अनमोल वचन 3: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "दरवाजे" to "दरवाज़े") |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) m (Text replacement - " नर्क " to "नरक") |
||
(18 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 22: | Line 22: | ||
* सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो। | * सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो। | ||
* सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। | * सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। | ||
* | * संन्यासी स्वरूप बनाने से अहंकार बढ़ता है, कपडे मत रंगवाओ, मन को रंगों तथा भीतर से संन्यासी की तरह रहो। | ||
* | * सन्न्यास डरना नहीं सिखाता। | ||
* | * सन्न्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे - धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना। | ||
* सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए। | * सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए। | ||
* सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। | * सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। | ||
Line 35: | Line 35: | ||
* सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। | * सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। | ||
* सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है। | * सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है। | ||
* सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और | * सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान् पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्रि के समय हज़ारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है। | ||
* '''सत्य''' भावना का सबसे बड़ा धर्म है। | * '''सत्य''' भावना का सबसे बड़ा धर्म है। | ||
* सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है। | * सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है। | ||
* सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश्य अनिवार्य जुड़ा होता है। | * सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश्य अनिवार्य जुड़ा होता है। | ||
* सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य | * सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य स्वरूप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था। | ||
* सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस | * सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत् में दूसरा नहीं है। | ||
* सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं। | * सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं। | ||
* सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। | * सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। | ||
Line 46: | Line 46: | ||
* सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है। | * सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है। | ||
* सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कत्र्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है। | * सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कत्र्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है। | ||
* सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ | * सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत् में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान को देखें। | ||
* सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। | * सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। | ||
* सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए। | * सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए। | ||
Line 55: | Line 55: | ||
* 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है। | * 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है। | ||
* स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है। | * स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है। | ||
* स्वर्ग में जाकर ग़ुलामी बनने की | * स्वर्ग में जाकर ग़ुलामी बनने की अपेक्षानरकमें जाकर राजा बनना बेहतर है। | ||
* सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। | * सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। | ||
* सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है। | * सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है। | ||
Line 68: | Line 68: | ||
* समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए। | * समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए। | ||
* समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है। | * समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है। | ||
* समय | * समय महान् चिकित्सक है। | ||
* समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। | * समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। | ||
* समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। ज़िन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक़्त का एक-एक क्षण ठीक उपयोग करने में है। | * समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। ज़िन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक़्त का एक-एक क्षण ठीक उपयोग करने में है। | ||
Line 88: | Line 88: | ||
* सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है। | * सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है। | ||
* सफलता प्राप्त करने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती और असफलता कभी अंतिम नहीं होती। | * सफलता प्राप्त करने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती और असफलता कभी अंतिम नहीं होती। | ||
* सफलता का एक | * सफलता का एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता हैं लेकिन अक्सर हम बंद दरवाज़े की ओर देखते हैं और उस दरवाज़े को देखते ही नहीं जो हमारे लिए खुला रहता है। | ||
* सफलता-असफलता का विचार कभी मत सोचे, निष्काम भाव से अपने कर्मयुद्ध में डटे रहें अर्जुन की तरह आप सफल प्रतियोगी अवश्य बनेंगे। | * सफलता-असफलता का विचार कभी मत सोचे, निष्काम भाव से अपने कर्मयुद्ध में डटे रहें अर्जुन की तरह आप सफल प्रतियोगी अवश्य बनेंगे। | ||
* स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | * स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | ||
Line 106: | Line 106: | ||
* सत्कार्य करके मिलने वाली खुशी से बढ़कर और कोई खुशी नहीं होती। | * सत्कार्य करके मिलने वाली खुशी से बढ़कर और कोई खुशी नहीं होती। | ||
* सीखना दो प्रकार से होता है, पहला अध्ययन करके और दूसरा बुद्धिमानों से संगत करके। | * सीखना दो प्रकार से होता है, पहला अध्ययन करके और दूसरा बुद्धिमानों से संगत करके। | ||
* सबसे | * सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना। | ||
* सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है। | * सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है। | ||
* सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | * सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | ||
Line 141: | Line 141: | ||
==म== | ==म== | ||
* '''मनुष्य''' को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए। | * '''मनुष्य''' को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए। | ||
* मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे | * मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंज़िल पर पहुँच जाता है। | ||
* मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है। | * मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है। | ||
* मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है। | * मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है। | ||
Line 161: | Line 161: | ||
* मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है। | * मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है। | ||
* मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है। | * मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है। | ||
* '''मां''' है मोहब्बत का नाम, | * '''मां''' है मोहब्बत का नाम, माँ से बिछुड़कर चैन कहाँ। | ||
* माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। | * माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। | ||
* माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ गुज़ारा हर पल शानदार होता है। | * माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ गुज़ारा हर पल शानदार होता है। | ||
Line 168: | Line 168: | ||
* 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' की संस्कृति अपनाओ! | * 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' की संस्कृति अपनाओ! | ||
* मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है। | * मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है। | ||
* | * महान् प्यार और महान् उपलब्धियों के खतरे भी महान् होते हैं। | ||
* | * महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है। | ||
* मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है। | * मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है। | ||
* मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती। | * मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती। | ||
* मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है। | * मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है। | ||
* मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के | * मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के जगत् का कोई व्यवहार नहीं चलेगा, अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है। | ||
* मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं। | * मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं। | ||
* मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं। | * मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं। | ||
Line 184: | Line 184: | ||
* मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ। | * मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ। | ||
* मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, 'माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:'। | * मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, 'माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:'। | ||
* मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में | * मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में संन्यासी, ग्रहस्थ, नेता, अभिनेता, कर्मचारी, अधिकारी या व्यापारी हूँ। | ||
* मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है। | * मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है। | ||
* मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है। | * मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है। | ||
Line 199: | Line 199: | ||
* महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है। | * महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है। | ||
* मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है। | * मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है। | ||
* | * मज़दूर के दो हाथ जो अर्जित कर सकते हैं वह मालिक अपनी पूरी संपत्ति द्वारा भी प्राप्त नहीं कर सकता। | ||
* मेरा निराशावाद इतना सघन है कि मुझे निराशावादियों की मंशा पर भी संदेह होता है। | * मेरा निराशावाद इतना सघन है कि मुझे निराशावादियों की मंशा पर भी संदेह होता है। | ||
* मूर्ख व्यक्ति दूसरे को मूर्ख बनाने की चेष्टा करके आसानी से अपनी मूर्खता सिद्ध कर देते हैं। | * मूर्ख व्यक्ति दूसरे को मूर्ख बनाने की चेष्टा करके आसानी से अपनी मूर्खता सिद्ध कर देते हैं। | ||
Line 217: | Line 217: | ||
* दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | * दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | ||
* दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है। | * दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है। | ||
* दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम | * दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप वह राहत के बदले प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है। | ||
* दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कर्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता। | * दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कर्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता। | ||
* दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है। | * दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है। | ||
Line 240: | Line 240: | ||
==प== | ==प== | ||
* परमात्मा वास्तविक | * परमात्मा वास्तविक स्वरूप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं। | ||
* परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। | * परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। | ||
* परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो। | * परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो। | ||
* परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। | * परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। | ||
* परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है। | * परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है। | ||
* पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, | * पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, महान् है। | ||
* पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र। | * पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र। | ||
* '''पाप''' अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है। | * '''पाप''' अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है। | ||
Line 328: | Line 328: | ||
* विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है। | * विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है। | ||
* विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | * विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | ||
* विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, | * विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरूपी इस व्रक्ष का। | ||
* विचारों को कार्यरूप देना ही सफलता का रहस्य है। | * विचारों को कार्यरूप देना ही सफलता का रहस्य है। | ||
* विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व | * विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान् है तथा विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है। | ||
* विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है। | * विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है। | ||
* वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है। | * वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है। | ||
* विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता। - वाङ्गमय | * विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता। - वाङ्गमय | ||
* विद्या वह अच्छी, जिसके पढ़ने से बैर द्वेष भूल जाएँ। जो | * विद्या वह अच्छी, जिसके पढ़ने से बैर द्वेष भूल जाएँ। जो विद्वान् बैर द्वेष रखता है, यह जैसा पढ़ा, वैसा न पढ़ा। | ||
* वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | * वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | ||
* विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | * विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | ||
Line 352: | Line 352: | ||
* यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। | * यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। | ||
* यदि कोई दूसरों की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी ज़िन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। | * यदि कोई दूसरों की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी ज़िन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। | ||
* यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी | * यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। | ||
* यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है। | * यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है। | ||
* यदि पुत्र | * यदि पुत्र विद्वान् और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है। | ||
* यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है। | * यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है। | ||
* यदि सज्जनो के मार्ग पर पुरा नहीं चला जा सकता तो थोडा ही चले। सन्मार्ग पर चलने वाला | * यदि सज्जनो के मार्ग पर पुरा नहीं चला जा सकता तो थोडा ही चले। सन्मार्ग पर चलने वाला पुरुष नष्ट नहीं होता। | ||
* यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते। | * यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते। | ||
* यदि आपको कोई कार्य कठिन लगता है तो इसका अर्थ है कि आप उस कार्य को ग़लत तरीके से कर रहे हैं। | * यदि आपको कोई कार्य कठिन लगता है तो इसका अर्थ है कि आप उस कार्य को ग़लत तरीके से कर रहे हैं। | ||
Line 379: | Line 379: | ||
* बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | * बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | ||
* बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | * बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | ||
* बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक | * बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान् व उत्तम प्राप्ति है। | ||
* बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। | * बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। | ||
* बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती। | * बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती। | ||
Line 391: | Line 391: | ||
* बुराई के अवसर दिन में सौ बार आते हैं तो भलाई के साल में एकाध बार। | * बुराई के अवसर दिन में सौ बार आते हैं तो भलाई के साल में एकाध बार। | ||
* बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है। | * बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है। | ||
* बाह्य | * बाह्य जगत् में प्रसिद्धि की तीव्र लालसा का अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है। | ||
* बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। | * बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। | ||
* बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | * बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | ||
Line 421: | Line 421: | ||
* ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | * ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | ||
* ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं। | * ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं। | ||
* ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से | * ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान् बनता है। | ||
* ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | * ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | ||
* ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है। | * ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है। | ||
Line 476: | Line 476: | ||
* हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है। | * हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है। | ||
* हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं। | * हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं। | ||
* हम किसी बड़ी खुशी के इन्तिजार में छोटी-छोटी खुशियों को | * हम किसी बड़ी खुशी के इन्तिजार में छोटी-छोटी खुशियों को नजरअंदाज़कर देते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि छोटी-छोटी खुशियाँ ही मिलकर एक बड़ी खुशी बनती है। इसलिए छोटी-छोटी खुशियों का आनन्द लीजिए, बाद में जब आप उन्हें याद करेंगे तो वही आपको बड़ी खुशियाँ लगेंगी। | ||
* हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है। | * हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है। | ||
* हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। | * हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। | ||
Line 524: | Line 524: | ||
==ल== | ==ल== | ||
* लोगों को चाहिए कि इस | * लोगों को चाहिए कि इस जगत् में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है। | ||
* लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। | * लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। | ||
* लोग क्या कहते हैं - इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ़ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं? | * लोग क्या कहते हैं - इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ़ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं? | ||
Line 554: | Line 554: | ||
* तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं। | * तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं। | ||
* तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव। | * तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव। | ||
* तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे | * तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे साफ़ शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है। | ||
* तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है। | * तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है। | ||
==फ== | ==फ== | ||
* फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो। | * फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो। | ||
* फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना | * फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना ज़रूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है। | ||
* फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको। | * फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको। | ||