अहम का वहम -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

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         कहते हैं कि [[अकबर|बादशाह अकबर]] [[वृन्दावन]] में [[स्वामी हरिदास]] के दर्शन करने संगीत सम्राट [[तानसेन]] के साथ आया था। स्वामी जी के मुख से [[यमुना]] की महिमा सुनकर अकबर की इच्छा यमुना पूजन करने की हुई। सभी पंडे पुजारी जानते थे कि जो भी अकबर को यमुना पूजन करवाएगा उसे अकबर बहुत बड़ा इनाम देगा। सभी में होड़ लगी थी कि कौन कराएगा पूजन !
         कहते हैं कि [[अकबर|बादशाह अकबर]] [[वृन्दावन]] में [[स्वामी हरिदास]] के दर्शन करने संगीत सम्राट [[तानसेन]] के साथ आया था। स्वामी जी के मुख से [[यमुना]] की महिमा सुनकर अकबर की इच्छा यमुना पूजन करने की हुई। सभी पंडे पुजारी जानते थे कि जो भी अकबर को यमुना पूजन करवाएगा उसे अकबर बहुत बड़ा इनाम देगा। सभी में होड़ लगी थी कि कौन कराएगा पूजन !
         आख़िरकार तानसेन ने एक पुजारी को चुना जो सबसे अधिक विद्वान और बहुत वृद्ध था। जब पूजन हो गया तो अकबर ने पुजारी को एकान्त में ले जाकर यमुना की रेत से ही उठाकर एक 'फूटी कौड़ी' पुरस्कार के रूप में दी। पुजारी ने अकबर को विधिवत् आशीर्वाद दिया और पुरस्कार के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया।
         आख़िरकार तानसेन ने एक पुजारी को चुना जो सबसे अधिक विद्वान् और बहुत वृद्ध था। जब पूजन हो गया तो अकबर ने पुजारी को एकान्त में ले जाकर यमुना की रेत से ही उठाकर एक 'फूटी कौड़ी' पुरस्कार के रूप में दी। पुजारी ने अकबर को विधिवत् आशीर्वाद दिया और पुरस्कार के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया।
         कोई नहीं जानता था कि अकबर ने पुजारी को क्या दान दिया!  यहाँ तक कि तानसेन भी नहीं। [[मथुरा]]-वृन्दावन में तो सबने यही समझा कि पुजारी को अथाह संपत्ति मिली होगी। सच्चाई तो केवल पुजारी और अकबर को ही मालूम थी।
         कोई नहीं जानता था कि अकबर ने पुजारी को क्या दान दिया!  यहाँ तक कि तानसेन भी नहीं। [[मथुरा]]-वृन्दावन में तो सबने यही समझा कि पुजारी को अथाह संपत्ति मिली होगी। सच्चाई तो केवल पुजारी और अकबर को ही मालूम थी।
         लोगों ने पुजारी से पूछा-
         लोगों ने पुजारी से पूछा-
"बादशाह ने तुम्हें क्या दान दिया ?"
"बादशाह ने तुम्हें क्या दान दिया ?"
"सम्राट अकबर बहुत ही दयालु और दानवीर हैं। उन्होंने मुझे ऐसी चीज़ दी है जिसे मैं पूरे जीवन भर भी ख़र्च करने में लगा रहूँ, ख़र्च नहीं होगी।"
"सम्राट अकबर बहुत ही दयालु और दानवीर हैं। उन्होंने मुझे ऐसी चीज़ दी है जिसे मैं पूरे जीवन भर भी ख़र्च करने में लगा रहूँ, ख़र्च नहीं होगी।"
         पुजारी ने तो सच ही बताया। इसमें क्या दो राय है कि फूटी कौड़ी का कोई मोल नहीं है और जिसका कोई मोल नहीं उसको हम ख़र्च करेंगे भी कैसे ?  लेकिन लोगों ने समझा कि निश्चित ही अनुपम उपहार दिया गया है। पुजारी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। जो कोई भी मथुरा-वृन्दावन आता, वही चाहता कि उसका यमुना पूजन वही पुजारी करवाए जिसने कि अकबर से यमुना पूजन कराया। सम्राट के पुरोहित को कौन अपना पुरोहित नहीं बनाना चाहेगा। इस तरह पुजारी पर बहुत धन-संपत्ति एकत्रित होने लगी।  
         पुजारी ने तो सच ही बताया। इसमें क्या दो राय है कि फूटी कौड़ी का कोई मोल नहीं है और जिसका कोई मोल नहीं उसको हम ख़र्च करेंगे भी कैसे ?  लेकिन लोगों ने समझा कि निश्चित ही अनुपम उपहार दिया गया है। पुजारी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। जो कोई भी मथुरा-वृन्दावन आता, वही चाहता कि उसका यमुना पूजन वही पुजारी करवाए जिसने कि अकबर से यमुना पूजन कराया। सम्राट के पुरोहित को कौन अपना पुरोहित नहीं बनाना चाहेगा। इस तरह पुजारी पर बहुत धन-संपत्ति एकत्रित होने लगी।  
         यह बात तानसेन तक पहुँची और फिर अकबर को पता चला। अकबर को अपार आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जो दान उसने पुजारी को दिया था वह इतना क़ीमती था कि सारे जीवन में उसे ख़र्च नहीं किया जा सकता। पुजारी को अकबर ने राजधानी [[आगरा]] बुलवाया और एकान्त में ले जाकर पूछा-
         यह बात तानसेन तक पहुँची और फिर अकबर को पता चला। अकबर को अपार आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जो दान उसने पुजारी को दिया था वह इतना क़ीमती था कि सारे जीवन में उसे ख़र्च नहीं किया जा सकता। पुजारी को अकबर ने राजधानी [[आगरा]] बुलवाया और एकान्त में ले जाकर पूछा-
         "पुजारी जी!  मैंने आपको दान में एक [[कौड़ी]] दी थी और वह भी फूटी हुई थी फिर ये अफ़वाह कैसे हुई और आपके पास इतनी धन संपदा कहाँ से आई ये क्या रहस्य है"
         "पुजारी जी!  मैंने आपको दान में एक [[कौड़ी]] दी थी और वह भी फूटी हुई थी फिर ये अफ़वाह कैसे हुई और आपके पास इतनी धन संपदा कहाँ से आई, ये क्या रहस्य है ?�"
         "इसमें कोई रहस्य नहीं है महाराज,  न ही कोई झूठ है। यह सत्य है कि आपने मुझे एक फूटी कौड़ी ही दी थी, जिसका कि बाज़ार में कोई मोल नहीं है, अब आप ही बताइए कि मैं उस फूटी कौड़ी से भला क्या ख़रीद सकता हूँ ? महाराज आपने मुझे यमुना पूजन के लिए चुना,  यह मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा अवसर था। इस अवसर का लाभ उठा कर मैं कुछ अद्भुत करना चाहता था,  मैं यह भी जानता था कि ऐसे अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते और मैं इतना मूर्ख नहीं कि सम्राट अकबर के उपहार का अपमान करूँ, इसलिए मैंने अपनी छोटी सी बुद्धि से उस फूटी कौड़ी को ही अपनी सफलता का कारण बना दिया।" इसके बाद अकबर ने उस पुजारी को बहुत इनाम देकर सम्मान के साथ विदा किया।
         "इसमें कोई रहस्य नहीं है महाराज,  न ही कोई झूठ है। यह सत्य है कि आपने मुझे एक फूटी कौड़ी ही दी थी, जिसका कि बाज़ार में कोई मोल नहीं है, अब आप ही बताइए कि मैं उस फूटी कौड़ी से भला क्या ख़रीद सकता हूँ ? महाराज आपने मुझे यमुना पूजन के लिए चुना,  यह मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा अवसर था। इस अवसर का लाभ उठा कर मैं कुछ अद्भुत करना चाहता था,  मैं यह भी जानता था कि ऐसे अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते और मैं इतना मूर्ख नहीं कि सम्राट अकबर के उपहार का अपमान करूँ, इसलिए मैंने अपनी छोटी सी बुद्धि से उस फूटी कौड़ी को ही अपनी सफलता का कारण बना दिया।" इसके बाद अकबर ने उस पुजारी को बहुत इनाम देकर सम्मान के साथ विदा किया।


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         आइए इस पर चर्चा करते हैं...
         आइए इस पर चर्चा करते हैं...
         इन तीनों की कम से कम एक बात ऐसी है जिसे लगभग सभी जानते हैं-
         इन तीनों की कम से कम एक बात ऐसी है जिसे लगभग सभी जानते हैं-
         धीरूभाई अंबानी अक्सर कहा करते थे "मुझे किसी भी सरकारी व्यक्ति का अभिवादन करने में कोई संकोच नहीं है और मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उसका पद क्या है, भले ही वह चपरासी ही क्यों न हो।"
         धीरूभाई अंबानी अक्सर कहा करते थे "मुझे किसी भी सरकारी व्यक्ति का अभिवादन करने में कोई संकोच नहीं है और मुझे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसका पद क्या है, भले ही वह चपरासी ही क्यों न हो।"
नारायण मूर्ति ने इंफ़ोसिस में सभी कर्मचारियों को निवेशक के रूप में हिस्सेदार बना लिया। बताया जाता है कि उनके वाहन चालक को भी इंफ़ोसिस में निवेशक होने का गर्व था।
नारायण मूर्ति ने इंफ़ोसिस में सभी कर्मचारियों को निवेशक के रूप में हिस्सेदार बना लिया। बताया जाता है कि उनके वाहन चालक को भी इंफ़ोसिस में निवेशक होने का गर्व था।
सुब्रतो राय ने अधिकतर ऐसे समय में प्रसिद्ध लोगों की आर्थिक सहायता की जब वे किसी न किसी कारण संकटग्रस्त थे। वे सभी व्यक्ति हमेशा के लिए सुब्रतो राय के समर्थक हो गए
सुब्रतो राय ने अधिकतर ऐसे समय में प्रसिद्ध लोगों की आर्थिक सहायता की जब वे किसी न किसी कारण संकटग्रस्त थे। वे सभी व्यक्ति हमेशा के लिए सुब्रतो राय के समर्थक हो गए
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कैसे होता है अहंकार का परित्याग ? क्या अहंकार कोई वस्त्र जैसी वस्तु है जिसे उतार कर फेंका जा सके और अहंकार ही सबसे बड़ी अड़चन क्यों है सफलता में ?  
कैसे होता है अहंकार का परित्याग ? क्या अहंकार कोई वस्त्र जैसी वस्तु है जिसे उतार कर फेंका जा सके और अहंकार ही सबसे बड़ी अड़चन क्यों है सफलता में ?  
         इसके लिए हमें मनुष्य के बचपन से शुरुआत करनी होगी। बच्चा जब पैदा होता है तो रोज़ाना 20-22 घंटे सोता है। यह समय धीरे-धीरे कम होता जाता है और जवान होने पर 8-9 घंटे की नींद रह जाती है। जैसे-जैसे नींद कम होती जाती है वैसे-वैसे ही मनुष्य के विकास की गति भी धीमी होती जाती है। जब अपने 'होने' का अहसास होने लगता है तब विकास थमने लगता है, अपनी ओर ध्यान देना प्रारम्भ हो जाता है और विकास का क्रम बाधित होने लगता है। हमने बुज़ुर्गों को अक्सर कहते सुना है कि बच्चों को कच्ची नींद मत जगाओ उनका विकास सोते में ही होता है। चिकित्सा विज्ञानी भी मानते हैं कि शरीर अपनी मरम्मत का कार्य सोते समय ही करता है। 18 से 25 वर्ष की उम्र के बाद मानव के शरीर का विकास रुक जाता है और साथ ही मस्तिष्क का भी। यह समय वह होता है जब हम अपनी ओर 'ध्यान' देना शुरू करते हैं। बचपन के दौर की तरह अपने प्रति बेसुध नहीं रहते। जितना हम स्वयं की ओर ध्यान देते हैं उतना ही हमारे विकास में बाधा आती है। यह विकास दोनों तरह का है शरीर का भी और बुद्धि का भी। साथ ही सफलता के संभावना भी बहुत कम हो जाती है। इस बात को समझना पड़ेगा कि ऐसा क्यों होता है ?
         इसके लिए हमें मनुष्य के बचपन से शुरुआत करनी होगी। बच्चा जब पैदा होता है तो रोज़ाना 20-22 घंटे सोता है। यह समय धीरे-धीरे कम होता जाता है और जवान होने पर 8-9 घंटे की नींद रह जाती है। जैसे-जैसे नींद कम होती जाती है वैसे-वैसे ही मनुष्य के विकास की गति भी धीमी होती जाती है। जब अपने 'होने' का अहसास होने लगता है तब विकास थमने लगता है, अपनी ओर ध्यान देना प्रारम्भ हो जाता है और विकास का क्रम बाधित होने लगता है। हमने बुज़ुर्गों को अक्सर कहते सुना है कि बच्चों को कच्ची नींद मत जगाओ उनका विकास सोते में ही होता है। चिकित्सा विज्ञानी भी मानते हैं कि शरीर अपनी मरम्मत का कार्य सोते समय ही करता है। 18 से 25 वर्ष की उम्र के बाद मानव के शरीर का विकास रुक जाता है और साथ ही मस्तिष्क का भी। यह समय वह होता है जब हम अपनी ओर 'ध्यान' देना शुरू करते हैं। बचपन के दौर की तरह अपने प्रति बेसुध नहीं रहते। जितना हम स्वयं की ओर ध्यान देते हैं उतना ही हमारे विकास में बाधा आती है। यह विकास दोनों तरह का है शरीर का भी और बुद्धि का भी। साथ ही सफलता के संभावना भी बहुत कम हो जाती है। इस बात को समझना पड़ेगा कि ऐसा क्यों होता है ?
         [[रामकृष्ण परमहंस]] को परमहंस क्यों कहा गया ? कहा ही नहीं वरन माना भी जाता है। इसका कारण था कि वे स्वयं के प्रति बेसुध रहते थे। [[कबीर]] क्यों इतने सहज थे ? कारण वही है, ख़ुद को भुलाए रखने की प्रक्रिया को उन्होंने बचपन से अंतिम समय तक बनाए रखा। कहीं भी यह श्रृंखला टूटने नहीं दी और अहंकारों की श्रृंखला प्रारम्भ नहीं होने दी। वे जिए भी 125 वर्ष तक। न्यूटन, [[अलबर्ट आइंस्टाइन|आइंस्टाइन]],  फ्रॉयड जैसी अनेक प्रसिद्ध हस्तियों के अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन उदाहरणों में उनके स्वयं को भुलाए रखने की और अपनी साधना की ओर ही ध्यान बनाए रखने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो साधना में खाना-पीना तक भूल जाते थे।
         [[रामकृष्ण परमहंस]] को परमहंस क्यों कहा गया ? कहा ही नहीं वरन् माना भी जाता है। इसका कारण था कि वे स्वयं के प्रति बेसुध रहते थे। [[कबीर]] क्यों इतने सहज थे ? कारण वही है, ख़ुद को भुलाए रखने की प्रक्रिया को उन्होंने बचपन से अंतिम समय तक बनाए रखा। कहीं भी यह श्रृंखला टूटने नहीं दी और अहंकारों की श्रृंखला प्रारम्भ नहीं होने दी। वे जिए भी 125 वर्ष तक। न्यूटन, [[अलबर्ट आइंस्टाइन|आइंस्टाइन]],  फ्रॉयड जैसी अनेक प्रसिद्ध हस्तियों के अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन उदाहरणों में उनके स्वयं को भुलाए रखने की और अपनी साधना की ओर ही ध्यान बनाए रखने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो साधना में खाना-पीना तक भूल जाते थे।
         मैंने ऊपर लिखा है 'अहंकारों की श्रृंखला'। ऐसा लगता है जैसे अहंकार एक न होकर अनेक होते हों और आते-जाते रहते हों ? हाँ यह सही है बिल्कुल ऐसा ही है। जिस अहंकार का प्रदर्शन हम कमज़ोर पर कर रहे होते हैं,  वही अहंकार किसी शक्तिशाली के सामने आते ही छूमंतर हो जाता है। अहंकार सबसे अधिक रूप बदलता है और सबसे तेज़ भी। विद्वानों ने मन की गति को तीव्रतम माना है वह 'मन' भी इसी अहंकार से रचा बसा रहता है। मन भी अहंकार का ही एक रूप है। जब हम अहंकार से मुक्त होते हैं तो हमारा मन भी निरर्थक गति से रिक्त होता है। जितने भी समाज सुधारक और संत हुए हैं उन्होंने 'मैं' को भुलाने की ही बात कही है। यही 'वह' मैं है जो हमारे भीतर अहंकारों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला बनाता है। इसी 'मैं' के भीतर स्वयं को क़ैद रखकर हम विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत सृजन आदि कर पाने से वंचित रह जाते हैं।
         मैंने ऊपर लिखा है 'अहंकारों की श्रृंखला'। ऐसा लगता है जैसे अहंकार एक न होकर अनेक होते हों और आते-जाते रहते हों ? हाँ यह सही है बिल्कुल ऐसा ही है। जिस अहंकार का प्रदर्शन हम कमज़ोर पर कर रहे होते हैं,  वही अहंकार किसी शक्तिशाली के सामने आते ही छूमंतर हो जाता है। अहंकार सबसे अधिक रूप बदलता है और सबसे तेज़ भी। विद्वानों ने मन की गति को तीव्रतम माना है वह 'मन' भी इसी अहंकार से रचा बसा रहता है। मन भी अहंकार का ही एक रूप है। जब हम अहंकार से मुक्त होते हैं तो हमारा मन भी निरर्थक गति से रिक्त होता है। जितने भी समाज सुधारक और संत हुए हैं उन्होंने 'मैं' को भुलाने की ही बात कही है। यही 'वह' मैं है जो हमारे भीतर अहंकारों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला बनाता है। इसी 'मैं' के भीतर स्वयं को क़ैद रखकर हम विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत सृजन आदि कर पाने से वंचित रह जाते हैं।
         हमारे आस-पास अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमें कोई न कोई विशेष प्रतिभा होती है लेकिन वे सफल नहीं होते और भाग्य को दोष देते मिलते हैं। जबकि वे यह नहीं जान पाते कि उनकी सफलता का रास्ता रोकने के लिए अहंकार हर समय उनके मस्तिष्क पर शासन करता है। प्रतिभा को निखारने के लिए हमें अपने ऊपर से ध्यान हटाना पड़ता है और उसके बाद ही हमारा ध्यान प्रतिभा को निखारने में लगता है। कोई जन्म से '[[ए. आर. रहमान|रहमान]]' या '[[गुलज़ार]]' नहीं होता वरन उसे ख़ुद को भुलाकर अपनी साधना पर ध्यान देना होता है तब कहीं जाकर सफलता मिलती है। इसे यूँ कहा जाय तो अधिक सही होगा कि साधना में इतना खो जाया जाय कि ख़ुद को भूल जाएँ।
         हमारे आस-पास अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमें कोई न कोई विशेष प्रतिभा होती है लेकिन वे सफल नहीं होते और भाग्य को दोष देते मिलते हैं। जबकि वे यह नहीं जान पाते कि उनकी सफलता का रास्ता रोकने के लिए अहंकार हर समय उनके मस्तिष्क पर शासन करता है। प्रतिभा को निखारने के लिए हमें अपने ऊपर से ध्यान हटाना पड़ता है और उसके बाद ही हमारा ध्यान प्रतिभा को निखारने में लगता है। कोई जन्म से '[[ए. आर. रहमान|रहमान]]' या '[[गुलज़ार]]' नहीं होता वरन् उसे ख़ुद को भुलाकर अपनी साधना पर ध्यान देना होता है तब कहीं जाकर सफलता मिलती है। इसे यूँ कहा जाय तो अधिक सही होगा कि साधना में इतना खो जाया जाय कि ख़ुद को भूल जाएँ।
         सिग्मन्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है और मनोविश्लेषण के प्रत्येक आयाम पर लिखा है। फ्रॉयड के विचार से मनुष्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण काम वासना है। उनका कहना है कि सॅक्स ही जीवन में सब कुछ करवाता है और मनुष्य के जीवन की धुरी काम वासना पर ही टिकी है। लेकिन जॉन ड्युई का कहना कुछ और ही है। अमरीका के मशहूर दार्शनिक और शिक्षा विद् जॉन ड्युई (Jhon Dewey 1869-1952) ने छात्रों को लिखाई-पढ़ाई वाली शिक्षा के स्थान पर अनुप्रयुक्त शिक्षा या व्यावहारिक शिक्षा पर नये और प्रभावशाली प्रयोग किए और इसी पर ज़ोर दिया ख़ैर... वे कहते हैं कि 'the deepest urge in human nature is “the desire to be important.”'
         सिग्मन्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है और मनोविश्लेषण के प्रत्येक आयाम पर लिखा है। फ्रॉयड के विचार से मनुष्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण काम वासना है। उनका कहना है कि सॅक्स ही जीवन में सब कुछ करवाता है और मनुष्य के जीवन की धुरी काम वासना पर ही टिकी है। लेकिन जॉन ड्युई का कहना कुछ और ही है। अमरीका के मशहूर दार्शनिक और शिक्षा विद् जॉन ड्युई (Jhon Dewey 1869-1952) ने छात्रों को लिखाई-पढ़ाई वाली शिक्षा के स्थान पर अनुप्रयुक्त शिक्षा या व्यावहारिक शिक्षा पर नये और प्रभावशाली प्रयोग किए और इसी पर ज़ोर दिया ख़ैर... वे कहते हैं कि 'the deepest urge in human nature is “the desire to be important.”'
अर्थात मनुष्य की सर्वोपरि इच्छा है 'महत्त्वपूर्ण बनना'। जॉन ड्युई का मानना है कि महत्त्वपूर्ण बनने की चाह मनुष्य को कुछ भी करवाने में सक्षम है। अब अधिकतर मनोवैज्ञानिक जॉन ड्युई से ही सहमत हैं फ्रॉयड से नहीं।
अर्थात् मनुष्य की सर्वोपरि इच्छा है 'महत्त्वपूर्ण बनना'। जॉन ड्युई का मानना है कि महत्त्वपूर्ण बनने की चाह मनुष्य को कुछ भी करवाने में सक्षम है। अब अधिकतर मनोवैज्ञानिक जॉन ड्युई से ही सहमत हैं फ्रॉयड से नहीं।
         बात तो जॉन ड्युई ने सही कही है क्योंकि महत्त्वपूर्ण बनने के लिए मनुष्य- बड़े से बड़ा त्याग,  हिंसा,  युद्ध, अपराध,  नरसंहार,  लालच,  पाप,  पुण्य आदि कुछ भी कर सकता है। यदि मनुष्य में यह इच्छा न होती तो अनेक युद्ध और अपराध न हुए होते। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें यदि राजा बनकर महत्त्व न मिला तो संन्यासी बनने तक का ज़िक्र आता है।
         बात तो जॉन ड्युई ने सही कही है क्योंकि महत्त्वपूर्ण बनने के लिए मनुष्य- बड़े से बड़ा त्याग,  हिंसा,  युद्ध, अपराध,  नरसंहार,  लालच,  पाप,  पुण्य आदि कुछ भी कर सकता है। यदि मनुष्य में यह इच्छा न होती तो अनेक युद्ध और अपराध न हुए होते। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें यदि राजा बनकर महत्त्व न मिला तो संन्यासी बनने तक का ज़िक्र आता है।
         महत्त्व प्राप्ति की इच्छा और सफल होना दोनों अलग-अलग बातें हैं। एक सफल जीवन का अर्थ एक सकारात्मक और समाज के हित का जीवन है जिसमें अपना हित भी निहित हो। महत्त्वपूर्ण होने की जहाँ तक बात है तो कोई भी किसी तरह भी हो सकता है।
         महत्त्व प्राप्ति की इच्छा और सफल होना दोनों अलग-अलग बातें हैं। एक सफल जीवन का अर्थ एक सकारात्मक और समाज के हित का जीवन है जिसमें अपना हित भी निहित हो। महत्त्वपूर्ण होने की जहाँ तक बात है तो कोई भी किसी तरह भी हो सकता है।
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इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी  
-आदित्य चौधरी  
<small>प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक</small>   
<small>संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक</small>   
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Latest revision as of 11:07, 9 February 2021

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अहम का वहम -आदित्य चौधरी


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        कहते हैं कि बादशाह अकबर वृन्दावन में स्वामी हरिदास के दर्शन करने संगीत सम्राट तानसेन के साथ आया था। स्वामी जी के मुख से यमुना की महिमा सुनकर अकबर की इच्छा यमुना पूजन करने की हुई। सभी पंडे पुजारी जानते थे कि जो भी अकबर को यमुना पूजन करवाएगा उसे अकबर बहुत बड़ा इनाम देगा। सभी में होड़ लगी थी कि कौन कराएगा पूजन !
        आख़िरकार तानसेन ने एक पुजारी को चुना जो सबसे अधिक विद्वान् और बहुत वृद्ध था। जब पूजन हो गया तो अकबर ने पुजारी को एकान्त में ले जाकर यमुना की रेत से ही उठाकर एक 'फूटी कौड़ी' पुरस्कार के रूप में दी। पुजारी ने अकबर को विधिवत् आशीर्वाद दिया और पुरस्कार के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया।
        कोई नहीं जानता था कि अकबर ने पुजारी को क्या दान दिया! यहाँ तक कि तानसेन भी नहीं। मथुरा-वृन्दावन में तो सबने यही समझा कि पुजारी को अथाह संपत्ति मिली होगी। सच्चाई तो केवल पुजारी और अकबर को ही मालूम थी।
        लोगों ने पुजारी से पूछा-
"बादशाह ने तुम्हें क्या दान दिया ?"
"सम्राट अकबर बहुत ही दयालु और दानवीर हैं। उन्होंने मुझे ऐसी चीज़ दी है जिसे मैं पूरे जीवन भर भी ख़र्च करने में लगा रहूँ, ख़र्च नहीं होगी।"
        पुजारी ने तो सच ही बताया। इसमें क्या दो राय है कि फूटी कौड़ी का कोई मोल नहीं है और जिसका कोई मोल नहीं उसको हम ख़र्च करेंगे भी कैसे ? लेकिन लोगों ने समझा कि निश्चित ही अनुपम उपहार दिया गया है। पुजारी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। जो कोई भी मथुरा-वृन्दावन आता, वही चाहता कि उसका यमुना पूजन वही पुजारी करवाए जिसने कि अकबर से यमुना पूजन कराया। सम्राट के पुरोहित को कौन अपना पुरोहित नहीं बनाना चाहेगा। इस तरह पुजारी पर बहुत धन-संपत्ति एकत्रित होने लगी।
        यह बात तानसेन तक पहुँची और फिर अकबर को पता चला। अकबर को अपार आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जो दान उसने पुजारी को दिया था वह इतना क़ीमती था कि सारे जीवन में उसे ख़र्च नहीं किया जा सकता। पुजारी को अकबर ने राजधानी आगरा बुलवाया और एकान्त में ले जाकर पूछा-
        "पुजारी जी! मैंने आपको दान में एक कौड़ी दी थी और वह भी फूटी हुई थी फिर ये अफ़वाह कैसे हुई और आपके पास इतनी धन संपदा कहाँ से आई, ये क्या रहस्य है ?�"
        "इसमें कोई रहस्य नहीं है महाराज, न ही कोई झूठ है। यह सत्य है कि आपने मुझे एक फूटी कौड़ी ही दी थी, जिसका कि बाज़ार में कोई मोल नहीं है, अब आप ही बताइए कि मैं उस फूटी कौड़ी से भला क्या ख़रीद सकता हूँ ? महाराज आपने मुझे यमुना पूजन के लिए चुना, यह मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा अवसर था। इस अवसर का लाभ उठा कर मैं कुछ अद्भुत करना चाहता था, मैं यह भी जानता था कि ऐसे अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते और मैं इतना मूर्ख नहीं कि सम्राट अकबर के उपहार का अपमान करूँ, इसलिए मैंने अपनी छोटी सी बुद्धि से उस फूटी कौड़ी को ही अपनी सफलता का कारण बना दिया।" इसके बाद अकबर ने उस पुजारी को बहुत इनाम देकर सम्मान के साथ विदा किया।

आइए अब भारतकोश पर वापस चलें...
        मित्रो ! यदि हम भी अवसर का लाभ उठाना सीख जाएँ तो सफलता बहुत आसान होती है। किसी कलाकार, साहित्यकार, नेता या वैज्ञानिक का उदाहरण न लेते हुए हम मात्र कुछ उद्यमियों का उदाहरण लेते हैं। भारत के आज़ादी के बाद तीन प्रसिद्ध उद्यमी ऐसे हैं जिन्होंने 10 से 25 हज़ार रुपयों से अपना कारोबार शुरु किया, धीरूभाई अंबानी (रिलाइंस), नारायण मूर्ति (इंफ़ोसिस) और सुब्रतो राय (सहारा)। न तो ये किसी अमीर घराने से संबंधित थे और न ही कोई उद्योग-व्यापार की उल्लेखनीय पृष्ठभूमि थी, फिर भी ये मुख्य उद्यमियों में से एक बने।
ऐसा क्या होता है उन लोगों में जो विभिन्न क्षेत्रों में सफल होते हैं ?
        आइए इस पर चर्चा करते हैं...
        इन तीनों की कम से कम एक बात ऐसी है जिसे लगभग सभी जानते हैं-
        धीरूभाई अंबानी अक्सर कहा करते थे "मुझे किसी भी सरकारी व्यक्ति का अभिवादन करने में कोई संकोच नहीं है और मुझे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसका पद क्या है, भले ही वह चपरासी ही क्यों न हो।"
नारायण मूर्ति ने इंफ़ोसिस में सभी कर्मचारियों को निवेशक के रूप में हिस्सेदार बना लिया। बताया जाता है कि उनके वाहन चालक को भी इंफ़ोसिस में निवेशक होने का गर्व था।
सुब्रतो राय ने अधिकतर ऐसे समय में प्रसिद्ध लोगों की आर्थिक सहायता की जब वे किसी न किसी कारण संकटग्रस्त थे। वे सभी व्यक्ति हमेशा के लिए सुब्रतो राय के समर्थक हो गए
        कोई एक नहीं, बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो किसी इंसान को सामान्य से विशेष बना देती हैं। जिसमें सबसे अहम् है अहंकार पर नियंत्रण या फिर अहंकार का परित्याग।
कैसे होता है अहंकार का परित्याग ? क्या अहंकार कोई वस्त्र जैसी वस्तु है जिसे उतार कर फेंका जा सके और अहंकार ही सबसे बड़ी अड़चन क्यों है सफलता में ?
        इसके लिए हमें मनुष्य के बचपन से शुरुआत करनी होगी। बच्चा जब पैदा होता है तो रोज़ाना 20-22 घंटे सोता है। यह समय धीरे-धीरे कम होता जाता है और जवान होने पर 8-9 घंटे की नींद रह जाती है। जैसे-जैसे नींद कम होती जाती है वैसे-वैसे ही मनुष्य के विकास की गति भी धीमी होती जाती है। जब अपने 'होने' का अहसास होने लगता है तब विकास थमने लगता है, अपनी ओर ध्यान देना प्रारम्भ हो जाता है और विकास का क्रम बाधित होने लगता है। हमने बुज़ुर्गों को अक्सर कहते सुना है कि बच्चों को कच्ची नींद मत जगाओ उनका विकास सोते में ही होता है। चिकित्सा विज्ञानी भी मानते हैं कि शरीर अपनी मरम्मत का कार्य सोते समय ही करता है। 18 से 25 वर्ष की उम्र के बाद मानव के शरीर का विकास रुक जाता है और साथ ही मस्तिष्क का भी। यह समय वह होता है जब हम अपनी ओर 'ध्यान' देना शुरू करते हैं। बचपन के दौर की तरह अपने प्रति बेसुध नहीं रहते। जितना हम स्वयं की ओर ध्यान देते हैं उतना ही हमारे विकास में बाधा आती है। यह विकास दोनों तरह का है शरीर का भी और बुद्धि का भी। साथ ही सफलता के संभावना भी बहुत कम हो जाती है। इस बात को समझना पड़ेगा कि ऐसा क्यों होता है ?
        रामकृष्ण परमहंस को परमहंस क्यों कहा गया ? कहा ही नहीं वरन् माना भी जाता है। इसका कारण था कि वे स्वयं के प्रति बेसुध रहते थे। कबीर क्यों इतने सहज थे ? कारण वही है, ख़ुद को भुलाए रखने की प्रक्रिया को उन्होंने बचपन से अंतिम समय तक बनाए रखा। कहीं भी यह श्रृंखला टूटने नहीं दी और अहंकारों की श्रृंखला प्रारम्भ नहीं होने दी। वे जिए भी 125 वर्ष तक। न्यूटन, आइंस्टाइन, फ्रॉयड जैसी अनेक प्रसिद्ध हस्तियों के अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन उदाहरणों में उनके स्वयं को भुलाए रखने की और अपनी साधना की ओर ही ध्यान बनाए रखने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो साधना में खाना-पीना तक भूल जाते थे।
        मैंने ऊपर लिखा है 'अहंकारों की श्रृंखला'। ऐसा लगता है जैसे अहंकार एक न होकर अनेक होते हों और आते-जाते रहते हों ? हाँ यह सही है बिल्कुल ऐसा ही है। जिस अहंकार का प्रदर्शन हम कमज़ोर पर कर रहे होते हैं, वही अहंकार किसी शक्तिशाली के सामने आते ही छूमंतर हो जाता है। अहंकार सबसे अधिक रूप बदलता है और सबसे तेज़ भी। विद्वानों ने मन की गति को तीव्रतम माना है वह 'मन' भी इसी अहंकार से रचा बसा रहता है। मन भी अहंकार का ही एक रूप है। जब हम अहंकार से मुक्त होते हैं तो हमारा मन भी निरर्थक गति से रिक्त होता है। जितने भी समाज सुधारक और संत हुए हैं उन्होंने 'मैं' को भुलाने की ही बात कही है। यही 'वह' मैं है जो हमारे भीतर अहंकारों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला बनाता है। इसी 'मैं' के भीतर स्वयं को क़ैद रखकर हम विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत सृजन आदि कर पाने से वंचित रह जाते हैं।
        हमारे आस-पास अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमें कोई न कोई विशेष प्रतिभा होती है लेकिन वे सफल नहीं होते और भाग्य को दोष देते मिलते हैं। जबकि वे यह नहीं जान पाते कि उनकी सफलता का रास्ता रोकने के लिए अहंकार हर समय उनके मस्तिष्क पर शासन करता है। प्रतिभा को निखारने के लिए हमें अपने ऊपर से ध्यान हटाना पड़ता है और उसके बाद ही हमारा ध्यान प्रतिभा को निखारने में लगता है। कोई जन्म से 'रहमान' या 'गुलज़ार' नहीं होता वरन् उसे ख़ुद को भुलाकर अपनी साधना पर ध्यान देना होता है तब कहीं जाकर सफलता मिलती है। इसे यूँ कहा जाय तो अधिक सही होगा कि साधना में इतना खो जाया जाय कि ख़ुद को भूल जाएँ।
        सिग्मन्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है और मनोविश्लेषण के प्रत्येक आयाम पर लिखा है। फ्रॉयड के विचार से मनुष्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण काम वासना है। उनका कहना है कि सॅक्स ही जीवन में सब कुछ करवाता है और मनुष्य के जीवन की धुरी काम वासना पर ही टिकी है। लेकिन जॉन ड्युई का कहना कुछ और ही है। अमरीका के मशहूर दार्शनिक और शिक्षा विद् जॉन ड्युई (Jhon Dewey 1869-1952) ने छात्रों को लिखाई-पढ़ाई वाली शिक्षा के स्थान पर अनुप्रयुक्त शिक्षा या व्यावहारिक शिक्षा पर नये और प्रभावशाली प्रयोग किए और इसी पर ज़ोर दिया ख़ैर... वे कहते हैं कि 'the deepest urge in human nature is “the desire to be important.”'
अर्थात् मनुष्य की सर्वोपरि इच्छा है 'महत्त्वपूर्ण बनना'। जॉन ड्युई का मानना है कि महत्त्वपूर्ण बनने की चाह मनुष्य को कुछ भी करवाने में सक्षम है। अब अधिकतर मनोवैज्ञानिक जॉन ड्युई से ही सहमत हैं फ्रॉयड से नहीं।
        बात तो जॉन ड्युई ने सही कही है क्योंकि महत्त्वपूर्ण बनने के लिए मनुष्य- बड़े से बड़ा त्याग, हिंसा, युद्ध, अपराध, नरसंहार, लालच, पाप, पुण्य आदि कुछ भी कर सकता है। यदि मनुष्य में यह इच्छा न होती तो अनेक युद्ध और अपराध न हुए होते। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें यदि राजा बनकर महत्त्व न मिला तो संन्यासी बनने तक का ज़िक्र आता है।
        महत्त्व प्राप्ति की इच्छा और सफल होना दोनों अलग-अलग बातें हैं। एक सफल जीवन का अर्थ एक सकारात्मक और समाज के हित का जीवन है जिसमें अपना हित भी निहित हो। महत्त्वपूर्ण होने की जहाँ तक बात है तो कोई भी किसी तरह भी हो सकता है।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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