ब्रजभाषा साहित्य का इतिहास (काल विभाजन): Difference between revisions
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सूफ़ी काव्य का बीच रूप भी जिस काव्य से मिलता है, वह मुल्लादाउद का चन्दायन नहीं है, वह साधन का ‘मैनासत’ है, जिसकी भाषा ग्वालियरी है और वह कुछ और नहीं ब्रजभाषा ही है। कुछ | सूफ़ी काव्य का बीच रूप भी जिस काव्य से मिलता है, वह मुल्लादाउद का चन्दायन नहीं है, वह साधन का ‘मैनासत’ है, जिसकी भाषा ग्वालियरी है और वह कुछ और नहीं ब्रजभाषा ही है। कुछ विद्वान् ब्रजभाषा का पुराना नाम 'ग्वालियरी' ही देते हैं। ‘मैनासत’ का रचना काल पन्द्रहवीं शताब्दी है। यह उल्लेखनीय है कि, इस कोटि के कवियों की भाषा बहुत परिमार्जित नहीं है, न उसमें वक्र-भंगिमाओं के लिए कोई विशेष स्थान है। उदाहरण के लिए नामदेव ने इस [[छन्द]] में बहुत सीधे-साधे ढंग से लीला का कीर्तन किया है- | ||
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[[चित्र:Dadu-Dayal.gif|thumb|दादू दयाल]] ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इसका उदयकाल जिसके ऊपर 'नागर' अपभ्रंश काव्य की छाप है। इसी कारण उसमें दिखने वाले हिन्दी के मध्य देश में पैदा हुए अमीर ख़ुसरो से लेकर महाराष्ट्र में पैदा हुए महानुभाव और ज्ञानेश्वर के साथी नामदेव हैं। दूसरी ओर पंजाब से लेकर बिहार तक के सन्त कवि हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का व्यवहार करते हैं, परन्तु गेय प्रयोजन के लिए प्राय: ब्रजभाषा का ही व्यवहार करते हैं। इनकी सूची बड़ी लम्बी है और पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश सन्त-कवि साहित्यिक ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मुख्य नाम ये हैं-कबीर, रैदास, धर्मदास और गुरु नानक, दादू दयाल और सत्रहवीं शताब्दी के सुन्दरदास, मलूकदास और अक्षरअनन्य हैं।
सूफ़ी काव्य का बीच रूप भी जिस काव्य से मिलता है, वह मुल्लादाउद का चन्दायन नहीं है, वह साधन का ‘मैनासत’ है, जिसकी भाषा ग्वालियरी है और वह कुछ और नहीं ब्रजभाषा ही है। कुछ विद्वान् ब्रजभाषा का पुराना नाम 'ग्वालियरी' ही देते हैं। ‘मैनासत’ का रचना काल पन्द्रहवीं शताब्दी है। यह उल्लेखनीय है कि, इस कोटि के कवियों की भाषा बहुत परिमार्जित नहीं है, न उसमें वक्र-भंगिमाओं के लिए कोई विशेष स्थान है। उदाहरण के लिए नामदेव ने इस छन्द में बहुत सीधे-साधे ढंग से लीला का कीर्तन किया है-
अम्बरीष कौ दियौ अभय पद, राज विभीषन अधिक करयो।
नवनिधि ठाकुर दई सुदामहि, ध्रुव जो अटल अजहूँ न टरयो।
भगत हेत मारयो हरिनाकुस, नृसिंह रूप ह्वै देह धरयो।
नामा कहै भगति बस केसव, अजहूँ बलि के द्वार खरौ।
[[चित्र:Kabirdas.jpg|thumb|कबीर]] इस प्रकार कबीर के इस पद में सूरदास की भाषा का एक प्रागरूप मिलता है, जो उक्ति की नाटकीयता का बड़ा सरस उदाहरण प्रस्तुत करता है-
हौ बलि कब देखौंगी तोहि।
अहनिसि आंतुर दरसन कारनि ऐसी ब्यापी मोहि।
नैन हमारे तुम्हको चाहैं, रती न मानैं हारि।
बिरह अगिनि तन अधिक जरावै ऐसी लेहु विचारि।
सुनहु हमारी दादि गोसाई, अब जनि करहु अधीर।
तुम धीरज मैं आतुर, स्वामी काँचे भाँड़े नीर।
बहुत दिनन के बिछुरे माधी, मन नहि बाँधे धीर।
देह छमा तुम मिलहु कृपा करि आरतिवन्त कबीर।
रैदास और धर्मदास में भाषा कुछ अधिक संवरी हुई मिलती है, उदाहरण के लिए रैदास का पद लें-
अब कैसे छूटे नाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सोहागा।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करी रैदासा।।
या धर्मदास का यह पद जिसमें हल्की सी भोजपुरी छटा है और शब्द योजना में अनुरणात्मक प्रभाव की गूँज है-
झर लागै महलिया गगन महराय।
खन गरजै खन बिजली चमकै, लहरि उठै सोभा बरनि न जाय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम आनन्द ह्वै साधु नहाय।
खुली केवरिया, मिटी अँधियरिया धनि सतगुरु जिन दिया लखाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।
गुरु नानक और दादू दयाल में ब्रजभाषा का प्राय: तो मिश्रित रूप मिलता है, किन्तु कहीं-कहीं ब्रजभाषा में पूरा का पूरा पद रचा मिलता है, जैसे [[चित्र:Guru-Nanak.jpg|thumb|गुरु नानक]]
नानक के इस पद में-
जो नर दु:ख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाकें, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तै रहे नियारो, नाहिं मान अपमाना।
आसा मनसा सकल त्यागि कै जगतें रहे निरासा।
काम क्रोध जेहि परसै नाहिन तेहि घट ब्रह्म निवासा।
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्ही तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोविन्द सौ ज्यों पानी सँग पानी।
और दादू के इस पद में-
अजहूँ न निकसै प्राण कठोर।
दर्सन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर।।
चारि पहर चारयौ जुग बीते, रैनि गँवाइ भोर।
अवधि गई अजहूँ नहि आये, कतहूँ रहे चितचोर।।
कबहूँ नैन निरषि नहिं देषे, मारग चितवत तोर।
दादू ऐसे आतुर विरहिणि, जैसे चंद चकोर।।
या सुन्दरदास और मलूकदास में जिनका कार्यकाल सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक चला जाता है, ब्रजभाषा का और अधिक निखरा हुआ रूप मिलता है। सुन्दरदास के एक उदाहरण में-
तू ठगि कै धन और कौ ल्यावत, तेरेउ तौ घर औरइ फोरै।
आगि लगै सबही जरि जाइ सु तू, दमरी दमरी करि जोरै।
हाकिम कौ डर नाहिन सूझत, सुन्दर एकहि बार निचोरै।
तू षरचै नहिं आपुन षाइ सु तेरी हि चातुरि तोहि लै बोरे।।
मलूकदास के पद में-
अबकी लागी खेप हमारी।
लेखा दिया साह अपने को, सहजै चीठी फारी।
सौदा करत बहुत जुग बीते, दिन दिन टूटी आई।
अबकी बार बेबाक भये हम जम की तलब छोड़ाई।
चार पदारथ नफा भया मोहि, बनिजैं कबहूँ न जइहौं।
अब डहकाय बलाय हमारी, घर ही बैठे खइहौं।
वस्तु अमोलक गुप्तै पाई, ताती वायु न लाओं।
हरि हीरा मेरा ज्ञान जौहरी, ताही सों परखाओं।
देव पितर औ राजा रानी, काहू से दीन न भाखौं।
कह मलूक मेरे रामैं पूँजी, जीव बराबर राखौं।।
[[चित्र:Bihari-Lal.jpg|thumb|बिहारीलाल]] इन दोनों उदाहरणों में मुहावरेदारी और एक उक्ति को दूसरे में पिरोने की कुशलता और रूपक का निर्वाह तीनों के गुण मिलते हैं। जिससे पता चलता है कि साहित्यिक ब्रजभाषा के विकास का रंग इनमें गहरा है और इन्हें रचनाकाल और भाषा-विकास की दृष्टि से ब्रजभाषा साहित्य के दूसरे चरण में रखना उचित होगा। धरनीदास के निम्नलिखित दोहे की बंदिश और बिहारीलाल के दोहे की बंदिश में बहुत कम अन्तर दिखेगा।
धरनी धरकत है हिया करकत आहि करेज।
ढरकत लोचन भरि भरि पीया नाहिन सेज।
उसी प्रकार सन्त कवि यारी साहब के इस पद और पद्माकर की ध्वनि-चित्रमयी भाषा में अन्तर नहीं के बराबर है-
झिलमिल-झिलमिल बरखै नूरा
नूर जहूर सदा भरपूरा।।
रुनझुन-रुनझुन अनहद बाजै
भवन गुँजार गगन चढ़ि गाजै।।
रिमझिम-रिमझिम बरखै मोती
भयो प्रकास निरन्तर जोती।।
निरमल-निरमल-निरमल नामा
कह यारी तहँ लियो विस्रामा।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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