||
'वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है- | 'वेदान्तसूत्र' [[वादरायण]] के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है- | ||
[[ | [[ब्रह्म]] निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उदगम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत उसकी लीला है। विश्व जो ब्रह्म द्वारा समय-समय पर उदभत होता है, उसका न आदि है और न अंत है। वेद भी अनंत हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। | ||
जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों ([[उपनिषद|उपनिषदों]]) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। | जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों ([[उपनिषद|उपनिषदों]]) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए [[पुनर्जन्म]] होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। | ||
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Revision as of 04:41, 1 December 2010
हिन्दू चिन्तन की छ: प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। मीमांसा का अर्थ है कि खोह, छानबीन अथवा अनुसंधान।
- मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है।
- दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं।
उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा=ब्रह्म) है।
'वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है-
ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उदगम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत उसकी लीला है। विश्व जो ब्रह्म द्वारा समय-समय पर उदभत होता है, उसका न आदि है और न अंत है। वेद भी अनंत हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उपनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
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