राखी -नज़ीर अकबराबादी: Difference between revisions
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मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।। | मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।। | ||
हुई है ज़ेबो ज़ीनत<ref> | हुई है ज़ेबो ज़ीनत<ref>शृंगार और सजावट</ref>और ख़ूबाँ<ref>सुंदर स्त्रियाँ</ref> को तो राखी से । | ||
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले । | व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले । | ||
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके । | दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके । |
Revision as of 13:21, 25 June 2013
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चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी । |
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