रैक्व की कथा: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "खरीद" to "ख़रीद")
No edit summary
Line 10: Line 10:
महात्मा ने राजा जनश्रुति को ज्ञान का उपदेश दिया, जिसे प्राप्त कर राजा का जीवन धन्य हो गया और वह भी संसार में एक ज्ञानी महात्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
महात्मा ने राजा जनश्रुति को ज्ञान का उपदेश दिया, जिसे प्राप्त कर राजा का जीवन धन्य हो गया और वह भी संसार में एक ज्ञानी महात्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।


'''ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः<balloon title="श्वेताश्वरोपनिषद 2/15" style=color:blue>*</balloon>।'''
'''ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः<ref>श्वेताश्वरोपनिषद 2/15</ref>।'''


'''उस दिव्य ज्योति स्वरूप ईश्वर को जानकर जन्म-मरणादि के सब बन्धनों से मनुष्य छूट जाता है।'''
'''उस दिव्य ज्योति स्वरूप ईश्वर को जानकर जन्म-मरणादि के सब बन्धनों से मनुष्य छूट जाता है।'''
==टीका टिप्पणी==
<references/>
==अन्य लिंक==
==अन्य लिंक==
{{कथा}}
{{कथा}}

Revision as of 12:30, 1 June 2010

जनश्रुति नामक वैदिक काल में एक राजा थे । वे बड़े उदार ह्रदय तथा दानी थे । सारे राज्य में जगह-जगह पर उन्होंने धर्मशालाएं बनावा रखी थीं जहां यात्रियों को निःशुल्क ठहराने तथा भोजन कराने की व्यवस्था थी। वे चाहते थे कि अधिक से अधिक लोग उनका ही अन्न खाएं ताकि उन्हें इस सबका पुण्यफल प्राप्त हो। वह राजा और भी अनेक कार्य जनता की भलाई के लिए करता था जैसे चिकित्सालय खोले हुए थे, जहां पर निर्धन रोगियों का मुफ्त इलाज होता था। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कें बनाई गई थीं, छायादार वृक्ष लगाए गए थे। जगह-जगह कुंए तथा बावड़ियों का प्रबंध पानी पीने के लिए किया गया था। इस प्रकार राजा प्रजा की भलाई के लिए निरंतर तत्पर रहता था। परन्तु इन सब कार्यों को करते हुए राजा को यह अभिमान भी हो गया था कि उसके समान प्रजा के हित का ध्यान रखने वाला और यहाँ कोई दूसरा राजा नहीं हो सकता।

एक दिन कुछ हंस रात्रि व्यतीत करने के लिए उड़ते हुए महल की छत पर आकर बैठ गए और आपस में वार्तालाप करने लगे। एक हंस व्यंग्य करते हुए अन्य हंसों से बोला, 'देखो इस जनश्रुति राजा ने इतने पुण्य के कार्य किए हैं कि उसका तेज चारों ओर बिजली के प्रकाश के समान फैल गया है। कहीं उससे छू मत जाना नहीं तो तुम सब भस्म हो जाओगे।' दूसरे हंस ने हंसते हुए उत्तर दिया, 'अरे तुम्हें कुछ मालूम नहीं है। इस राजा के राज्य में एक ब्रह्मज्ञानी रैक्व रहता है। उसके सामने इस राजा के सभी परोपकार के किए गए कार्य तुच्छ हैं। उसका ज्ञान इतना महान है कि उसने परब्रह्म को जान लिया है। उसके सामने इस राजा के ही नहीं प्रजा के भी सभी धार्मिक अनुष्ठान फीके हैं बल्कि राजा-प्रजा जो कुछ भी अच्छे कार्य करते हैं, उन सबका फल ज्ञानी रैक्व को ही प्राप्त हो जाता है।' पूर्व हंस जो व्यंग्य कर रहा था, बोला, 'भाई ऐसा कैसा ज्ञान है जो राजा भी नहीं जानता। वह तो ऐसा समझता है कि उससे बढ़कर कोई दानी तथा ज्ञानवान है ही नहीं।' दूसरे हंस ने गम्भीरता से उत्तर दिया, 'जिस तत्व को ज्ञानी रैक्व जानते हैं, यदि उसको कोई दूसरा भी जान लेगा तो वह भी उन्हीं की भांति दूसरों के पुण्य कार्यों के फलों को प्राप्त कर लेगा।' राजा ने हंसों का यह सारा वार्तालाप सुना। रैक्व के विषय में जानने के लिए वह अत्यन्त व्यग्र हो उठा। किसी प्रकार सोते-जागते उसने रात्रि व्यतीत की तथा प्रातः नित्य कर्मों से निवृत्त होकर अपने मन्त्रियों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि जहां कहीं भी रैक्व नाम के महात्मा हों, उन्हें ढूंढा जाए और उनके मिलते ही उसकी सूचना उन्हें दी जाए।

राजा के सिपाही चारों ओर महात्मा रैक्व को ढूंढने¸के लिए निकल पड़े। सारा देश उन्होंने छान मारा, नगर और ग्राम सभी देखे, लेकिन ब्रह्मज्ञानी रैक्व का कहीं पता नहीं चला। निराश होकर सरदारों ने राजा को यह सूचना दी कि उन महात्मा का कोई पता नहीं चला। तब राजा ने खोज की गई सभी जगहों की जानकारी प्राप्त करने के पश्चात यह आदेश दिया कि उन्हें वनों, पहाड़ों और घाटियों तथा नदियों के किनारे पर ढूंढा जाए न कि ग्राम और नगरों में, क्योंकि ऐसे ज्ञानियों के वहीं ठिकाने हो सकते हैं। खोज पुनः प्रारम्भ हुई और राजा की बात सच निकली। महात्मा रैक्व एक एकान्त जगह पर बैठे हुए अपने शरीर को खुजा रहे थे। एक सिपाही ने उनसे पूछा, 'महाराज क्या आप ही प्रसिद्ध ब्रह्मज्ञानी रैक्व हैं।' रैक्व के सहमति में सिर हिलाने पर सिपाही वापस राजधानी की ओर दौड़े और राजा को महात्मा रैक्व की उपस्थिति की सूचना दी। राजा सैकड़ों गायों, सुवर्ण तथा अन्य सामाग्रियों से भरे हुए एक रथ को लेकर महात्मा के पास पहुंचा और उनकी अच्छी प्रकार से वन्दना करके वह सारी सामग्री उनके समक्ष रखते हुए बोला, 'महात्मा यह सारी सामग्री भेंट के रूप में आपके लिए लाया हूं, कृपया इसे स्वीकार करें और मुझे उस देवता के विषय में बताएं जिसकी आप उपासना करते हैं।' महात्मा ने तिरस्कारपूर्वक उस सारी सामग्री को देखा और राजा से बोले, 'अरे मूर्ख यह सब कुछ मुझे नहीं चाहिए, तू ही इन्हें अपने पास रख और यहाँ से चला जा। मेरी शांति को भंग मत कर।'

राजा चुपचाप वापस चल दिया और सोचने लगा कि महात्मा जी को प्रसन्न करने के लिए वह क्या करे। किसी न किसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने का अत्यन्त इच्छुक था। सोचते-सोचते उसके मन में यह विचार आया कि वह अपनी सबसे प्यारी वस्तु को महात्मा के चरणों में अर्पित करे, शायद उससे उनका ह्दय पिघल जाए। राजा को सबसे अधिक स्नेह अपनी युवा पुत्री से था। वह पुनः एक हज़ार गाएं, सामग्री से भरा हुआ रथ, सुवर्ण के आभूषण तथा अपनी कन्या को लेकर महाज्ञानी रैक्व के पास पहुंच गया और उनसे सभी वस्तुओं तथा अपनी कन्या को पति के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया तथा ज्ञान देने की प्रार्थनी की। अब महात्मा रैक्व को सच्ची जिज्ञासा का भान हुआ, लेकिन उसके साथ-साथ सांसारिक भोग वस्तुओं के प्रति जो राजा की महत्व देने की प्रवृत्ति थी, उसका भी पता लगा। महात्मा रैक्व ने उसे समझाया, 'क्या तुम समझते हो कि इन सांसारिक वस्तुओं से तुम ब्रह्मज्ञान ख़रीद सकते हो । अरे यह सब तुच्छ हैं। ईश्वरीय ज्ञान के समक्ष इनकी कोई महत्ता नहीं है। ये सब नाशवान हैं। इनका मोह त्याग दो। इन्हें महत्व मत दो, तभी तुम ज्ञान प्राप्त कर सकते हो।' राजा सत्य को समझ गया। वह चुपचाप हाथ-जोड़ कर अपने अभिमान को त्यागकर, महात्मा रैक्व के सामने पृथ्वी पर ही बैठ गया। तब महात्मा रैक्व ने यह समझ लिया कि राजा का अभिमान समाप्त हो गया है। उसे अपने द्वारा किए गए जनहित कार्यों का अभिमान नहीं रहा है और न उसे अपनी धन-सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का ही अभिमान है। वह सच्चा जिज्ञासु है तथा ज्ञान की खोज में ही उनके पास आया है। तब महात्मा ने राजा जनश्रुति को ज्ञान का उपदेश दिया, जिसे प्राप्त कर राजा का जीवन धन्य हो गया और वह भी संसार में एक ज्ञानी महात्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः[1]

उस दिव्य ज्योति स्वरूप ईश्वर को जानकर जन्म-मरणादि के सब बन्धनों से मनुष्य छूट जाता है।

टीका टिप्पणी

  1. श्वेताश्वरोपनिषद 2/15

अन्य लिंक