ब्रह्मसमाज: Difference between revisions
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*इनके समय (संवत् 1895-1940) में ब्रह्मसमाज का प्रचार अधिक व्यापक हो गया। | *इनके समय (संवत् 1895-1940) में ब्रह्मसमाज का प्रचार अधिक व्यापक हो गया। | ||
*देश में प्रार्थना समाज आदि अनेक नामों से इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये। | *देश में [[प्रार्थना समाज]] आदि अनेक नामों से इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये। | ||
*ब्रह्मसमाज की स्थापना से राष्ट्र रक्षा के एक महान उद्देश्य की पूर्ति हुई, अर्थात राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में हिन्दू समाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार [[आर्य समाज]] ने पश्चिमोत्तर [[भारत]] में हिन्दुओं को बचाया। | *ब्रह्मसमाज की स्थापना से राष्ट्र रक्षा के एक महान उद्देश्य की पूर्ति हुई, अर्थात राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में हिन्दू समाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार [[आर्य समाज]] ने पश्चिमोत्तर [[भारत]] में हिन्दुओं को बचाया। | ||
Revision as of 09:52, 29 November 2010
- नवशिक्षित लोगों की एक धार्मिक संस्था।
- उपनिषदों में जिसकी चर्चा है उसी एक ब्रह्म (परमात्मा) की उपासना को अपना इष्ट रखकर राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में ब्रह्मसमाज की स्थापना की ।
- इसके अन्तर्गत बिना किसी नबी, पैगम्बर, देवदूत आचार्य या पुरोहित को अपना मध्यस्थ माने, सीधे अकेले ईश्वर की उपासना ही मनुष्य का कर्तव्य माना गया।
- ईसाई महात्मा ईसा को और मुसलमान मुहम्मद साहब को मध्यस्थ मानते हैं और यही उनके धर्म की नींव है। इस बात में ब्राह्मसमाज उनसे आगे बढ़ गया।
- पुनर्जन्म का कोई प्रमाण न होने से जन्मान्तर का प्रश्न ही न छेड़ा गया।
- परमात्मा की प्राप्ति के सिवा कोई परलोक नहीं माना गया। निदान, मुसलमान और ईसायों से कहीं अधिक सरल और तर्कसंगत यह मत स्थापित हुआ।
- मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर सबमें ब्रह्म ही स्थित माना गया।
- मूर्तिपूजा और बहुदेव पूजा का निषेध हुआ। परन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म को सबमें स्थित जानकर अन्य सभी मतों को सहन किया गया।
- अपने मन्तव्यों में इस समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था, छूत-छात, जात-पाँत, चौका आदि कुछ न रखा। जप, तप, होम, व्रत, उपवास आदि के नियम नहीं माने। श्राद्ध, प्रेतकर्म का झगड़ा ही नहीं रखा।
- उपनिषदों को भी आधारग्रन्थ की तरह माना गया, प्रमाण की तरह नहीं। साथ ही संसार की जो सब बातें बुद्धिग्राह्य समझी गयीं, उनको लेने में ब्रह्मसमाज को कोई आपत्ति न थी।
- ब्रह्मसमाज क़ुरान, इंजील, वेदादि सभी धर्मग्रन्थों को समान सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे धर्मशिक्षकों को सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे धर्मशिक्षकों का समान समादर करता है।
- इस प्रकार ब्राह्मसमाज ने हिन्दू संस्कृति की सीमाबद्ध मर्यादा को इतना विस्तृत कर दिया है कि उसके सदस्य मुसलमान और ईसाई भी हो सकते हैं।
- पादरियों द्वारा प्रचारित पाश्चात्य शिक्षा के फल से हिन्दू शिक्षित समाज जो अपनी संस्कृति और आचार-विचार से विचलित हो रहा था और जो शायद कभी-कभी पथभ्रष्ट होकर अपने पुरातन क्षेत्र से निकल कर विदेशी संस्कृति के क्षेत्र में बहक जाता था, उसकी सामयिक रक्षा की गयी।
- ऐसा वर्ग बहुत उत्सुकता पूर्वक ब्रह्मसमाज के अपने मनोनुकूल दल में सम्मिलित हो गया।
- राजा राममोहन राय के बाद महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ब्रह्मसमाज के नेता हुए। ये कुछ अधिक परम्परावादी थे, इसलिए इनके अनुयायी अपने को 'आदिब्रह्म' कहते थे।
- केशवचन्द्र सेन ने इनको अधिक सुधारवादी और सरल बनाकर 'नव ब्रह्मसमाज' का रूप दिया।
- इनके समय (संवत् 1895-1940) में ब्रह्मसमाज का प्रचार अधिक व्यापक हो गया।
- देश में प्रार्थना समाज आदि अनेक नामों से इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये।
- ब्रह्मसमाज की स्थापना से राष्ट्र रक्षा के एक महान उद्देश्य की पूर्ति हुई, अर्थात राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में हिन्दू समाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार आर्य समाज ने पश्चिमोत्तर भारत में हिन्दुओं को बचाया।
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