Revision as of 10:45, 27 December 2012 by गोविन्द राम(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Nazeer-Akbarabadi....' के साथ नया पन्ना बनाया)
आलम में जब बहार की आकर लगंत हो।
दिल को नहीं लगन हो मजे की लगंत हो।
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो।
इशरत हो, सुख हो, ऐश हो और जी निश्चिंत हो।
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥
अव्वल तो जाफ़रां से मकां ज़र्द ज़र्द हों।
सहरा ओ बागो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों।
जोड़े बसंतियों से निहां ज़र्द ज़र्द हों।
इकदम तो सब जमीनो जमां ज़र्द ज़र्द हों।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
मैदां हो सब्ज साफ चमकती भी रेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
आँखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग।
महबूब गुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग।
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी ओ मुंहचंग।
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों।
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों।
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों।
पर्दे पड़े हों ज़र्द सुनहरी मकान हों।
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो ॥
कसरत से तायफ़ों की मची हो उलट पुलट।
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट।
बैठे हों बनके नाज़नीं परियों के ग़ट के ग़ट।
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह।
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥