व्योमवती: Difference between revisions
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व्योमशिवाचार्य विरचित व्योमवती
व्योमवती प्रशस्तपाद भाष्य की टीका है। इस व्याख्या में यद्यपि वेदान्त और सांख्य मत का भी निराकरण किया गया है, तथापि इसका झुकाव अधिकतर बौद्ध मत के खण्डन की ओर है। प्रतीत होता है कि प्रशस्तपाद भाष्य की व्याख्या के बहाने व्योमशिवाचार्य द्वारा यह मुख्य रूप से बौद्ध और जैन मत के खण्डन के लिए ही लिखी गई है।
इस व्याख्या में कुमारिल भट्ट, प्रभाकर, धर्मकीर्ति, कादम्बरी, श्रीहर्षदेव, श्लोकवार्तिक, प्रमाणवार्तिक आदि का उल्लेख तथा मण्डन मिश्र और अकलंक के मत का खण्डन उपलब्ध होता है। यद्यपि प्रशस्तपाद भाष्यार्थ साधक प्रमाणों का और प्रासंगिक अर्थों का प्रतिपादन अन्य व्याख्याओं में भी उपलब्ध होता है, तथापि ईश्वरानुमान जैसे संदर्भों में व्योमवती का विश्लेषण भाष्याक्षरों के अनुरूप, किन्तु किरणावली और न्यायकन्दली के विश्लेषण से कुछ भिन्न है।
कुछ लोग सप्तपदार्थीकार शिवादित्य और व्योमवतीकार व्योमशिवाचार्य को एक ही व्यक्ति समझते हैं, किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि सप्तपदार्थी में दिक के ग्यारह, सामान्य के तीन, प्रमाण के दो (प्रत्यक्ष अनुमान) और हेत्वाभास के छ: भेद बताये गये हैं, जबकि व्योमवती में दिक के दश, सामान्य के दो, प्रमाण के तीन (प्रत्यक्ष-अनुमान -शब्द) और हेत्वाभास के पाँच भेद बताये गये हैं।
यद्यपि बम्बई विश्वविद्यालय में उपलब्ध सप्तपदार्थी की मातृका में यह उल्लेख है कि यह व्योमशिवाचार्य की कृति है। किन्तु अन्यत्र सर्वत्र यह शिवादित्य की ही कृति मानी गई है। अत: दोनों का पार्थक्य मानना ही अधिक संगत है।
व्योमशिवाचार्य शैव थे। श्रीगुरुसिद्ध चैतन्य शिवाचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर यह व्योमशिवाचार्य नाम से विख्यात हुए। इन्होंने भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रभाकर और हर्षवर्धन का उल्लेख किया हैं अत: उनका समय सप्तम-अष्टम शताब्दी माना जा सकता है।
व्योमशिवाचार्य का समय उपर्युक्त रूप से कुछ लोगों का यह कथन है कि कादम्बरी, श्रीहर्ष और देवकुल का निर्देश करने के कारण व्योमाशिवाचार्य हर्षवर्धन (606-645 ई.) के समकालीन हैं, किन्तु अन्य लोगों का यह विचार है कि मण्डन मिश्र और अकलंक के मोक्ष विषय के विचारों का खण्डन करने के कारण यह 700-900 ई. के बीच विद्यमान रहे होंगें। वी. वरदाचारी इनका समय 900-960 ई. मानते हैं। अन्य कई विद्वान इनका समय 980 ई. मानते हैं।
संक्षेप में मेरी दृष्टि से यही मानना अधिक उपयुक्त है कि व्योमशिव किरणावलीकार से पूर्ववर्ती तथा मण्डन मिश्र और अकलंक से उत्तरवर्ती काल (700-900 ई.) में हुए।
व्योमशिवाचार्य का मत
कणाद और प्रशस्तपाद प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को मानते हैं, किन्तु व्योमाशिवाचार्य ने शब्द को भी प्रमाण माना है। इनके प्रमाणत्रय सिद्धान्त का उल्लेख शंकराचार्य ने सर्वदर्शन सिद्धान्त संग्रह में किया हैं अत: इस दृष्टि से तो यह शंकर के पूर्ववर्ती हैं, किन्तु सर्वदर्शन सिद्धान्त संग्रह प्रामाणिक रूप से शंकराचार्य रचित नहीं माना जा सकता। व्योमशिवाचार्य द्वारा काल को अतिरिक्त द्रव्य मानने के सम्बन्ध में जैसी युक्तियाँ दी गई हैं, वैसी ही किरणावली में भी उपलब्ध होती हैं। न्यायकन्दली और लीलावती में भी इनके मत की समीक्षा की गई है। व्योमवती के सृष्टि संहार निरूपण सम्बन्धी भाष्य से उद्धृत 'वृतिलब्ध' पद की व्याख्या के अवसर पर 'व्युत्पतिर्लब्धायैरिति' इस व्युत्पत्ति की जो असंगति दिखाई गई है, उसका खण्डन कन्दली में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त उदयनाचार्य किरणावली में, वर्धमान किरणावलीप्रकाश में, तथा श्रीधर कन्दली में 'कश्चित्' 'एके', 'अन्ये' आदि शब्दों से भी व्योमवतीकार का उल्लेख करते हैं अत: यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि प्रशस्तपाद भाष्य की उपलब्ध व्याख्याओं में व्योमवती सर्वाधिक प्राचीन है।