धर्म कुण्ड काम्यवन: Difference between revisions

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{{सूचना बक्सा पर्यटन
|चित्र=Krishna-Pandavas-and-Droupadi.jpg
|चित्र का नाम=पात्र में लगे साग को खाते श्रीकृष्ण
|विवरण=धर्म कुण्ड [[काम्यवन]] की पूर्व दिशा में स्थित है यहाँ पाँचों [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने अपने वनवास के समय में बहुत दिनों तक निवास किया था।
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|क्या देखें=कामेश्वर मंदिर, नर-नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, पंच पाण्डव कुण्ड (पंच तीर्थ), विश्वेश्वर महादेवादि'।
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|अन्य जानकारी=जब [[पाण्डव]] लोग यहीं निवास कर रहे थे। दुष्ट दुर्योधन को यह पता लगा। उसने पाण्डवों को नीचा दिखलाने के लिए अपने सारे भाईयों, परिकरों [[कर्ण]], [[शकुनि]] आदि बंधु-बान्धवों और चतुरंगिनी सेना के साथ [[काम्यवन]] में विमल कुण्ड के तट पर कुछ दिन के लिए उत्सव मनाना आरम्भ किया।
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यह कुण्ड [[काम्यवन]] की पूर्व दिशा में हैं । यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं । पास में ही विशाखा नामक वेदी है । श्रवणा नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है । धर्मकुण्ड के अन्तर्गत नर–नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच [[पाण्डव]], हनुमान जी, पंच पाण्डव कुण्ड (पञ्च तीर्थ) मणिकर्णिका, विश्वेश्वर महादेवादि दर्शनीय हैं ।
'''धर्म कुण्ड''' [[काम्यवन]] की पूर्व दिशा में स्थित है। यहाँ [[नारायण|श्रीनारायण]] धर्म के रूप में विराजमान हैं। पास में ही 'विशाखा' नामक वेदी है। श्रवण नक्षत्र, बुधवार, [[भाद्रपद]] [[कृष्णाष्टमी]] में यहाँ स्नान की विशेष विधि है। धर्मकुण्ड के अन्तर्गत 'नर-नारायण कुण्ड', 'नील वराह', 'पंच पाण्डव', '[[हनुमान|हनुमान जी]]', 'पंच पाण्डव कुण्ड' (पंच तीर्थ), 'मणिकर्णिका', 'विश्वेश्वर महादेवादि' दर्शनीय स्थल हैं।
==प्रसंग==
पाँचों [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने अपने वनवास के समय इस रमणीक [[काम्यवन]] में बहुत दिनों तक निवास किया था। यहाँ निवास करते समय एक दिन [[द्रौपदी]] तथा पाण्डवों को प्यास लगी। गर्मी के दिन थे, आसपास के सरोवर और जलस्रोत सूख गये थे। दूर-दूर तक कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था। [[युधिष्ठिर]] ने अपने परम पराक्रमी भ्राता [[भीम]] को एक पात्र देकर निर्मल जल लाने के लिए भेजा। बुद्धिमान भीम पक्षियों के गमनागमन को लक्ष्य कर कुछ आगे बढ़े। कुछ दूर अग्रसर होने पर उन्होंने निर्मल और सुगन्धित जल से भरे हुए एक सुन्दर सरोवर को देखा। वे बड़े प्यासे थे। उन्होंने सोचा पहले स्वयं जलपान कर पीछे भाईयों के लिए भी जल भरकर ले जाऊँगा। ऐसा सोचकर ज्यों ही वे सरोवर में उतरे, त्यों ही एक [[यक्ष]] उनके सामने प्रकट हुआ और बोला- "पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तत्पश्चात् जल पीने की धृष्टता करना, अन्यथा मारे जाओगे।


'''प्रसंग'''
महापराक्रमी भीमसेन ने यक्ष के आदेश की उपेक्षा कर जलपान करने के लिए ज्यों ही अञ्जलि में जल उठाया, तत्क्षणात वे वहीं पर मूर्छित होकर गिर पड़े। इधर भाईयों के साथ [[युधिष्ठिर|महाराज युधिष्ठिर]] ने भीमसेन के आने में विलम्ब देखकर क्रमश: [[अर्जुन]], [[नकुल]] और [[सहदेव]] को पानी लाने के लिए आदेश दिया; किन्तु उस सरोवर पर पहुँचकर सबकी वही गति हुई, जो भीम की हुई थी। क्योंकि उन्होंने भी यक्ष के आदेश की परवाह किये बिना जलपान करना चाहा था। अन्त में महाराज युधिष्ठिर भी वहीं पहुँचे। वहाँ पहुँचकर अपने भाईयों को मूर्छित पड़े हुए देखा। वे बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा पहले जलपान कर लूँ और फिर भाईयों को सचेत करने की चेष्टा करूँगा। ऐसा सोचकर वे ज्यों ही पानी पीने के लिए सरोवर में उतरे, त्यों ही उस यक्ष ने पहले की भाँति प्रकट होकर उसके प्रश्नों का सदुत्तर देकर जलपान करने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने धैर्य धारण कर यक्ष से प्रश्न करने का अनुरोध किया।
पाँचों पाण्डवों ने अपने वनवास के समय इस रमणीय काम्यवन में बहुत दिनों तक वास किया था । यहाँ निवास करते समय एक दिन महारानी द्रोपदी तथा पाण्डवों को प्यास लगी । गर्मी के दिन थे, आस पास के सरोवर और जल–स्त्रोत सूख गये थे । दूर दूर तक कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था । महाराज [[युधिष्ठर]] ने अपने परम पराक्रमी भ्राता [[भीम|भीमसेन]] को एक पात्र देकर निर्मल जल लाने के लिए भेजा । बुद्धिमान भीम पक्षियों के गमनागमन को लक्ष्य कर कुछ आगे बढ़े । कुछ दूर अग्रसर होने पर उन्होंने निर्मल और सुगन्धित जल से भरे हुए एक सुन्दर सरोवर को देखा । वे बड़े प्यासे थे । उन्होंने सोचा पहले स्वयं जलपान कर पीछे भाईयों के लिए जल भर कर ले जाऊँगा । ऐसा सोचकर ज्यों ही वे सरोवर में उतरे, त्यों ही एक यक्ष उनके सामने प्रकट हुआ और बोला– पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तत्पश्चात जल पीने की धृष्टता करना, अन्यथा मारे जाओगे । महापराक्रमी भीमसेन ने यक्ष के आदेश की उपेक्षाकर जलपान करने के लिए ज्यों ही अञ्जलि में जल उठाया, तत्क्षणात वे वहीं पर मूर्छित होकर गिर पड़े । इधर भाईयों के साथ महाराज युधिष्ठर ने भीमसेन के आने में विलम्ब देखकर क्रमश: [[अर्जुन]], [[नकुल]] और [[सहदेव]] को पानी लाने के लिए आदेश दिया किन्तु, उस सरोवर पर पहुँचकर सबकी वही गति हुई, जो भीम की हुई थी क्योंकि उन्होंने भी यक्ष के आदेश की परवाह किये बिना जलपान करना चाहा था । अन्त में महाराज युधिष्ठिर भी वहीं पहुँचे । वहाँ पहुँचकर अपने भाईयों को मूर्छित पड़े हुए देखा । वे बड़े चिन्तित हुए । उन्होंने सोचा पहले जलपान कर लूँ और फिर भाईयों को सचेत करने की चेष्टा करूँगा । ऐसा सोचकर वे ज्यों ही पानी पीने के लिए सरोवर में उतरे, त्यों ही उस यक्ष ने पहले की भाँति प्रकट होकर उसके प्रश्नों का सदुत्तर देकर जलपान करने के लिए कहा । महाराज युधिष्ठिर ने धैर्य धारण कर यक्ष से प्रश्न करने का अनुरोध किया ।


यक्ष ने पूछा–सूर्य को कौन उदित करता है ?  
[[यक्ष]] ने पूछा- "सूर्य को कौन उदित करता है?"


युधिष्ठिर–ब्रह्म सूर्य को उदित करता है ।
युधिष्ठिर- "ब्रह्म सूर्य को उदित करता है।"


यक्ष–पृथ्वी से भारी क्या है ? आकाश से भी ऊँचा क्या है ? [[वायु]] से भी तेज चलने वाला क्या है ? और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है ?
यक्ष- "पृथ्वी से भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है? वायु से भी तेज़ चलने वाला क्या है? और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है?"


युधिष्ठिर–माता भूमि से भी भारी है । पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलनेवाला है । चिन्ता तिनकों से भी अधिक संख्या में हैं ।
युधिष्ठिर- "माता भूमि से भी भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज़ चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से भी अधिक संख्या में है।"


यक्ष– लोक में सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है ? उत्तम क्षमा क्या है ?
यक्ष- "लोक में सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है? उत्तम क्षमा क्या है?"


युधिष्ठिर– लोक में श्रेष्ठ धर्म दया है । सुख–दु:ख, लाभ–हानि, जीवन–मरण आदि द्वन्द्वों को सहना ही क्षमा है ।
युधिष्ठिर- लोक में श्रेष्ठ धर्म दया है। सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों को सहना ही क्षमा है।


यक्ष– मनुष्यों का दुर्जेय शत्रु कौन है ? अनन्त व्याधि क्या है ? साधु कौन है ? असाधु कौन है?
यक्ष- "मनुष्यों का दुर्जेय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है? साधु कौन है? असाधु कौन है?"


युधिष्ठिर– मनुष्यों का क्रोध ही दुर्जेय शत्रु है लोभ अनन्त व्याधि समस्त प्राणियों का हित करने वाला साधु हैं । अजितेन्द्रिय निर्दय पुरुष ही असाधु है ।
युधिष्ठिर- मनुष्यों का क्रोध ही दुर्जेय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि, समस्त प्राणियों का हित करने वाला साधु है। अजितेन्द्रिय निर्दय पुरुष ही असाधु है।


यक्ष–सुखी कौन है ? सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? मार्ग क्या है ? वार्ता क्या है ?
यक्ष- "सुखी कौन है? सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है? वार्ता क्या है?"


युधिष्ठिर– जिस पर कोई ऋण न हो और जो परदेश में नहीं है, किसी प्रकार साग–पात पकाकर खा ले, वही सुखी है । रोज–रोज प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं , किन्तु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीवित रहने की इच्छा करते हैं । इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है । तर्क की स्थिति नहीं है । श्रुतियाँ भी भिन्न–भिन्न हैं । कोई एक ऐसा ऋषि नहीं, जिसका मत भिन्न न हो, अत: धर्म का तत्त्व अत्यन्त गूढ़ है । इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग है । इस माया– मोह रूप कड़ाह में काल समस्त प्राणियों को माह और ऋतु रूप कलछी से उलट–पलट कर सूर्यरूप अग्नि और दिन–रात रूप ईधन के द्वारा पका रहे हैं , यही वार्ता है ।
युधिष्ठिर- जिस पर कोई ऋण न हो और जो परदेश में नहीं है, किसी प्रकार साग-पात पकाकर खा ले, वही सुखी है। प्रतिदिन प्राणी [[यमराज]] के घर जा रहे हैं, किन्तु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीवित रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है। तर्क की स्थिति नहीं है। श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। कोई एक ऐसा ऋषि नहीं, जिसका मत भिन्न न हो, अत: धर्म का तत्त्व अत्यन्त गूढ़ है। इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग है। इस माया-मोह रूप कड़ाह में काल समस्त प्राणियों को माह और ऋतु रूप कलछी से उलट-पलट कर सूर्यरूप अग्नि और दिन-रात रूप ईधन के द्वारा पका रहे हैं, यही वार्ता है।


यक्ष– राजन ! तुमने हमारे प्रश्नों का ठीक–ठीक उत्तर दिया है । इसलिए अपने भाईयों में से किसी एक को तुम कहो वही जीवित हो सकता है ।
[[यक्ष]]- "राजन ! तुमने हमारे प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दिया है। इसलिए अपने भाईयों में से किसी एक को तुम कहो वही जीवित हो सकता है।


युधिष्ठिर–हमारे इन भाईयों में से महाबाहु श्यामवर्णवाले नकुल जीवित हो जाएँ ।
युधिष्ठिर- हमारे इन भाईयों में से महाबाहु श्यामवर्ण वाले [[नकुल]] जीवित हो जाएँ।


यक्ष– राजन् ! जिसमें दस हज़ार हाथियों के समान बल है, उस भीम को तथा अद्वितीय धनुर्धर अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जीवित कराने की इच्छा क्यों है ?
यक्ष- "राजन ! जिसमें दस हज़ार हाथियों के समान बल है, उस [[भीम]] को तथा अद्वितीय धनुर्धर [[अर्जुन]] को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जीवित कराने की इच्छा क्यों है?"


युधिष्ठिर– मैं धर्म का त्याग नहीं कर सकता । मेरा ऐसा विचार है कि सबके प्रति समान भाव रखना ही परम धर्म है । मेरे पिता की कुन्ती और माद्री दो पत्नियाँ थीं । वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें–ऐसा मेरा विचार है । मेरे लिए जैसी कुन्ती हैं, वैसी माद्री भी हैं । दोनों के प्रति समान भाव रखना चाहता हूँ, इसलिए नकुल ही जीवित हो उठें ।
युधिष्ठिर- मैं धर्म का त्याग नहीं कर सकता। मेरा ऐसा विचार है कि सबके प्रति समान भाव रखना ही परम धर्म है। मेरे पिता की [[कुन्ती]] और [[माद्री]] दो पत्नियाँ थीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिए जैसी कुन्ती हैं, वैसी ही माद्री भी हैं। दोनों के प्रति समान भाव रखना चाहता हूँ, इसलिए नकुल ही जीवित हो उठें।


यक्ष– भक्त श्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काल से भी धर्म का विशेष आदर किया । इसलिए तुम्हारे सभी भाई जीवित हो उठें ।
यक्ष- "भक्त श्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काल से भी धर्म का विशेष आदर किया। इसलिए तुम्हारे सभी भाई जीवित हो उठें।"
यह यक्ष और कोई नहीं स्वयं धर्मराज (श्रीनारायण) थे । वे अपने पुत्र युधिष्ठिर के धर्म की परीक्षा लेना चाहते थे, जिसमें महाराज युधिष्ठिर उत्तीर्ण हुए ।
 
यह यक्ष और कोई नहीं स्वयं धर्मराज (श्रीनारायण) थे। वे अपने पुत्र युधिष्ठिर के धर्म की परीक्षा लेना चाहते थे, जिसमें महाराज युधिष्ठिर उत्तीर्ण हुए।


'''दूसरा प्रसंग'''
'''दूसरा प्रसंग'''


जब [[पाण्डव]] [[द्रौपदी]] के साथ वनवास का समय यहाँ काट रहे थे, एक समय महारानी द्रौपदी अकेली विमल कुण्ड में स्नान करने गई थीं । पाण्डव लोग अपने निवास स्थान पर निश्चिन्त होकर भगवद कथा में निमग्न थे । इधर [[दुर्योधन]] का बहनोई जो पाण्डवों का भी बहनोई लगता था, द्रौपदी पर आसक्त था । वह पाण्डवों का अपमान करने के लिए इस अवसर की प्रतीक्षा में था कि द्रौपदी कहीं मुझे अकेली मिल जाए तो सहज ही उसका अपहरण कर लूँ । होनहारवश आज उसे द्रौपदी अपने निवास स्थान से दूर विमल कुण्ड पर स्नान करती हुई मिल गई। [[जयद्रथ]] ने द्रौपदी के निकट साम, दाम, दण्ड, भेद का अवलम्बन कर उसे अपने साथ अपने राज्य में ले जाने की चेष्टा की किन्तु, पतिव्रता शिरोमणि ने दृढ़ता से उसके विचारों को अस्वीकार कर दिया, जिससे क्रोधित होकर जयद्रथ ने उसे बलपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया तथा बड़े वेग से घोड़ों को हाँकने लगा । द्रौपदी जोर–जोर से अर्जुन, भीम और [[कृष्ण]] को अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी । किसी प्रकार से उसकी चीख अर्जुन और भीम के कानों में पड़ी, वे दोनों महाबली तुरन्त बड़े वेगपूर्वक दौड़े । महारथी अर्जुन ने अपने अग्नि बाण से जयद्रथ का रथ रोक दिया । जयद्रथ रथ से कूदकर प्राणों को बचाने के लिए भागा किन्तु भीम ने उससे भी अधिक वेग से दौड़कर उसे पकड़ लिया । दोनों भाईयों ने जयद्रथ को पकड़कर द्रौपदी के सामने प्रस्तुत किया फिर तीनों महाराज युधिष्ठिर के पास आये । भीम ने क्रोधित होकर कहा– इस आततायी को अभी तुरन्त मार डालना चाहिए । अर्जुन ने भी भीम के प्रस्ताव का समर्थन किया । किंन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने दोनों भाईयों को शान्त करते हुए कहा– इस नीच ने द्रौपदी के चरणों में अपराध किया किया है । इसलिए द्रौपदी से पूछकर ही इसे उचित दण्ड देना चाहिए । द्रौपदी ने गम्भीर होकर कहा- जैसा भी हो इसने भयंकर अपराध तो किया है, किन्तु यह आप लोगों की बहन का पति हैं । मैं अपनी ननद को विधवा होकर सारा जीवन रोते हुए नहीं देखना चाहती । इसे छोड़ देना ही उचित है । किन्तु भीम उसे मार ही डालना चाहते थे । अन्त में यह निश्चित हुआ कि किसी सम्मानीय व्यक्ति का अपमान करना भी मृत्यु के समान है । इसलिए इसका सिर मुण्डन कर दिया जाये और पाँच चोटियाँ रख दी जाएँ, उसी प्रकार ही मूँछ मुड़कार दाढ़ी रख दी जाये और उसे छोड़ दिया जाये । अन्त में अर्जुन ने वैसे ही मुण्डनकर एवं मूँछ काटकर– अपमानित कर उसे छोड़ दिया । जयद्रथ घोर अपमानित होकर चला गया और पाण्डवों का वध करने के लिए घोर तपस्या करने लगा । किन्तु अन्त में [[महाभारत]] के युद्ध में श्रीकृष्ण के परामर्श से अर्जुन के हाथों वह मारा गया ।
जब [[पाण्डव]] [[द्रौपदी]] के साथ वनवास का समय यहाँ काट रहे थे, एक समय महारानी द्रौपदी अकेली विमल कुण्ड में स्नान करने गई थीं। पाण्डव लोग अपने निवास स्थान पर निश्चिन्त होकर भगवद कथा में निमग्न थे। इधर [[दुर्योधन]] का बहनोई जो पाण्डवों का भी बहनोई लगता था, द्रौपदी पर आसक्त था। वह पाण्डवों का अपमान करने के लिए इस अवसर की प्रतीक्षा में था कि द्रौपदी कहीं मुझे अकेली मिल जाए तो सहज ही उसका अपहरण कर लूँ। होनहारवश आज उसे द्रौपदी अपने निवास स्थान से दूर विमल कुण्ड पर स्नान करती हुई मिल गई। [[जयद्रथ]] ने द्रौपदी के निकट साम, दाम, दण्ड, भेद का अवलम्बन कर उसे अपने साथ अपने राज्य में ले जाने की चेष्टा की! किन्तु, पतिव्रता शिरोमणि ने दृढ़ता से उसके विचारों को अस्वीकार कर दिया, जिससे क्रोधित होकर जयद्रथ ने उसे बलपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया तथा बड़े वेग से घोड़ों को हाँकने लगा। द्रौपदी ज़ोर–ज़ोर से अर्जुन, भीम और [[कृष्ण]] को अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी। किसी प्रकार से उसकी चीख अर्जुन और भीम के कानों में पड़ी, वे दोनों महाबली तुरन्त बड़े वेगपूर्वक दौड़े। महारथी अर्जुन ने अपने अग्नि बाण से जयद्रथ का रथ रोक दिया। जयद्रथ रथ से कूदकर प्राणों को बचाने के लिए भागा किन्तु भीम ने उससे भी अधिक वेग से दौड़कर उसे पकड़ लिया। दोनों भाईयों ने जयद्रथ को पकड़कर द्रौपदी के सामने प्रस्तुत किया, फिर तीनों [[युधिष्ठिर]] के पास आये।
 
भीम ने क्रोधित होकर कहा- "इस आततायी को अभी तुरन्त मार डालना चाहिए। अर्जुन ने भी भीम के प्रस्ताव का समर्थन किया। किंन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने दोनों भाईयों को शान्त करते हुए कहा- "इस नीच ने द्रौपदी के चरणों में अपराध किया है। इसलिए द्रौपदी से पूछकर ही इसे उचित दण्ड देना चाहिए। द्रौपदी ने गम्भीर होकर कहा- "जैसा भी हो इसने भयंकर अपराध तो किया है, किन्तु यह आप लोगों की बहन का पति है। मैं अपनी ननद को विधवा होकर सारा जीवन रोते हुए नहीं देखना चाहती। इसे छोड़ देना ही उचित है।" किन्तु भीम उसे मार ही डालना चाहते थे। अन्त में यह निश्चित हुआ कि किसी सम्मानीय व्यक्ति का अपमान करना भी [[मृत्यु]] के समान है। इसलिए इसका सिर मुण्डन कर दिया जाये और पाँच चोटियाँ रख दी जाएँ, उसी प्रकार ही मूँछ मुड़ाकर दाढ़ी रख दी जाये और उसे छोड़ दिया जाये। अन्त में अर्जुन ने वैसे ही मुण्डन कर एवं मूँछ काटकर, अपमानित कर उसे छोड़ दिया। जयद्रथ घोर अपमानित होकर चला गया और पाण्डवों का वध करने के लिए घोर तपस्या करने लगा। किन्तु अन्त में [[महाभारत]] के युद्ध में श्रीकृष्ण के परामर्श से अर्जुन के हाथों वह मारा गया।


'''तीसरा प्रसंग'''  
'''तीसरा प्रसंग'''  
पाण्डव द्रौपदी के साथ वनवास के समय यहीं निवास कर रहे थे। उधर दुष्ट [[दुर्योधन]] पाण्डवों को समूल नष्ट कर देने के लिए सदा चिन्तित रहता था। उसने [[दुर्वासा|महर्षि दुर्वासा]] को निमन्त्रित कर बड़े ही सम्मान और आदर के साथ परमस्वादिष्ट षडरस भोजन कराकर उन्हें तृप्त किया। उसकी सेवा से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा ने उसे कोई भी वरदान माँगने के लिए कहा। उसने हाथ जोड़कर महर्षि से यह वरदान माँगा कि महाराज युधिष्ठिर मेरे बड़े भईया हैं। आप कृपाकर अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ उनके निवास स्थान पर आतिथ्य ग्रहण करें। किन्तु आप लोग दोपहर के पश्चात् तृतीय प्रहर में ही उनका आतिथ्य ग्रहण करें। आजकल पाण्डव लोग [[काम्यवन]] में निवासकर रहे हैं। दुर्योधन यह भलीभाँति जानता था कि पाण्डव लोग आतिथियों की भलीभाँति सेवा करते हैं। [[द्रौपदी]] के पास [[सूर्य देवता|सूर्यदेव]] की दी हुई एक ऐसी बटलोई है, जिसमें अन्न पाक करने पर अगणित व्यक्तियों को तृप्ति पूर्वक भोजन कराया जा सकता है, किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उसे माँजकर रख देने के पश्चात् उससे कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। द्रौपदी अतिथियों और पाँचों पाण्डवों को खिला-पिलाकर तृतीय प्रहर से पूर्व अवश्य ही उस बटलोई को माँजकर रख देती है। अत: तृतीय प्रहर के बाद दुर्वासा के पहुँचने पर उस समय पाण्डव लोग साठ हज़ार शिष्यों सहित दुर्वासा को भोजन नहीं करा सकेंगे। फलत: महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि पाण्डवों को अपने अभिशाप से भस्म कर देंगे।
महर्षि दुर्वासा तो कृष्णभक्त पाण्डवों की महिमा को भलीभाँति जानते हैं परन्तु उनकी अटपटी चेष्टाओं को समझ पाना देवताओं के लिए भी बड़ा ही कठिन है। कब, किसलिए वे क्या करते हैं, यह वे ही जानते हैं। अत: वे साठ हज़ार ऋषियों को साथ लेकर तृतीय प्रहर में पाण्डवों के निवास स्थल काम्यवन में पहुँचे। उन्हें देखकर पाण्डव-गण बड़े प्रसन्न हुए। [[युधिष्ठिर]] ने उनकी पूजा कर उनसे आतिथ्य ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने कहा- "हम लोग अभी [[विमल कुण्ड काम्यवन|विमलकुण्ड]] में स्नान करने के लिए जा रहे हैं। स्नानादि से निवृत्त होकर तुरन्त आ रहे हैं। भोजन की व्यवस्था ठीक रखना। हम यहीं पर भोजन करेंगे।" ऐसा कहकर वे सारे ऋषि-शिष्यों को लेकर स्नान करने चले गये।
इधर [[पाण्डव]] बड़े चिन्तित हुए। भोजन की क्या व्यवस्था हो? उन्होंने द्रौपदी को बुलाया और उससे साठ हज़ार ऋषियों के भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा। परन्तु उसकी बटलोई माँजी हुई औंधी पड़ी हुई थी। वह सोच रही थी कि क्या करूँ? उसे पाण्डवों को बचाने के लिए कोई भी उपाय सूझ नहीं रहा था। अन्त में अपने प्रियसखा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] को बड़े आर्त स्वर से पुकारने लगी। उसकी पुकार सुनकर द्वारकानाथ भला कैसे रुक सकते थे? तुरन्त द्रौपदी के सामने प्रकट हो गये और बोले- "सखि ! मुझे बड़ी भूख लगी है। मुझे कुछ खिलाओ।" द्रौपदी ने उत्तर दिया- "तुम्हें भूख लगी हुई है, इधर घर में कुछ भी नहीं है। मेरी बटलोई भी मँजी हुई औंधी पड़ी हुई है। परमक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ अभी तुरन्त भोजन करने के लिए पधारने वाले हैं। भोजन नहीं मिलने पर पाण्डवों का सर्वनाश अनिवार्य है। अत: पहले इसकी व्यवस्था कीजिये।" श्रीकृष्ण ने कहा- "बिना कुछ खाये-पीये मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जरा अपनी बटलोई लाना तो। द्रौपदी ने करुण स्वर से कहा- "बटलोई में कुछ भी नहीं है। मैंने उसे भलीभाँति माँजकर रख दिया है। श्रीकृष्ण- "फिर भी लाओ तो देखूँ।"
[[द्रौपदी]] ने बटलोई को लाकर कृष्ण के हाथों में दे दिया। श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उस बटलोई के भीतर कहीं एक छोटा सा साग का टुकड़ा चिपका हुआ था। श्रीकृष्ण ने उसे अपने नाख़ून से कुरेदकर अपने मुख में डाल लिया। फिर द्रौपदी के हाथों से पेट भरकर पानी पीया। तत्पश्चात् 'तृप्तोऽस्मि ! तृप्तोऽस्मि !' कहकर अपने पेट पर हाथ फेरने लगे। श्रीकृष्ण को तृप्ति की डकार भी आने लगी। उन्होंने भीमसेन को ऋषियों को शीघ्र ही बुला लाने के लिए भेजा। महापराक्रमी [[भीम]] अपने हाथ में गदा लेकर ऋषियों को बुलाने विमलकुण्ड की ओर गये।


पाण्डव लोग द्रौपदी के साथ वनवास के समय यहीं निवास कर रहे थे । उधर दुष्ट दुर्योधन पाण्डवों को समूल नष्टकर देने के लिए सदा चिन्तित रहता था । उसने महर्षि दुर्वासाजी को निमन्त्रित कर बड़े ही सम्मान और आदर के साथ परमस्वादिष्ट षडरस भोजन कराकर उन्हें तृप्त किया । उसकी सेवा से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा जी ने उसे कोई भी वर माँगने के लिए कहा । उसने हाथ जोड़कर महर्षि से यह वरदान माँगा कि महाराज युधिष्ठिर मेरे बड़े भईया हैं । आप कृपाकर अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ उनके निवास स्थान पर आतिथ्य ग्रहण करें । किन्तु आप लोग दोपहर के पश्चात तृतीय प्रहर में ही उनका आतिथ्य ग्रहण करें । आजकल पाण्डव लोग काम्यवन में निवासकर रहे हैं । दुर्योधन यह भलीभाँति जानता था कि पाण्डव लोग आतिथियों की भलीभाँति सेवा करते हैं । द्रौपदी के पास सूर्यदेव की दी हुई एक ऐसी बटलोई है, जिसमें अन्न पाक करने पर अगणित व्यक्तियों को तृप्ति पूर्वक भोजन कराया जा सकता है, किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उसे माँजकर रख देने के पश्चात उससे कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है । द्रौपदी अतिथियों और पाँचों पाण्डवों को खिला पिलाकर तृतीय प्रहर से पूर्व अवश्य ही उस बटलोई को माँजकर रख देती है । अत: तृतीय प्रहर के बाद दुर्वासाजी के पहुँचने पर उस समय पाण्डव लोग साठ हज़ार शिष्यों सहित दुर्वासाजी को भोजन नहीं करा सकेंगे । फलत: महाक्रोधी दर्वास ऋषि पाण्डवों को अपने अभिशाप से भस्म कर देंगे । महर्षि दुर्वास तो कृष्णभक्त पाण्डवों की महिमा को भलीभाँति जानते हैं । परन्तु उनकी अटपटी चेष्टाओं को समझ पाना देवताओं के लिए भी बड़ा ही कठिन है । कब, किसलिए वे क्या करते हैं, यह वे ही जानते हैं । अत: वे साठ हज़ार ऋषियों को साथ लेकर तृतीय प्रहर में पाण्डवों के निवास स्थल काम्यवन में पहुँचे । उन्हें देखकर पाण्डवगण बड़े प्रसन्न हुए । महाराज युधिष्ठिर ने उनकी पूजा कर उनसे आतिथ्य ग्रहण  करने के लिए प्रार्थना की । महर्षि ने कहा– हम लोग अभी विमलकुण्ड में स्नान करने के लिए जा रहे हैं । स्नानादि से निवृत्त होकर तुरन्त आ रहे हैं । भोजन की व्यवस्था ठीक रखना । हम यहीं पर भोजन करेंगे । ऐसा कहकर वे सारे ऋषि–शिष्यों को लेकर स्नान करने चले गये 
महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य विमलकुण्ड में स्नान कर रहे थे। अचानक उनका पेट पूर्णरूप से भर गया। सबको भोजन करने के पश्चात् वाली डकारें भी आने लगीं। उसी समय भीम को अपनी ओर आते देखा तो दुर्वासा को अम्बरीष महाराज की घटना का स्मरण हो आया। वे बहुत डरे और सारे शिष्यों को लेकर जल्दी से जल्दी आकाश मार्ग से भागकर महर्षि लोक में चले गये। भीम वहाँ पहुँचकर ऋषियों को न पाकर लौट आये तथा युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को बतलाया कि चारों ओर खोजकर भी मैं उनको नहीं पा सका। द्रौपदी और पाण्डव श्रीकृष्ण से सब कुछ जानकर निश्चिन्त हो गये। श्रीकृष्ण के परितृप्त होने पर विश्व परितृप्त हो जाता है। इस उपाख्यान का विश्व के लिए यही सन्देश है। श्रीकृष्ण की यह लीला यहीं पर हुई थी।
इधर पाण्डव लोग बड़े चिन्तित हुए । भोजन की क्या व्यवस्था हो ? उन्होंने द्रौपदी को बुलाया और उससे साठ हज़ार ऋषियों के भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा । परन्तु उसकी बटलोई माँजी हुई औंधी पड़ी हुई थी । वह सोच रही थीं । कि क्या करूँ ? उसे पाण्डवों को बचाने के लिए कोई भी उपाय सूझ नहीं रहा था । अन्त में अपने प्रियसखा श्रीकृष्ण को बड़े आर्त स्वर से पुकारने लगी । उसकी पुकार सुनकर द्वारकानाथ भला कैसे रूक सकते थे ? तुरन्त द्रौपदी के सामने प्रकट हो गये  और बोले– सखि ! मुझे बड़ी भूख लगी है । मुझे कुछ खिलाओ । द्रौपदी ने उत्तर दिया– तुम्हें भूख लगी हुई है, इधर घर में कुछ भी नहीं है । मेरी बटलोई भी मँजी हुई औंधी पड़ी हुई है । परमक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ अभी तुरन्त भोजन करने के लिए पधारने वाले हैं । भोजन नही मिलने पर पाण्डवों का सर्वनाश अनिवार्य है । अत: पहले इसकी व्यवस्था कीजिये । श्रीकृष्ण ने कहा– बिना कुछ खाये–पीये मैं कुछ भी नहीं कर सकता । जरा अपनी बटलोई लाना तो । द्रौपदी ने करुण स्वर से कहा– बटलोई में कुछ भी नहीं है । मैंने उसे भलीभाँति माँजकर रख दिया है । श्रीकृष्ण– फिर भी लाओ तो देखूँ ।
द्रौपदी ने बटलोई को लाकर कृष्ण के हाथों में दे दिया । श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए । उस बटलोई के भीतर कहीं एक छोटा सा साग का टुकड़ा चिपका हुआ था । श्रीकृष्ण ने उसे अपने नाख़ून से कुरेदकर अपने मुख में डाल लिया । फिर द्रौपदी के हाथों से पेट भरकर पानी पीया । तत्पश्चात तृप्तो ऽस्मि ! तृप्तोऽस्मि ! कहकर अपने पेट पर हाथ फेरने लगे । श्रीकृष्ण को तृप्ति की डकार भी आने लगी । उन्होंने भीमसेन को ऋषियों को शीघ्र ही बुला लाने के लिए भेजा । महापराक्रमी भीम अपने हाथ में गदा लेकर ऋषियों को बुलाने विमलकुण्ड की ओर गये ।
महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य विमलकुण्ड में स्नान कर रहे थे  । अचानक इनका पेट पूर्णरूप से भर गया । सबको भोजन करने के पश्चात वाली डकारें भी आने लगीं । उसी समय भीम को अपनी ओर आते देखा तो दुर्वासाजी को [[अम्बरीष]] महाराज जी की घटना का स्मरण हो आया । वे बहुत डरे और सारे शिष्यों को लेकर जल्दी–से जल्दी आकाश मार्ग से भागकर महर्षि लोक में चले गये । भीम वहाँ पहुँचकर ऋषियों को न पाकर लौट आयें तथा महाराज युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को बतलाया कि– चारों ओर खोजकर भी मैं उनको नहीं पा सका । द्रौपदी और पाण्डव श्रीकृष्ण से सब कुछ जानकर निश्चन्त हो गये । श्रीकृष्ण के परितृप्त होने पर विश्व परितृप्त हो जाता है । इस उपाख्यान का विश्व के लिए यही सन्देश है । श्रीकृष्ण की यह लीला यहीं पर हुई थीं ।


'''चतुर्थ प्रसंग'''  
'''चतुर्थ प्रसंग'''  


एक समय की बात है । जब पाण्डव लोग यहीं निवास कर रहे थे । दुष्ट दुर्योधन को यह पता लगा । उसने पाण्डवों को नीचा दिखलाने के लिए अपने सारे भाईयों, परिकरों [[कर्ण]][[शकुनि]] आदि बंधु–बान्धवों और चतुरगंनी सेना के साथ काम्यवन में विमल कुण्ड के तट पर कुछ दिन के लिए उत्सव मनाना आरम्भ किया । यह बात [[इन्द्र]] को मालूम पड़ने पर उन्होंने अपने सेनापति [[चित्रसेन]] को दुर्याधन को पकड़ लाने के लिए आदेश दिया । वह दुर्योधन की सारी सेना की परास्तकर उसे पकड़कर आकाश मार्ग से इन्द्र के पास ले जाने लगा । दुर्योधन बड़े जारे से चीख चिल्ला रहा था । उसके रोने का शब्द महाराज युधिष्ठिर के कानों में पहुँचा । उन्होंने दुर्योधन को छुड़ा लाने के लिए भीमसेन को आदेश दिया । किन्तु भीमसेन ने कहा– महाराज ! दुर्योधन हमारा अनिष्ट करना चाहता था । इसे जानकर ही हमारे परम हितैषी चित्रसेन उसे पकड़कर ले जा रहे हैं । हमारे लिए चुपचाप रहना ही अच्छा है । महाराज युधिष्ठिर से रहा नहीं गया । उन्होंने अर्जुन की तरफ देखकर कहा– भाई अर्जुन ! हमारा भाई दुर्योधन संकट में फँसा है । उसे छुड़ा लाना हमारा कर्तव्य है । हम परस्पर किसी बात के लिए लड़–झगड़ सकते हैं । किन्तु दूसरों के लिए हम 105 भाई एक हैं । शीघ्र ही दुर्योधन को छुड़ा लाओ । महारथी अर्जुन ने देव–सेनापति चित्रसेन के हाथों से दुर्योधन को छुड़ाकर अपने बाणों से सहज ही महाराज युधिष्ठिर के सामने उतार लिया । महाराज युधिष्ठिर बड़े प्रेम से उससे मिले तथा आदरपूर्वक उसे उसके निवास स्थल की ओर बिदा किया । किन्तु कोयला लाख साबुन लगाने से भी अपना कालापन नहीं छोड़ता । महाराज युधिष्ठिर का यह प्रेमपूर्ण व्यवहार भी उसके हृदय में शूल की भाँति चुभ गया । वह अपने को अपमानित समझ बहुत क्षुब्ध होकर [[हस्तिनापुर]] लौटा । जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोई । श्रीकृष्ण जिसकी रक्षा करते हैं, उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता – यह घटना भी यहीं हुई थी । पञ्चतीर्थ सरोवर के निकट इसी स्थान पर पाण्डवों और द्रौपदी की दिव्य मूर्तियाँ थीं । कुछ समय पहले यह स्थान जनशून्य होने पर इसमें से कुछ मूर्तियों को चोर चुरा कर ले गये और कुछ का अंग–भंग हो गया । तब ये बची हुई मूर्तियाँ निकट ही कामेश्वर मंदिर में पधराई गई । वे यहीं पर उपेक्षित रूप में पड़ी हुई हैं । पास ही धर्मकूप, धर्मकुण्ड और अनेक ऐसी स्थलियाँ हैं जिनका सम्बन्ध पाण्डवों से रहा दीखता है ।
एक समय की बात है। जब पाण्डव लोग यहीं निवास कर रहे थे। दुष्ट दुर्योधन को यह पता लगा। उसने पाण्डवों को नीचा दिखलाने के लिए अपने सारे भाईयों, परिकरों [[कर्ण]], [[शकुनि]] आदि बंधु-बान्धवों और चतुरंगिनी सेना के साथ [[काम्यवन]] में विमल कुण्ड के तट पर कुछ दिन के लिए उत्सव मनाना आरम्भ किया। यह बात [[इन्द्र]] को मालूम पड़ने पर उन्होंने अपने सेनापति चित्रसेन को दुर्योधन को पकड़ लाने के लिए आदेश दिया। वह दुर्योधन की सारी सेना को परास्त कर उसे पकड़कर आकाश मार्ग से इन्द्र के पास ले जाने लगा। दुर्योधन बड़े जोर से चीख चिल्ला रहा था। उसके रोने का शब्द [[युधिष्ठिर]] के कानों में पहुँचा। उन्होंने दुर्योधन को छुड़ा लाने के लिए [[भीम]] को आदेश दिया। किन्तु भीमसेन ने कहा- "महाराज ! दुर्योधन हमारा अनिष्ट करना चाहता था। इसे जानकर ही हमारे परम हितैषी चित्रसेन उसे पकड़कर ले जा रहे हैं। हमारे लिए चुपचाप रहना ही अच्छा है।" युधिष्ठिर से रहा नहीं गया। उन्होंने [[अर्जुन]] की ओर देखकर कहा- "भाई अर्जुन! हमारा भाई दुर्योधन संकट में फँसा है। उसे छुड़ा लाना हमारा कर्तव्य है। हम परस्पर किसी बात के लिए लड़–झगड़ सकते हैं। किन्तु दूसरों के लिए हम 105 भाई एक हैं। शीघ्र ही [[दुर्योधन]] को छुड़ा लाओ।


==सम्बंधित लिंक==
महारथी अर्जुन ने देव-सेनापति चित्रसेन के हाथों से दुर्योधन को छुड़ाकर अपने बाणों से सहज ही महाराज युधिष्ठिर के सामने उतार लिया। महाराज युधिष्ठिर बड़े प्रेम से उससे मिले तथा आदरपूर्वक उसे उसके निवास स्थल की ओर विदा किया। किन्तु कोयला लाख साबुन लगाने से भी अपना कालापन नहीं छोड़ता। युधिष्ठिर का यह प्रेमपूर्ण व्यवहार भी उसके हृदय में शूल की भाँति चुभ गया। वह अपने को अपमानित समझ बहुत क्षुब्ध होकर [[हस्तिनापुर]] लौटा। 'जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोई।' श्रीकृष्ण जिसकी रक्षा करते हैं, उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता, यह घटना भी यहीं हुई थी। पंचतीर्थ सरोवर के निकट इसी स्थान पर पाण्डवों और द्रौपदी की दिव्य मूर्तियाँ थीं। कुछ समय पहले यह स्थान जनशून्य होने पर इसमें से कुछ मूर्तियों को चोर चुराकर ले गये और कुछ का अंग-भंग हो गया। तब ये बची हुई मूर्तियाँ निकट ही कामेश्वर मंदिर में पधराई गई। वे यहीं पर उपेक्षित रूप में पड़ी हुई हैं। पास ही धर्मकूप, धर्मकुण्ड और अनेक ऐसी स्थलियाँ हैं, जिनका सम्बन्ध पाण्डवों से रहा दीखता है।
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Latest revision as of 07:42, 23 June 2017

धर्म कुण्ड काम्यवन
विवरण धर्म कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में स्थित है यहाँ पाँचों पाण्डवों ने अपने वनवास के समय में बहुत दिनों तक निवास किया था।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला मथुरा
प्रसिद्धि हिन्दू धार्मिक स्थल
कब जाएँ कभी भी
यातायात बस, कार, ऑटो आदि
क्या देखें कामेश्वर मंदिर, नर-नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, पंच पाण्डव कुण्ड (पंच तीर्थ), विश्वेश्वर महादेवादि'।
संबंधित लेख विमल कुण्ड काम्यवन, घोषरानी कुण्ड काम्यवन, दोहनी कुण्ड काम्यवन, पाण्डव, श्रीकृष्ण


अन्य जानकारी जब पाण्डव लोग यहीं निवास कर रहे थे। दुष्ट दुर्योधन को यह पता लगा। उसने पाण्डवों को नीचा दिखलाने के लिए अपने सारे भाईयों, परिकरों कर्ण, शकुनि आदि बंधु-बान्धवों और चतुरंगिनी सेना के साथ काम्यवन में विमल कुण्ड के तट पर कुछ दिन के लिए उत्सव मनाना आरम्भ किया।
अद्यतन‎

धर्म कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में स्थित है। यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं। पास में ही 'विशाखा' नामक वेदी है। श्रवण नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है। धर्मकुण्ड के अन्तर्गत 'नर-नारायण कुण्ड', 'नील वराह', 'पंच पाण्डव', 'हनुमान जी', 'पंच पाण्डव कुण्ड' (पंच तीर्थ), 'मणिकर्णिका', 'विश्वेश्वर महादेवादि' दर्शनीय स्थल हैं।

प्रसंग

पाँचों पाण्डवों ने अपने वनवास के समय इस रमणीक काम्यवन में बहुत दिनों तक निवास किया था। यहाँ निवास करते समय एक दिन द्रौपदी तथा पाण्डवों को प्यास लगी। गर्मी के दिन थे, आसपास के सरोवर और जलस्रोत सूख गये थे। दूर-दूर तक कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था। युधिष्ठिर ने अपने परम पराक्रमी भ्राता भीम को एक पात्र देकर निर्मल जल लाने के लिए भेजा। बुद्धिमान भीम पक्षियों के गमनागमन को लक्ष्य कर कुछ आगे बढ़े। कुछ दूर अग्रसर होने पर उन्होंने निर्मल और सुगन्धित जल से भरे हुए एक सुन्दर सरोवर को देखा। वे बड़े प्यासे थे। उन्होंने सोचा पहले स्वयं जलपान कर पीछे भाईयों के लिए भी जल भरकर ले जाऊँगा। ऐसा सोचकर ज्यों ही वे सरोवर में उतरे, त्यों ही एक यक्ष उनके सामने प्रकट हुआ और बोला- "पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तत्पश्चात् जल पीने की धृष्टता करना, अन्यथा मारे जाओगे।

महापराक्रमी भीमसेन ने यक्ष के आदेश की उपेक्षा कर जलपान करने के लिए ज्यों ही अञ्जलि में जल उठाया, तत्क्षणात वे वहीं पर मूर्छित होकर गिर पड़े। इधर भाईयों के साथ महाराज युधिष्ठिर ने भीमसेन के आने में विलम्ब देखकर क्रमश: अर्जुन, नकुल और सहदेव को पानी लाने के लिए आदेश दिया; किन्तु उस सरोवर पर पहुँचकर सबकी वही गति हुई, जो भीम की हुई थी। क्योंकि उन्होंने भी यक्ष के आदेश की परवाह किये बिना जलपान करना चाहा था। अन्त में महाराज युधिष्ठिर भी वहीं पहुँचे। वहाँ पहुँचकर अपने भाईयों को मूर्छित पड़े हुए देखा। वे बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा पहले जलपान कर लूँ और फिर भाईयों को सचेत करने की चेष्टा करूँगा। ऐसा सोचकर वे ज्यों ही पानी पीने के लिए सरोवर में उतरे, त्यों ही उस यक्ष ने पहले की भाँति प्रकट होकर उसके प्रश्नों का सदुत्तर देकर जलपान करने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने धैर्य धारण कर यक्ष से प्रश्न करने का अनुरोध किया।

यक्ष ने पूछा- "सूर्य को कौन उदित करता है?"

युधिष्ठिर- "ब्रह्म सूर्य को उदित करता है।"

यक्ष- "पृथ्वी से भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है? वायु से भी तेज़ चलने वाला क्या है? और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है?"

युधिष्ठिर- "माता भूमि से भी भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज़ चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से भी अधिक संख्या में है।"

यक्ष- "लोक में सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है? उत्तम क्षमा क्या है?"

युधिष्ठिर- लोक में श्रेष्ठ धर्म दया है। सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों को सहना ही क्षमा है।

यक्ष- "मनुष्यों का दुर्जेय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है? साधु कौन है? असाधु कौन है?"

युधिष्ठिर- मनुष्यों का क्रोध ही दुर्जेय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि, समस्त प्राणियों का हित करने वाला साधु है। अजितेन्द्रिय निर्दय पुरुष ही असाधु है।

यक्ष- "सुखी कौन है? सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है? वार्ता क्या है?"

युधिष्ठिर- जिस पर कोई ऋण न हो और जो परदेश में नहीं है, किसी प्रकार साग-पात पकाकर खा ले, वही सुखी है। प्रतिदिन प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं, किन्तु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीवित रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है। तर्क की स्थिति नहीं है। श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। कोई एक ऐसा ऋषि नहीं, जिसका मत भिन्न न हो, अत: धर्म का तत्त्व अत्यन्त गूढ़ है। इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग है। इस माया-मोह रूप कड़ाह में काल समस्त प्राणियों को माह और ऋतु रूप कलछी से उलट-पलट कर सूर्यरूप अग्नि और दिन-रात रूप ईधन के द्वारा पका रहे हैं, यही वार्ता है।

यक्ष- "राजन ! तुमने हमारे प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दिया है। इसलिए अपने भाईयों में से किसी एक को तुम कहो वही जीवित हो सकता है।

युधिष्ठिर- हमारे इन भाईयों में से महाबाहु श्यामवर्ण वाले नकुल जीवित हो जाएँ।

यक्ष- "राजन ! जिसमें दस हज़ार हाथियों के समान बल है, उस भीम को तथा अद्वितीय धनुर्धर अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जीवित कराने की इच्छा क्यों है?"

युधिष्ठिर- मैं धर्म का त्याग नहीं कर सकता। मेरा ऐसा विचार है कि सबके प्रति समान भाव रखना ही परम धर्म है। मेरे पिता की कुन्ती और माद्री दो पत्नियाँ थीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिए जैसी कुन्ती हैं, वैसी ही माद्री भी हैं। दोनों के प्रति समान भाव रखना चाहता हूँ, इसलिए नकुल ही जीवित हो उठें।

यक्ष- "भक्त श्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काल से भी धर्म का विशेष आदर किया। इसलिए तुम्हारे सभी भाई जीवित हो उठें।"

यह यक्ष और कोई नहीं स्वयं धर्मराज (श्रीनारायण) थे। वे अपने पुत्र युधिष्ठिर के धर्म की परीक्षा लेना चाहते थे, जिसमें महाराज युधिष्ठिर उत्तीर्ण हुए।

दूसरा प्रसंग

जब पाण्डव द्रौपदी के साथ वनवास का समय यहाँ काट रहे थे, एक समय महारानी द्रौपदी अकेली विमल कुण्ड में स्नान करने गई थीं। पाण्डव लोग अपने निवास स्थान पर निश्चिन्त होकर भगवद कथा में निमग्न थे। इधर दुर्योधन का बहनोई जो पाण्डवों का भी बहनोई लगता था, द्रौपदी पर आसक्त था। वह पाण्डवों का अपमान करने के लिए इस अवसर की प्रतीक्षा में था कि द्रौपदी कहीं मुझे अकेली मिल जाए तो सहज ही उसका अपहरण कर लूँ। होनहारवश आज उसे द्रौपदी अपने निवास स्थान से दूर विमल कुण्ड पर स्नान करती हुई मिल गई। जयद्रथ ने द्रौपदी के निकट साम, दाम, दण्ड, भेद का अवलम्बन कर उसे अपने साथ अपने राज्य में ले जाने की चेष्टा की! किन्तु, पतिव्रता शिरोमणि ने दृढ़ता से उसके विचारों को अस्वीकार कर दिया, जिससे क्रोधित होकर जयद्रथ ने उसे बलपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया तथा बड़े वेग से घोड़ों को हाँकने लगा। द्रौपदी ज़ोर–ज़ोर से अर्जुन, भीम और कृष्ण को अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी। किसी प्रकार से उसकी चीख अर्जुन और भीम के कानों में पड़ी, वे दोनों महाबली तुरन्त बड़े वेगपूर्वक दौड़े। महारथी अर्जुन ने अपने अग्नि बाण से जयद्रथ का रथ रोक दिया। जयद्रथ रथ से कूदकर प्राणों को बचाने के लिए भागा किन्तु भीम ने उससे भी अधिक वेग से दौड़कर उसे पकड़ लिया। दोनों भाईयों ने जयद्रथ को पकड़कर द्रौपदी के सामने प्रस्तुत किया, फिर तीनों युधिष्ठिर के पास आये।

भीम ने क्रोधित होकर कहा- "इस आततायी को अभी तुरन्त मार डालना चाहिए। अर्जुन ने भी भीम के प्रस्ताव का समर्थन किया। किंन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने दोनों भाईयों को शान्त करते हुए कहा- "इस नीच ने द्रौपदी के चरणों में अपराध किया है। इसलिए द्रौपदी से पूछकर ही इसे उचित दण्ड देना चाहिए। द्रौपदी ने गम्भीर होकर कहा- "जैसा भी हो इसने भयंकर अपराध तो किया है, किन्तु यह आप लोगों की बहन का पति है। मैं अपनी ननद को विधवा होकर सारा जीवन रोते हुए नहीं देखना चाहती। इसे छोड़ देना ही उचित है।" किन्तु भीम उसे मार ही डालना चाहते थे। अन्त में यह निश्चित हुआ कि किसी सम्मानीय व्यक्ति का अपमान करना भी मृत्यु के समान है। इसलिए इसका सिर मुण्डन कर दिया जाये और पाँच चोटियाँ रख दी जाएँ, उसी प्रकार ही मूँछ मुड़ाकर दाढ़ी रख दी जाये और उसे छोड़ दिया जाये। अन्त में अर्जुन ने वैसे ही मुण्डन कर एवं मूँछ काटकर, अपमानित कर उसे छोड़ दिया। जयद्रथ घोर अपमानित होकर चला गया और पाण्डवों का वध करने के लिए घोर तपस्या करने लगा। किन्तु अन्त में महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण के परामर्श से अर्जुन के हाथों वह मारा गया।

तीसरा प्रसंग पाण्डव द्रौपदी के साथ वनवास के समय यहीं निवास कर रहे थे। उधर दुष्ट दुर्योधन पाण्डवों को समूल नष्ट कर देने के लिए सदा चिन्तित रहता था। उसने महर्षि दुर्वासा को निमन्त्रित कर बड़े ही सम्मान और आदर के साथ परमस्वादिष्ट षडरस भोजन कराकर उन्हें तृप्त किया। उसकी सेवा से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा ने उसे कोई भी वरदान माँगने के लिए कहा। उसने हाथ जोड़कर महर्षि से यह वरदान माँगा कि महाराज युधिष्ठिर मेरे बड़े भईया हैं। आप कृपाकर अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ उनके निवास स्थान पर आतिथ्य ग्रहण करें। किन्तु आप लोग दोपहर के पश्चात् तृतीय प्रहर में ही उनका आतिथ्य ग्रहण करें। आजकल पाण्डव लोग काम्यवन में निवासकर रहे हैं। दुर्योधन यह भलीभाँति जानता था कि पाण्डव लोग आतिथियों की भलीभाँति सेवा करते हैं। द्रौपदी के पास सूर्यदेव की दी हुई एक ऐसी बटलोई है, जिसमें अन्न पाक करने पर अगणित व्यक्तियों को तृप्ति पूर्वक भोजन कराया जा सकता है, किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उसे माँजकर रख देने के पश्चात् उससे कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। द्रौपदी अतिथियों और पाँचों पाण्डवों को खिला-पिलाकर तृतीय प्रहर से पूर्व अवश्य ही उस बटलोई को माँजकर रख देती है। अत: तृतीय प्रहर के बाद दुर्वासा के पहुँचने पर उस समय पाण्डव लोग साठ हज़ार शिष्यों सहित दुर्वासा को भोजन नहीं करा सकेंगे। फलत: महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि पाण्डवों को अपने अभिशाप से भस्म कर देंगे।

महर्षि दुर्वासा तो कृष्णभक्त पाण्डवों की महिमा को भलीभाँति जानते हैं परन्तु उनकी अटपटी चेष्टाओं को समझ पाना देवताओं के लिए भी बड़ा ही कठिन है। कब, किसलिए वे क्या करते हैं, यह वे ही जानते हैं। अत: वे साठ हज़ार ऋषियों को साथ लेकर तृतीय प्रहर में पाण्डवों के निवास स्थल काम्यवन में पहुँचे। उन्हें देखकर पाण्डव-गण बड़े प्रसन्न हुए। युधिष्ठिर ने उनकी पूजा कर उनसे आतिथ्य ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने कहा- "हम लोग अभी विमलकुण्ड में स्नान करने के लिए जा रहे हैं। स्नानादि से निवृत्त होकर तुरन्त आ रहे हैं। भोजन की व्यवस्था ठीक रखना। हम यहीं पर भोजन करेंगे।" ऐसा कहकर वे सारे ऋषि-शिष्यों को लेकर स्नान करने चले गये।

इधर पाण्डव बड़े चिन्तित हुए। भोजन की क्या व्यवस्था हो? उन्होंने द्रौपदी को बुलाया और उससे साठ हज़ार ऋषियों के भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा। परन्तु उसकी बटलोई माँजी हुई औंधी पड़ी हुई थी। वह सोच रही थी कि क्या करूँ? उसे पाण्डवों को बचाने के लिए कोई भी उपाय सूझ नहीं रहा था। अन्त में अपने प्रियसखा श्रीकृष्ण को बड़े आर्त स्वर से पुकारने लगी। उसकी पुकार सुनकर द्वारकानाथ भला कैसे रुक सकते थे? तुरन्त द्रौपदी के सामने प्रकट हो गये और बोले- "सखि ! मुझे बड़ी भूख लगी है। मुझे कुछ खिलाओ।" द्रौपदी ने उत्तर दिया- "तुम्हें भूख लगी हुई है, इधर घर में कुछ भी नहीं है। मेरी बटलोई भी मँजी हुई औंधी पड़ी हुई है। परमक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ अभी तुरन्त भोजन करने के लिए पधारने वाले हैं। भोजन नहीं मिलने पर पाण्डवों का सर्वनाश अनिवार्य है। अत: पहले इसकी व्यवस्था कीजिये।" श्रीकृष्ण ने कहा- "बिना कुछ खाये-पीये मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जरा अपनी बटलोई लाना तो। द्रौपदी ने करुण स्वर से कहा- "बटलोई में कुछ भी नहीं है। मैंने उसे भलीभाँति माँजकर रख दिया है। श्रीकृष्ण- "फिर भी लाओ तो देखूँ।"

द्रौपदी ने बटलोई को लाकर कृष्ण के हाथों में दे दिया। श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उस बटलोई के भीतर कहीं एक छोटा सा साग का टुकड़ा चिपका हुआ था। श्रीकृष्ण ने उसे अपने नाख़ून से कुरेदकर अपने मुख में डाल लिया। फिर द्रौपदी के हाथों से पेट भरकर पानी पीया। तत्पश्चात् 'तृप्तोऽस्मि ! तृप्तोऽस्मि !' कहकर अपने पेट पर हाथ फेरने लगे। श्रीकृष्ण को तृप्ति की डकार भी आने लगी। उन्होंने भीमसेन को ऋषियों को शीघ्र ही बुला लाने के लिए भेजा। महापराक्रमी भीम अपने हाथ में गदा लेकर ऋषियों को बुलाने विमलकुण्ड की ओर गये।

महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य विमलकुण्ड में स्नान कर रहे थे। अचानक उनका पेट पूर्णरूप से भर गया। सबको भोजन करने के पश्चात् वाली डकारें भी आने लगीं। उसी समय भीम को अपनी ओर आते देखा तो दुर्वासा को अम्बरीष महाराज की घटना का स्मरण हो आया। वे बहुत डरे और सारे शिष्यों को लेकर जल्दी से जल्दी आकाश मार्ग से भागकर महर्षि लोक में चले गये। भीम वहाँ पहुँचकर ऋषियों को न पाकर लौट आये तथा युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को बतलाया कि चारों ओर खोजकर भी मैं उनको नहीं पा सका। द्रौपदी और पाण्डव श्रीकृष्ण से सब कुछ जानकर निश्चिन्त हो गये। श्रीकृष्ण के परितृप्त होने पर विश्व परितृप्त हो जाता है। इस उपाख्यान का विश्व के लिए यही सन्देश है। श्रीकृष्ण की यह लीला यहीं पर हुई थी।

चतुर्थ प्रसंग

एक समय की बात है। जब पाण्डव लोग यहीं निवास कर रहे थे। दुष्ट दुर्योधन को यह पता लगा। उसने पाण्डवों को नीचा दिखलाने के लिए अपने सारे भाईयों, परिकरों कर्ण, शकुनि आदि बंधु-बान्धवों और चतुरंगिनी सेना के साथ काम्यवन में विमल कुण्ड के तट पर कुछ दिन के लिए उत्सव मनाना आरम्भ किया। यह बात इन्द्र को मालूम पड़ने पर उन्होंने अपने सेनापति चित्रसेन को दुर्योधन को पकड़ लाने के लिए आदेश दिया। वह दुर्योधन की सारी सेना को परास्त कर उसे पकड़कर आकाश मार्ग से इन्द्र के पास ले जाने लगा। दुर्योधन बड़े जोर से चीख चिल्ला रहा था। उसके रोने का शब्द युधिष्ठिर के कानों में पहुँचा। उन्होंने दुर्योधन को छुड़ा लाने के लिए भीम को आदेश दिया। किन्तु भीमसेन ने कहा- "महाराज ! दुर्योधन हमारा अनिष्ट करना चाहता था। इसे जानकर ही हमारे परम हितैषी चित्रसेन उसे पकड़कर ले जा रहे हैं। हमारे लिए चुपचाप रहना ही अच्छा है।" युधिष्ठिर से रहा नहीं गया। उन्होंने अर्जुन की ओर देखकर कहा- "भाई अर्जुन! हमारा भाई दुर्योधन संकट में फँसा है। उसे छुड़ा लाना हमारा कर्तव्य है। हम परस्पर किसी बात के लिए लड़–झगड़ सकते हैं। किन्तु दूसरों के लिए हम 105 भाई एक हैं। शीघ्र ही दुर्योधन को छुड़ा लाओ।

महारथी अर्जुन ने देव-सेनापति चित्रसेन के हाथों से दुर्योधन को छुड़ाकर अपने बाणों से सहज ही महाराज युधिष्ठिर के सामने उतार लिया। महाराज युधिष्ठिर बड़े प्रेम से उससे मिले तथा आदरपूर्वक उसे उसके निवास स्थल की ओर विदा किया। किन्तु कोयला लाख साबुन लगाने से भी अपना कालापन नहीं छोड़ता। युधिष्ठिर का यह प्रेमपूर्ण व्यवहार भी उसके हृदय में शूल की भाँति चुभ गया। वह अपने को अपमानित समझ बहुत क्षुब्ध होकर हस्तिनापुर लौटा। 'जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोई।' श्रीकृष्ण जिसकी रक्षा करते हैं, उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता, यह घटना भी यहीं हुई थी। पंचतीर्थ सरोवर के निकट इसी स्थान पर पाण्डवों और द्रौपदी की दिव्य मूर्तियाँ थीं। कुछ समय पहले यह स्थान जनशून्य होने पर इसमें से कुछ मूर्तियों को चोर चुराकर ले गये और कुछ का अंग-भंग हो गया। तब ये बची हुई मूर्तियाँ निकट ही कामेश्वर मंदिर में पधराई गई। वे यहीं पर उपेक्षित रूप में पड़ी हुई हैं। पास ही धर्मकूप, धर्मकुण्ड और अनेक ऐसी स्थलियाँ हैं, जिनका सम्बन्ध पाण्डवों से रहा दीखता है।

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