अहम का वहम -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
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[[रामकृष्ण परमहंस]] को परमहंस क्यों कहा गया ? कहा ही नहीं वरन माना भी जाता है। इसका कारण था कि वे स्वयं के प्रति बेसुध रहते थे। [[कबीर]] क्यों इतने सहज थे ? कारण वही है, ख़ुद को भुलाए रखने की प्रक्रिया को उन्होंने बचपन से अंतिम समय तक बनाए रखा। कहीं भी यह श्रृंखला टूटने नहीं दी और अहंकारों की श्रृंखला प्रारम्भ नहीं होने दी। वे जिए भी 125 वर्ष तक। न्यूटन, [[अलबर्ट आइंस्टाइन|आइंस्टाइन]], फ्रॉयड जैसी अनेक प्रसिद्ध हस्तियों के अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन उदाहरणों में उनके स्वयं को भुलाए रखने की और अपनी साधना की ओर ही ध्यान बनाए रखने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो साधना में खाना-पीना तक भूल जाते थे। | [[रामकृष्ण परमहंस]] को परमहंस क्यों कहा गया ? कहा ही नहीं वरन माना भी जाता है। इसका कारण था कि वे स्वयं के प्रति बेसुध रहते थे। [[कबीर]] क्यों इतने सहज थे ? कारण वही है, ख़ुद को भुलाए रखने की प्रक्रिया को उन्होंने बचपन से अंतिम समय तक बनाए रखा। कहीं भी यह श्रृंखला टूटने नहीं दी और अहंकारों की श्रृंखला प्रारम्भ नहीं होने दी। वे जिए भी 125 वर्ष तक। न्यूटन, [[अलबर्ट आइंस्टाइन|आइंस्टाइन]], फ्रॉयड जैसी अनेक प्रसिद्ध हस्तियों के अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन उदाहरणों में उनके स्वयं को भुलाए रखने की और अपनी साधना की ओर ही ध्यान बनाए रखने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो साधना में खाना-पीना तक भूल जाते थे। | ||
मैंने ऊपर लिखा है 'अहंकारों की श्रृंखला'। ऐसा लगता है जैसे अहंकार एक न होकर अनेक होते हों और आते-जाते रहते हों ? हाँ यह सही है बिल्कुल ऐसा ही है। जिस अहंकार का प्रदर्शन हम कमज़ोर पर कर रहे होते हैं, वही अहंकार किसी शक्तिशाली के सामने आते ही छूमंतर हो जाता है। अहंकार सबसे अधिक रूप बदलता है और सबसे तेज़ भी। विद्वानों ने मन की गति को तीव्रतम माना है वह 'मन' भी इसी अहंकार से रचा बसा रहता है। मन भी अहंकार का ही एक रूप है। जब हम अहंकार से मुक्त होते हैं तो हमारा मन भी निरर्थक गति से रिक्त होता है। जितने भी समाज सुधारक और संत हुए हैं उन्होंने 'मैं' को भुलाने की ही बात कही है। यही 'वह' मैं है जो हमारे भीतर अहंकारों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला बनाता है। इसी 'मैं' के भीतर स्वयं को क़ैद रखकर हम विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत सृजन आदि कर पाने से वंचित रह जाते हैं। | मैंने ऊपर लिखा है 'अहंकारों की श्रृंखला'। ऐसा लगता है जैसे अहंकार एक न होकर अनेक होते हों और आते-जाते रहते हों ? हाँ यह सही है बिल्कुल ऐसा ही है। जिस अहंकार का प्रदर्शन हम कमज़ोर पर कर रहे होते हैं, वही अहंकार किसी शक्तिशाली के सामने आते ही छूमंतर हो जाता है। अहंकार सबसे अधिक रूप बदलता है और सबसे तेज़ भी। विद्वानों ने मन की गति को तीव्रतम माना है वह 'मन' भी इसी अहंकार से रचा बसा रहता है। मन भी अहंकार का ही एक रूप है। जब हम अहंकार से मुक्त होते हैं तो हमारा मन भी निरर्थक गति से रिक्त होता है। जितने भी समाज सुधारक और संत हुए हैं उन्होंने 'मैं' को भुलाने की ही बात कही है। यही 'वह' मैं है जो हमारे भीतर अहंकारों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला बनाता है। इसी 'मैं' के भीतर स्वयं को क़ैद रखकर हम विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत सृजन आदि कर पाने से वंचित रह जाते हैं। | ||
हमारे आस-पास अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमें कोई न कोई विशेष प्रतिभा होती है लेकिन वे सफल नहीं होते और भाग्य को दोष देते मिलते हैं। जबकि वे यह नहीं जान पाते कि उनकी सफलता का रास्ता रोकने के लिए अहंकार हर समय उनके मस्तिष्क पर शासन करता है। प्रतिभा को निखारने के लिए अपने ऊपर से ध्यान हटाना पड़ता | हमारे आस-पास अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमें कोई न कोई विशेष प्रतिभा होती है लेकिन वे सफल नहीं होते और भाग्य को दोष देते मिलते हैं। जबकि वे यह नहीं जान पाते कि उनकी सफलता का रास्ता रोकने के लिए अहंकार हर समय उनके मस्तिष्क पर शासन करता है। प्रतिभा को निखारने के लिए हमें अपने ऊपर से ध्यान हटाना पड़ता है और उसके बाद ही हमारा ध्यान प्रतिभा को निखारने में लगता है। कोई जन्म से '[[ए. आर. रहमान|रहमान]]' या '[[गुलज़ार]]' नहीं होता वरन उसे ख़ुद को भुलाकर अपनी साधना पर ध्यान देना होता है तब कहीं जाकर सफलता मिलती है। इसे यूँ कहा जाय तो अधिक सही होगा कि साधना में इतना खो जाया जाय कि ख़ुद को भूल जाएँ। | ||
सिग्मन्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है और मनोविश्लेषण के प्रत्येक आयाम पर लिखा है। फ्रॉयड के विचार से मनुष्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण काम वासना है। उनका कहना है कि सॅक्स ही जीवन में सब कुछ करवाता है और मनुष्य के जीवन की धुरी काम वासना पर ही टिकी है। लेकिन जॉन ड्युई का कहना कुछ और ही है। अमरीका के मशहूर दार्शनिक और शिक्षा विद् जॉन ड्युई (Jhon Dewey 1869-1952) ने छात्रों को लिखाई-पढ़ाई वाली शिक्षा के स्थान पर अनुप्रयुक्त शिक्षा या व्यावहारिक शिक्षा पर नये और प्रभावशाली प्रयोग किए और इसी पर ज़ोर दिया ख़ैर... वे कहते हैं कि 'the deepest urge in human nature is “the desire to be important.”' | सिग्मन्ड फ्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है और मनोविश्लेषण के प्रत्येक आयाम पर लिखा है। फ्रॉयड के विचार से मनुष्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण काम वासना है। उनका कहना है कि सॅक्स ही जीवन में सब कुछ करवाता है और मनुष्य के जीवन की धुरी काम वासना पर ही टिकी है। लेकिन जॉन ड्युई का कहना कुछ और ही है। अमरीका के मशहूर दार्शनिक और शिक्षा विद् जॉन ड्युई (Jhon Dewey 1869-1952) ने छात्रों को लिखाई-पढ़ाई वाली शिक्षा के स्थान पर अनुप्रयुक्त शिक्षा या व्यावहारिक शिक्षा पर नये और प्रभावशाली प्रयोग किए और इसी पर ज़ोर दिया ख़ैर... वे कहते हैं कि 'the deepest urge in human nature is “the desire to be important.”' | ||
अर्थात मनुष्य की सर्वोपरि इच्छा है 'महत्त्वपूर्ण बनना'। जॉन ड्युई का मानना है कि महत्त्वपूर्ण बनने की चाह मनुष्य को कुछ भी करवाने में सक्षम है। अब अधिकतर मनोवैज्ञानिक जॉन ड्युई से ही सहमत हैं फ्रॉयड से नहीं। | अर्थात मनुष्य की सर्वोपरि इच्छा है 'महत्त्वपूर्ण बनना'। जॉन ड्युई का मानना है कि महत्त्वपूर्ण बनने की चाह मनुष्य को कुछ भी करवाने में सक्षम है। अब अधिकतर मनोवैज्ञानिक जॉन ड्युई से ही सहमत हैं फ्रॉयड से नहीं। |
Revision as of 14:07, 25 January 2013
50px|right|link=|
20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश अहम का वहम -आदित्य चौधरी कहते हैं कि बादशाह अकबर वृन्दावन में स्वामी हरिदास के दर्शन करने संगीत सम्राट तानसेन के साथ आया था। स्वामी जी के मुख से यमुना की महिमा सुनकर अकबर की इच्छा यमुना पूजन करने की हुई। सभी पंडे पुजारी जानते थे कि जो भी अकबर को यमुना पूजन करवाएगा उसे अकबर बहुत बड़ा इनाम देगा। सभी में होड़ लगी थी कि कौन कराएगा पूजन ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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