नवमानववाद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replacement - " जगत " to " जगत् ")
m (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ")
Line 1: Line 1:
'''नवमानववाद''' एक प्रमुख विचारधारा है, जिसने पश्चिमी जगत् में [[मध्य काल]] की समाप्ति करने में विशेष योगदान दिया। मध्य काल में धार्मिक घटाटोप के कारण समस्त मूल्यों और प्रतिमानों का स्रोत किसी-न-किसी दिव्य सत्ता को माना जाता था और मनुष्य को आरम्भ से ही उस दिव्य प्रतिमान से नीचे गिरा हुआ प्राणी समझा जाता था। मानववादियों ने इस मान्यता का तिरस्कार किया।
'''नवमानववाद''' एक प्रमुख विचारधारा है, जिसने पश्चिमी जगत् में [[मध्य काल]] की समाप्ति करने में विशेष योगदान दिया। मध्य काल में धार्मिक घटाटोप के कारण समस्त मूल्यों और प्रतिमानों का स्रोत किसी-न-किसी दिव्य सत्ता को माना जाता था और मनुष्य को आरम्भ से ही उस दिव्य प्रतिमान से नीचे गिरा हुआ प्राणी समझा जाता था। मानववादियों ने इस मान्यता का तिरस्कार किया।
==विचार==
==विचार==
मानववादियों ने यह घोषित किया कि सम्पूर्णतम मनुष्य ही मनुष्य का प्रतिमान है। इसके लिए मानववादियों ने एक ओर मानवोपरि दिव्य सत्ता का निषेध किया और दूसरी ओर अमानवीय यांत्रिकता का। मानववादी यह मानते हैं कि मनुष्य में जो पाशविक है और जो दिव्य है, उन दोनों के मध्य में कुछ ऐसा है, जो पूर्णत: मानवीय है और उसी को नैतिकता, [[कला]], सौन्दर्य बोध तथा अन्य आचार-विचार का प्रतिमान मानना चाहिए। कालांतर में मानववाद के अंतर्गत बहुत-से विचार और बहुत प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाहित होती गयीं, जिनमें से बहुत-सी तो परस्पर विरोधी भी थीं और कभी-कभी मानवता की ऐसी व्याख्याएँ उपस्थित करती थीं, जो एक-दूसरे से पृथक थीं।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=314|url=}}</ref>
मानववादियों ने यह घोषित किया कि सम्पूर्णतम मनुष्य ही मनुष्य का प्रतिमान है। इसके लिए मानववादियों ने एक ओर मानवोपरि दिव्य सत्ता का निषेध किया और दूसरी ओर अमानवीय यांत्रिकता का। मानववादी यह मानते हैं कि मनुष्य में जो पाशविक है और जो दिव्य है, उन दोनों के मध्य में कुछ ऐसा है, जो पूर्णत: मानवीय है और उसी को नैतिकता, [[कला]], सौन्दर्य बोध तथा अन्य आचार-विचार का प्रतिमान मानना चाहिए। कालांतर में मानववाद के अंतर्गत बहुत-से विचार और बहुत प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाहित होती गयीं, जिनमें से बहुत-सी तो परस्पर विरोधी भी थीं और कभी-कभी मानवता की ऐसी व्याख्याएँ उपस्थित करती थीं, जो एक-दूसरे से पृथक् थीं।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=314|url=}}</ref>


पिछली अर्ध शताब्दी में कई ऐसी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो नवमानववाद को अपना आधारभूत सिद्धांत मानती रही हैं। इन विचारधाराओं में मानवता को एक स्थिर और सदा एक-सा रहने वाला तत्त्व न मानकर चिरंतन विकासशील तत्त्व माना जाता है और उसी सिद्धांत के अनुसार वर्तमान मनुष्य को विकास की एक कड़ी मानकर भावी मनुष्य को इस यात्रा की आगामी कड़ी माना जाता है। उसके विकास में सहायक होने वाले आचार-विचार को ही वर्तमान मनुष्य के लिए आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है। उदाहरण के लिए, अरविन्द यह मानते हैं कि जैसे निरंतर विकास की शृंखला हमें पशुता से मनुष्यता की स्थिति में लाई है, वैसे ही वह हमें इसके आगे भी ले जायगी और आगामी मनुष्य में वे कतिपय आंतरिक शक्तियों का विकास अनुमानित करते हैं।<ref name="aa"/>
पिछली अर्ध शताब्दी में कई ऐसी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो नवमानववाद को अपना आधारभूत सिद्धांत मानती रही हैं। इन विचारधाराओं में मानवता को एक स्थिर और सदा एक-सा रहने वाला तत्त्व न मानकर चिरंतन विकासशील तत्त्व माना जाता है और उसी सिद्धांत के अनुसार वर्तमान मनुष्य को विकास की एक कड़ी मानकर भावी मनुष्य को इस यात्रा की आगामी कड़ी माना जाता है। उसके विकास में सहायक होने वाले आचार-विचार को ही वर्तमान मनुष्य के लिए आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है। उदाहरण के लिए, अरविन्द यह मानते हैं कि जैसे निरंतर विकास की शृंखला हमें पशुता से मनुष्यता की स्थिति में लाई है, वैसे ही वह हमें इसके आगे भी ले जायगी और आगामी मनुष्य में वे कतिपय आंतरिक शक्तियों का विकास अनुमानित करते हैं।<ref name="aa"/>

Revision as of 13:25, 1 August 2017

नवमानववाद एक प्रमुख विचारधारा है, जिसने पश्चिमी जगत् में मध्य काल की समाप्ति करने में विशेष योगदान दिया। मध्य काल में धार्मिक घटाटोप के कारण समस्त मूल्यों और प्रतिमानों का स्रोत किसी-न-किसी दिव्य सत्ता को माना जाता था और मनुष्य को आरम्भ से ही उस दिव्य प्रतिमान से नीचे गिरा हुआ प्राणी समझा जाता था। मानववादियों ने इस मान्यता का तिरस्कार किया।

विचार

मानववादियों ने यह घोषित किया कि सम्पूर्णतम मनुष्य ही मनुष्य का प्रतिमान है। इसके लिए मानववादियों ने एक ओर मानवोपरि दिव्य सत्ता का निषेध किया और दूसरी ओर अमानवीय यांत्रिकता का। मानववादी यह मानते हैं कि मनुष्य में जो पाशविक है और जो दिव्य है, उन दोनों के मध्य में कुछ ऐसा है, जो पूर्णत: मानवीय है और उसी को नैतिकता, कला, सौन्दर्य बोध तथा अन्य आचार-विचार का प्रतिमान मानना चाहिए। कालांतर में मानववाद के अंतर्गत बहुत-से विचार और बहुत प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाहित होती गयीं, जिनमें से बहुत-सी तो परस्पर विरोधी भी थीं और कभी-कभी मानवता की ऐसी व्याख्याएँ उपस्थित करती थीं, जो एक-दूसरे से पृथक् थीं।[1]

पिछली अर्ध शताब्दी में कई ऐसी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो नवमानववाद को अपना आधारभूत सिद्धांत मानती रही हैं। इन विचारधाराओं में मानवता को एक स्थिर और सदा एक-सा रहने वाला तत्त्व न मानकर चिरंतन विकासशील तत्त्व माना जाता है और उसी सिद्धांत के अनुसार वर्तमान मनुष्य को विकास की एक कड़ी मानकर भावी मनुष्य को इस यात्रा की आगामी कड़ी माना जाता है। उसके विकास में सहायक होने वाले आचार-विचार को ही वर्तमान मनुष्य के लिए आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है। उदाहरण के लिए, अरविन्द यह मानते हैं कि जैसे निरंतर विकास की शृंखला हमें पशुता से मनुष्यता की स्थिति में लाई है, वैसे ही वह हमें इसके आगे भी ले जायगी और आगामी मनुष्य में वे कतिपय आंतरिक शक्तियों का विकास अनुमानित करते हैं।[1]

मार्क्सवाद द्वारा स्वीकृत

अरविन्द द्वारा निर्दिष्ट नवमानववाद और रोमन कैथोलिकों द्वारा निर्दिष्ट नवमानववाद मूलत: आस्तिक है और मनुष्य के अन्दर दिव्य के क्रमिक साक्षात्कार में विश्वास करता है, किंतु मार्क्सवाद भी नवमानववाद की प्रवृत्तियों को स्वीकार करता है। उसका विश्वास है कि वर्ग विभाजित होने के कारण वर्तमान मनुष्य में मनुष्यता के गुणों का पूर्ण विकास नहीं हो पाया या हुआ भी है तो वह कुण्ठित या एकांगी हुआ है। आगामी वर्गहीन समाज व्यवस्था में मनुष्य के आंतरिक गुणों का सम्पूर्ण विकास होगा।

मार्क्सवादी मनुष्य के समस्त आंतरिक विकास का केंद्र बिन्दु 'सामाजिकता' मानते हैं। यद्यपि अराजकतावादी विचारक भी नवमानववाद की कल्पना करते हुए व्यवस्था से निरपेक्ष पूर्ण व्यक्ति को स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रकार बहुधा परस्पर विरोधी वृत्ति के विचारक भी इसी एक वर्ग में आ जाते हैं। ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि आगामी मानव की कल्पना कर और उसके सम्मुख वर्तमान मानव को महत्त्वहीन बताकर या व्यक्ति-मानव को समाज-मानव या दिव्य-मानव के सम्मुख गौण सिद्ध कर बहुधा ये विचारक मानववाद की मूल धारणा से काफ़ी दूर हट जाते हैं।[2][1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 314 |
  2. डॉ. धर्मवीर भारती, सम्पादक 'धर्मयुग', बम्बई

सम्बंधित लेख