Revision as of 11:00, 27 December 2012 by गोविन्द राम(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Nazeer-Akbarabadi....' के साथ नया पन्ना बनाया)
जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत॥
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत॥
अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत॥
जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले।
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले॥
गुलों ने डालियों के डाले बाग में झूले।
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले।
दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत॥
दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए॥
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजने आए॥
यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत॥
कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
तुन और कुसूम की ज़र्दी में कपड़े रंगते हैं॥
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
ग़रीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं॥
गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत॥
कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं॥
ग़रीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग़ में मजलिस बनाके बैठे हैं।
पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत॥
कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं॥
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
ग़रीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं॥
बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत॥
जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं॥
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं॥
हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत॥
तवायफों में है अब यह बसंत का आदर।
कि हर तरफ को बना गड़ुए रखके हाथों पर॥
गेहूं की बालियां और सरसों की डालियां लेकर।
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर घर॥
रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत॥
मियां बसंत के यां तक रंग गहरे हैं।
कि जिससे कूंचे और बाज़ार सब सुनहरे हैं॥
जो लड़के नाजनी और तन कुछ इकहरे हैं।
वह इस मजे के बसंती लिबास पहरे हैं॥
कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत॥
बहा है ज़ोर जहां में बसंत का दरिया।
किसी का जर्द है जोड़ा किसी का केसरिया॥
जिधर को देखो उधर जर्द पोश का रेला।
बने हैं कूच ओ बज़ार खेत सरसों का॥
बिखर रही है गरज आके बेशुमार बसंत॥
'नज़ीर' खल्क में यह रुत जो आन फिरती है।
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है॥
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है।
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है।
सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत॥