पुष्टिमार्ग

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पुष्टिमार्ग की आधारशिला महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर रखी थी। इसमें प्रेम प्रमुख भाव है। वल्लभाचार्य ने इस मार्ग पर चलने वालों के लिए 'वल्लभ संप्रदाय' की आधारशिला रखी। पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत दर्शन पर आधारित है। पुष्टिमार्ग में भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण करता है। इसको 'प्रेमलक्षणा भक्ति' भी कहते हैं। 'भागवत पुराण' के अनुसार, "भगवान का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।" वल्लभाचार्य ने इसी आधार पर पुष्टिमार्ग की अवधारणा दी। इसका मूल सूत्र उपनिषदों में पाया जाता है।[1]

वल्लभाचार्य द्वारा स्थापना

हिन्दू धर्म में 'वरूथिनी एकादशी' की महिमा बहुत अधिक है। ऐसा इसलिए है कि विक्रम संवत 1535 में इसी एकादशी को पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। संसार में दैहिक, दैविक एवं भौतिक दु:खों से दु:खी प्राणियों के लिए पुष्टिमार्ग वह साधना का पथ है, जिस पर चलकर व्यक्ति कष्टों से मुक्त होकर श्रीकृष्ण की भक्ति के अलौकिक आस्वाद को पाकर धन्य हो जाता है।

सिद्धांत वाक्य

'पुष्टिमार्ग: पोषणं तदनुग्रह' इस सिद्धांत वाक्य के अनुसार भगवान के अनुग्रह को ‘पुष्टि’ कहते हैं और आनन्द कन्द श्रीकृष्णचन्द्र के उस अनुग्रह को प्राप्त कराने का मार्ग ‘पुष्टिमार्ग’ कहलाता है। श्री महाप्रभु जी ने अपनी 'सिद्धान्त मुक्तावली' में बतलाया है कि भगवान के अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए उनकी सेवा करनी चाहिए। अपने चित्त को भगवान से जोड़ना ही सेवा है। इसीलिए पुष्टिमार्ग में- मंगला, श्रृंगार ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, सन्ध्या आरती एवं शयन, इस अष्टयाम की सेवा को भगवद् अनुग्रह का मुख्य साधन माना जाता है। पुष्टिमार्ग में भक्ति साधन भी है और साध्य भी। ‘पुष्टि प्रवाह’ में भक्ति के स्वरूप का तात्त्विक दृष्टि से निरूपण करते हुए महाप्रभु जी कहते हैं, ‘प्रभु से जब भक्त का राग धीरे-धीरे परिपक्व होकर अनुराग में परिणत हो जाता है, तब भक्त को न तो कोई आकांक्षा रहती और न ही किसी भी प्रकार की छटपटाहट। इस स्थिति में वह आनन्द के सागर में डुबकियां लगाने लगता है। अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होने पर विचलित नहीं होता।[2]

'कठोपनिषद' में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है, उसे अपना साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश माना है। उनके अनुसार, परमात्मा ही जीव-आत्मा के रूप में संसार में छिटका हुआ है। यानी हर व्यक्ति परमात्मा का ही अंश है। इसी आधार पर वल्लभ ने किसी को भी कष्ट या प्रताड़ना देना अनुचित बताया है। जीव को भगवान के अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता क्यों होती है, इसका उत्तर वल्लभाचार्य ने जीवसृष्टि का स्वरूप समझाते हुए दिया है। उनके अनुसार, ब्रह्म की जब एक से अनेक होने की इच्छा होती है, तब अक्षर-ब्रह्म के अंश रूप में असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। सच्चिदानंद अक्षर ब्रह्म के चित अंश से असंख्य निराकार जीव, सत अंश से जड़ प्रकृति तथा आनंद अंश से अंतर्यामी रूप प्रकट होते हैं। जीव में केवल सत और चित अंश होता है, आनंद अंश तिरोहित रहता है। इसी कारण वह भगवान के गुणों-ऐश्वर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- से रहित होता है। परिणामस्वरूप वह दीन, हीन, पराधीन, दुखी, अहंकारी, भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहता है। यही उसकी क्षीणता या दुर्बलता कही जाती है। जब भगवान अपने अनुग्रह से उस जीव को पुष्ट कर देते हैं, तब वह आनंद से भर जाता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 प्रेम पर आधारित है पुष्टिमार्ग (English) jagran.com। अभिगमन तिथि: 28 April, 2016।
  2. साधना का पथ है पुष्टिमार्ग (English) livehindustan.com। अभिगमन तिथि: 28 April, 2016।

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