कालिदास का छन्द विधान

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विषयवस्तु के अनुरूप उपयुक्त छन्द का चयन कालिदास के छन्दोविधान में सर्वत्र मिलता है। मेघदूत के सन्दर्भ में मन्दाक्रांता की उपादेयता पर ऊपर चर्चा की गयी है। वर्ण्यवस्तु की सहज अभिव्यक्ति या कथानक के प्रवाह की निर्भरता के लिये उपजाति छन्द को कवि ने विशेष पसन्द किया है, और इसी दृष्टि से कुमारसम्भव के षष्ठ तथा रघुवंश महाकाव्य के दशम, द्वादश तथा पञ्चदश सर्गों में अनुष्टुप का प्रयोग अत्यंत समीचीन और कथा की गतिशील तथा क्षिप्रता का बोध कराने वाला है। जब कि प्रथम सर्ग में अनुष्टुप का प्रयोग कवि के आत्म-निवेदन, विषय के उपक्रम तथा प्रांजल अभिव्यक्ति की दृष्टि से अच्छा बन पड़ा है।

  • मेघदूत को छोड़ शेष तीनों काव्यों में महाकवि ने सर्गांत में छन्द के परिवर्तन का विधान निभाया है, जिससे उसके छ्न्दोविधान में विविधता और रुचिरता आ गयी है। मालिनी छन्द के द्वारा सर्गांत में वृत्त-परिवर्तन कवि को विशेष प्रिय है। वस्तुत: मालिनी छन्द की अपनी विशेष यति और लय सर्गांत में घटनाचक्र की सहसा व्यावृत्ति या विपर्यास, कथानक में नया मोड़ या वर्णन की रोचकता की अभिवृद्धि की दृष्टि से सर्वत्र बहुत अनुकूल प्रतीत होती है। ऋतुसंहार के तो सभी सर्गों में मालिनी छन्द के द्वारा की कवि ने अंत में वृत्त-परिवर्तन किया है तथा प्रत्येक सर्ग में[1]मालिनी छन्दों की संख्या एक से अधिक है। पहले सर्ग के अंत में सात तथा पाँचवें के अंत में छ: मालिनियाँ हैं। चौथे सर्ग में चार मालिनियों के द्वारा वृत्त-परिवर्तन करके फिर वसंततिलका और फिर एक मालिनी का प्रयोग है। कथानक में सहसा नया मोड़ आ जाना या घटना की आकस्मिकता दिखाने के लिये भी मालिनी छन्द बड़ा उपयुक्त है। इस दृष्टि से कुमारसम्भव के तीसरे सर्ग में वसंततिलका के पश्चात मालिनी वृत्त का प्रयोग बड़ा आकर्षक है। जिस प्रकार मेघदूत में मन्दाक्रांता छन्द रस और भाव के सर्वथा अनुकूल है, उसी प्रकार कुमारसम्भव के चतुर्थ सर्ग में रतिविलाप के प्रसंग में अर्धसमवैतालीय तथा रघुवंश महाकाव्य के अष्टम सर्ग में भी वैतालीय छन्द ने कारुण्य और विरह-व्यथा के बोध को तीव्रता दी है।
  • स्त्रग्धरा तथा शार्दूलविक्रीडित जैसे लम्बे छन्दों का कवि ने कम प्रयोग अपने काव्यों में किया है। उपजाति के अतिरिक्त वंशस्थ[2], वसंततिलका[3], इन्द्रवज्रा आदि का प्रयोग भी उत्तम है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्वितीय तथा षष्ठ सर्ग को छोड़कर
  2. ऋतुसंहार प्रथम सर्ग
  3. ऋतुसंहार, षष्ठसर्ग

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