अहमद फ़राज़: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "शौक " to "शौक़ ") |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 32: | Line 32: | ||
|अद्यतन= | |अद्यतन= | ||
}} | }} | ||
'''अहमद फ़राज़''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ahmad Faraz'', जन्म: 12 जनवरी 1931 - मृत्यु: 25 अगस्त 2008) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तानी के उन उर्दू कवियों में थे जिन्हें [[ | '''अहमद फ़राज़''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ahmad Faraz'', जन्म: 12 जनवरी 1931 - मृत्यु: 25 अगस्त 2008) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तानी के उन उर्दू कवियों में थे जिन्हें [[फ़ैज़ अहमद फ़ैज़]] के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली। अहमद फ़राज़ का असली नाम 'सैयद अहमद शाह अली' था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
अहमद फ़राज़ की पैदाइश [[12 जनवरी]] [[1931]] (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा ([[पाकिस्तान]]) में हुई। पेशावर विश्वविद्यालय से [[उर्दू]] तथा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे। शायरी का शौक़ बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और [[फ़ैज़ी|फ़ैज़ अहमद फै़ज़]] के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। | अहमद फ़राज़ की पैदाइश [[12 जनवरी]] [[1931]] (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा ([[पाकिस्तान]]) में हुई। पेशावर विश्वविद्यालय से [[उर्दू]] तथा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे। शायरी का शौक़ बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और [[फ़ैज़ी|फ़ैज़ अहमद फै़ज़]] के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। | ||
Line 57: | Line 57: | ||
</poem> | </poem> | ||
==लोकप्रियता== | ==लोकप्रियता== | ||
जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें [[मीर तक़ी मीर]], [[ग़ालिब]] आदि की चर्चा जरूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल [[ | जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें [[मीर तक़ी मीर]], [[ग़ालिब]] आदि की चर्चा जरूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल [[फ़ैज]] और [[फ़िराक़ गोरखपुरी|फ़िराक]] का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=1534 |title= आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़|accessmonthday=3 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref> | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
Revision as of 12:00, 18 June 2013
अहमद फ़राज़
| |
पूरा नाम | सैयद अहमद शाह अली |
अन्य नाम | फ़राज़ |
जन्म | 12 जनवरी, 1931 |
जन्म भूमि | कोहट, भारत (अब पाकिस्तान में) |
मृत्यु | 25 अगस्त 2008 |
मृत्यु स्थान | इस्लामाबाद, पाकिस्तान |
कर्म-क्षेत्र | उर्दू कवि |
नागरिकता | पाकिस्तानी |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
अहमद फ़राज़ (अंग्रेज़ी: Ahmad Faraz, जन्म: 12 जनवरी 1931 - मृत्यु: 25 अगस्त 2008) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तानी के उन उर्दू कवियों में थे जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली। अहमद फ़राज़ का असली नाम 'सैयद अहमद शाह अली' था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा।
जीवन परिचय
अहमद फ़राज़ की पैदाइश 12 जनवरी 1931 (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा (पाकिस्तान) में हुई। पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे। शायरी का शौक़ बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फ़ैज़ अहमद फै़ज़ के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। फ़राज़ को क्रिकेट खेलने का भी शौक़ था। लेकिन शायरी का शौक़ उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाज़िर के ग़ालिब बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें क्षय हो चुकी हैं। ग़ज़लों के साथ ही फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं। लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं। इन ग़ज़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फ़राज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं। 25 अगस्त 2008 को आसमाने-ग़ज़ल का ये रोशन सितारा हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया। साथ ही ग़ज़लों, मुशायरों और महफिलों को भी बेनूर कर गया।[1] फ़राज़ की ही ग़ज़ल का मिसरा है -
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
लोकप्रिय शेर
1. अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
2. इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
3. दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
4. करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
5. तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
लोकप्रियता
जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें मीर तक़ी मीर, ग़ालिब आदि की चर्चा जरूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।[2]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते (हिंदी) वेब दुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 3 दिसम्बर, 2012।
- ↑ आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़ (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 3 दिसम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख